Monday, 25 May 2020

बंधुत्व ,जाति तथा वर्ग : वर्ग 12 पाठ 3 भाग 8

                                        एक धनाढ्य   शूद्र 
                           यह कहानी  पाली  भाषा के बौद्व ग्रन्थ  मज्झिमनिकाय से है जो एक  राजा अवन्ती पुत्र और और बुद्व के अनुयायी कच्चन के बीच हुए सम्वाद का हिस्सा है | यद्यपि यह कहानी अक्षरश: सत्य नही थी तथापि यह बौद्वों के वर्ण सम्बन्धी रवैये को दर्शाती है |

                           अवन्तिपुत्र  ने कच्चन से पूछा कि ब्राह्मणों के इस मत के बारे में उनकी क्या राय है , कि वे सर्वश्रेष्ठ है और अन्य जातियां निम्न कोटि की है ;   ब्राह्मण का वर्ण शुभ्र है और अन्य जातियां काली है ;  केवल ब्राह्मण पवित्र है अन्य नहीं ;  ब्राह्मण ब्राह्मा के पुत्र है , ब्रह्मा के मुख से जन्मे है , उनसे ही रचित है तथा ब्रह्मा के वंशज है |

                           कच्चन ने उत्तर दिया : " क्या यदि शूद्र धनी होता ............... दूसरा शूद्र ............. अथवा क्षत्रिय या फिर ब्राह्मण  अथवा वैश्य .................. उससे विनीत  स्वर में बात करता  ? "

                            अवन्तिपुत्र ने प्रत्युतर में कहा कि यदि शूद्र के पास धन अथवा  अनाज , स्वर्ण  या फिर रजत होती वह दूसरे शूद्र को अपने आज्ञाकारी सेवक के रूप में प्राप्त कर सकता था , जो उससे पहले उठे और उसके बाद विश्राम करे ;  जो  उसकी आज्ञा का पालन करे , विनीत वचन बोले ; अथवा वह क्षत्रिय , ब्राह्मण या फिर वैश्य को भी  आज्ञावाही सेवक बना सकता था |

                             कच्चन ने पूछा ," यदि ऐसा है , तो क्या फिर यह चारों वर्ण एकदम समान नही है ? "

                             अवन्तिपुत्र  ने यह स्वीकार किया कि इस आधार पर चारों वर्णों में कोई भेद नही है  |

नोट: 

* इस कहानी से यह ज्ञात होता है कि समाज में  सामाजिक प्रतिष्ठा  जन्मना  वर्णव्यवस्था  पर आधरित नही है  बल्कि  यह  सम्पति के आधार पर सामाजिक भेदभाव है |
* ऐसा  भी नही है की प्रत्येक जगहों पर एक सी स्थिति  थी |  तमिल भाषा के संगम साहित्य संग्रह से यह जानकारी मिलती है  कि धनी एवं निर्धन के बीच विषमताएं थी , जिन लोगों का संसाधनों पर नियन्त्रण था उनसे यह अपेक्षा की जाती थी कि वे मिल-बाँट कर उसका उपयोग करेंगे |

सामाजिक विषमताओं की व्याख्या  : एक सामाजिक अनुबंध 
* बौद्वों ने समाज में फैली विषमताओं के सन्दर्भ में एक अलग अवधारणा  प्रस्तुत की | साथ ही समाज में फैले अंतरविरोधो को नियंमित करने के लिए जिन संस्थाओं की आवश्यकता की , उस पर भी अपना दृष्टिकोण सामने रखा |
* सुत्तपिटक  नामक ग्रन्थ में एक मिथक वर्णित है  जो यह बताता है कि प्रारम्भ में मानव पूर्णतया विकसित नही था | वनस्पति जगत भी अविकसित था | सभी जीव शान्ति के  एक निर्बाध लोक में रहते थे  और प्रकृति से उतना ही ग्रहण करते जितनी एक समय के भोजन की आवश्यकता  होती है |

* किन्तु यह व्यवस्था क्रमश: पतनशील हुई | मनुष्य अधिकाधिक लालची , प्रतिहिंसक  और कपटी  हो गए | इस स्थिति में उन्होंने विचार किया कि:  " क्या हम एक ऐसे मनुष्य का चयन करे जो उचित बात पर क्रोधित हो, जिसकी प्रताड़ना की जानी चाहिए उसको उसको  प्रताड़ित करें  और जिसे निष्कासित किया जाना हो उसे निष्काषित करे  ? बदले में हम उसे चावल का अंश देंगे ........................ लोगों द्वारा चुने जाने के कारण      उसे  " महासम्मत " की उपाधि प्राप्त होगी "

इससे यह ज्ञात होता है कि राजा का पद लोगों द्वारा चुने जाने पर निर्भर करता था | " कर" वह  मूल्य था जो लोग राजा  की सेवा के बदले उसे देते थे |
* यह मिथक इस बात को भी दर्शाता है कि आर्थिक और सामाजिक सम्बन्धों को बनाने में मानवीय कर्म का बड़ा  हाथ था |
* इससे कुछ और आशय भी है | उदाहरणत: यदि मनुष्य स्वयं एक प्रणाली को बनाए रखने के लिए जिम्मेदार थे तो भविष्य में उसमें परिवर्तन भी ला सकते थे |

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