Friday, 22 January 2021

Bhakti-Sufi Traditions: ncert notes

 Bhakti-Sufi Traditions- Ncert Notes

भक्ति-सूफ़ी परम्पराएं

 












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धार्मिक  विश्वासों में बदलाव और श्रद्वा ग्रन्थ ( लगभग 8वीं से 18वीं सदी तक )
परिचय 
*  मध्यकालीन भारत में भक्ति परम्पराओं  का आरम्भ और विस्तार 
* मध्यकालीन भारत में सूफ़ी परम्पराओं का आरम्भ और विस्तार 

    भारत में धार्मिक इतिहास का आरम्भ वैदिक परम्परा से हो चुका था | उत्तर वैदिक काल में जब कर्मकांडों की जटिलता एवं बहुलता से जनमानस त्रस्त हो गया तो 6वीं सदी ई.पू. जैन धर्म और बौद्व धर्म ने राहत प्रदान की | इन धर्मों ने जाति-पांति, उंच -नीच , भेद-भाव से अपने को दूर कर आम जनता को आकर्षित किया | कालन्तर में बौद्व धर्म में वज्रयान शाखा के उदय से इस धर्म में तंत्र ,मन्त्र एवं अन्य बुराइयां पनपी |  इन परिस्थितयों का लाभ उठाकर दक्षिण  भारत में  शैव और वैष्णव धर्म का विकास हुआ |

पूजा प्रणालियों का समन्वय :
    इतिहासकारों का मानना है कि पूजा प्रणालियों के विकास में दो प्रक्रियाओं का पालन होने लगा था |
एक प्रक्रिया ब्राह्मनीय विचारधारा के प्रचार की थी | इसका प्रसार पौराणिक ग्रन्थों की रचना, संकलन और परिरक्षण द्वारा हुआ | वे ग्रन्थ सरल संस्कृत छंदों में थे जो वैदिक विद्या से विहीन स्त्रियों और शूद्रों द्वारा भी ग्राह्य थे | 

दूसरी प्रक्रिया स्त्री,शूद्रों व् अन्य सामाजिक वर्गों की आस्थाओं और आचरणों को ब्राह्मणों द्वारा स्वीकृत किया जाना और उसे एक नया रूप प्रदान करना था |
    समाजशास्त्रियों के अनुसार इस प्रकार की विचारधाराएँ और पद्वतियां " महान" संस्कृत- पौराणिक परिपाटी तथा "लघु" परम्परा के बीच हुए अविरल सम्वाद का परिणाम है |
   
इस प्रक्रिया का उदाहरण पुरी,उड़ीसा में मिलता है जहाँ मुख्य देवता को 12वीं सदी तक आते-आते जगन्नाथ (सम्पूर्ण विश्व का स्वामी ), विष्णु के एक स्वरूप के रूप में प्रस्तुत किया गया |
     इस अंतर का उल्लेख इस लिए किया गया है कि इस स्थानीय देवता को जिसकी प्रतिमा को पहले और आज भी लकड़ी से स्थानीय जनजाति के विशेषज्ञों द्वारा निर्मित किया जाता है ,विष्णु के रूप में प्रस्तुत किया गया है | विष्णु का यह रूप देश के अन्य भागों में मिलने वाले स्वरूपों से भिन्न था |
 "महान " और "लघु" परम्पराएं 
"महान"  और " लघु" शब्द 20 वीं शताब्दी के समाजशास्त्री  राबर्ट रेड्फिल्ड द्वारा  एक कृषक समाज के सांस्कृतिक आचरणों का वर्णन करने के लिए गढा गया |
    इस समाजशास्त्री ने देखा कि किसान उन कर्मकाण्डो और पद्वतियों का अनुकरण करते थे जिनका समाज के प्रभुत्वशाली वर्ग जैसे पुरोहित और राजा द्वारा पालन किया जाता था |इन कर्मकांडो को रेड्फिल्ड ने " महान " कहा है | साथ ही कृषक समुदाय अन्य लोकाचारों का भी पालन करते थे जो इस महान परिपाटी से सर्वथा भिन्न थे |उसने इन्हें "लघु" परम्परा कहा | रेडफिल्ड ने यह भी देखा कि महान और लघु दोनों ही परम्पराओं में समय के साथ हुए पारस्परिक आदान-प्रदान के कारण परिवर्तन हुए |                      


    8 वीं सदी के दौरान देवी की आराधना पद्वति का विकास हुआ | देवी की उपासना अधिकतर सिन्दूर से पोते गए पत्थर के रूप में ही की जाती थी | इस स्थानीय देवियों को पौराणिक परम्परा के भीतर मुख्य देवताओं की पत्नी के रूप में मान्यता दी गई | लक्ष्मी को विष्णु की पत्नी के रूप में और पार्वती को शिव की पत्नी के रूप में मान्यता दी गयी |
   अधिकांशत:  देवी की आराधना पद्वति को तांत्रिक नाम से जाता है | इस पूजा में स्त्री और पुरूष दोनों शामिल हो सकते थे तथा वर्ग एवं वर्ण के भेद की अवहेलना की जाती थी | 
    ईश्वर की उपासना यदि बिना किसी यज्ञ एवं मंत्रोच्चार से होती थी तो वैदिक परम्परा के लोग नाराज होते थे | तांत्रिक आराधना वाले लोग वैदिक परम्परा को नही मानते |  जैन एवं बौद्व धर्म में भी कभी-कभी तनावपूर्ण स्थिति उत्पन्न हो जाती थी | इन परिस्थितयों  में दक्षिण भारत में शैव एवं वैष्णव धर्म का विकास हुआ |

भक्ति परम्परा :

    भक्ति परम्पराओं में ब्राह्मण, देवताओं और भक्तजन के बीच  महत्वपूर्ण संयोजक बने रहे तथापि स्त्रियों और निम्न वर्गों को भी स्वीकार किया | 
    धर्म के इतिहासकार भक्ति परम्परा को दो वार्गों में विभाजित किया है - 
सगुन (विशेषण सहित ): शिव, विष्णु तथा उनके अवतार व देवियों की मूर्त रूप में उपासना की गई थी   |
* निर्गुण (विशेषण विहीन ) : निर्गुण भक्ति परम्परा में अमूर्त, निराकार, ईश्वर की उपासना की जाती थी |

दक्षिण भारत में भक्ति परम्परा :
    प्रारम्भिक भक्ति आन्दोलन (लगभग 6ठी शताब्दी ) आलवारों (विष्णु भक्ति में तन्मय ) और नयनारों (शिवभक्त ) के नेतृत्व में हुआ |  वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करते हुए तमिल में अपने ईष्ट (ईश्वर) की स्तुति में भजन गाते थे |
    अपनी यात्राओं के दौरान अलवार और नयनार ने कुछ पावन स्थलों को अपने ईष्ट का निवास्थल घोषित किया |इन्ही स्थलों पर बाद में विशाल मंदिरों का निर्माण हुआ और वे तीर्थ स्थल माने गए | संत-कवियों के भजनों को इन मन्दिरों में अनुष्ठानों के समय गाया जाता था और साथ ही इन संतों की प्रतिमा की भी पूजा की जाती थी |

दक्षिण भारत में वैष्णव मत :
 बौद्व धर्म एवं जैन धर्म के बढ़ाते प्रभाव को रोकने के लिए वैष्णव मत का प्रचार -प्रसार किया गया |
दक्षिण भारत में वैष्णव अनुयायियों को आलवार संत कहा गया | आलवार का अर्थ होता है ज्ञानी व्यक्ति | आलवार संतों की संख्या 12 बताई गयी है |
वैष्णव मत के प्रमुख संत :
नाथमुनी, यमुनाचार्य, रामानुजाचार्य , आदि 
वैष्णव मत के सिद्वांत :
1. विष्णु भक्ति द्वारा मोक्ष प्राप्ति पर बल 
2. ज्ञान , कर्म एवं भक्ति द्वारा मोक्ष पर बल 
3. अवतारवाद पर विश्वास 
नयनार : शैव मत के अनुयायी नयनार कहलाते है | नयनार संतों की संख्या 63 बताई जाती है | इनमें अप्पार,तिरुज्ञान , सुन्दरमूर्ति एवं मनिकवाचागर का नाम प्रमुख है |




शैव् धर्म के सिद्वांत :
1. शैव संत भजन-कीर्तन, शास्त्रार्थ एवं उपदेश के माध्यम से तमिल समाज में शैव धर्म का प्रचार-प्रसार करते थे  और ईश्वर प्राप्ति का एकमात्र साधन मानते थे |
2.  नयनार जात-पात ,ऊंच-नीच के भेदभाव के विरोधी थे |
3.भक्ति का उपदेश तेलगू भाषा में देते थे |





भक्ति-सूफ़ी परम्पराएं  
धार्मक विश्वासों में बदलाव और श्रद्वा ग्रन्थ ( लगभग 8वीं से 18वीं सदी तक )

अलवार और नयनार संतो का जाति के प्रति दृष्टिकोण 
    अलवार (वैष्णव)और  नयनार (शैव)  दोनों ही  मत के संतों ने अस्पृश्यता एवं जाति-पांति का विरोध किया | संतो ने जाति प्रथा व ब्राह्मणों की प्रभुता के विरोध में आवाज उठाई | भक्ति संत विविध समुदायों से थे जैसे ब्राह्मण,शिल्पकार, किसान और कुछ तो उन जातियों से आए थे जिन्हें "अस्पृश्य " माना जाता था|      
     अलवार और नयनार संतो की रचनाओं को वेद जितना महत्वपूर्ण बताया गया | अलवार संतो के एक मुख्य काव्य संकलन "नलयिरादिव्यप्रबन्धम" का वर्णन तमिल वेद के रूप में किया जाता था | इस ग्रन्थ की तुलना चारों वेदों से किया गया जो ब्राह्मणों द्वारा पोषित थे |

 चतुर्वेदी (चारो वेदों के ज्ञाता ब्राह्मण  और " अस्पृश्य "
यह उद्वरण तोंदराडिप्पोडी नामक एक ब्राह्मण अलवार के काव्य से लिया गया है :
चतुर्वेदी जो अजनबी है और तुम्हारी सेवा के प्रति निष्ठा नहीं रखते, उनसे भी ज्यादा आप (हे विष्णु ) उन दासों को पसंद करते है, जो आपके चरणों से प्रेम रखते है, चाहे वे वर्ण-व्यवस्था के परे हो |
 शास्त्र या भक्ति 
यह छंद अप्पार नामक नयनार संत की रचना है :
हे धूर्तजन, जो तुम शास्त्र को उद्वृत करते हो 
तुम्हारा गोत्र और कुल भला किस काम का ? 
तुम केवल मारपेरू के स्वामी (शिव जो तमिलनाडु के तंजावुर जिले के मारपेरू में बसते है |) को अपना एकमात्र आश्रयदाता मानकर नतमस्तक हो |

स्त्री भक्त 
    इस परम्परा की सबसे महत्वपूर्ण विशिष्टा इसमें स्त्रियों की उपस्थिति थी | जैसे अंडाल नामक अलवार स्त्री के के भक्ति गीत व्यापक स्तर पर गाए जाते थे और आज भी गाए जाते है | अंडाल स्वयं को विष्णु की प्रेयसी मानकर अपनी प्रेमभावना को छंदों में व्यक्त करती थीं |
   
एक और स्त्री शिवभक्त  करइक्काल  अम्मइयार  ने अपने  उद्वेश्य की प्राप्ति हेतु घोर तपस्या का मार्ग अपनाया |  नयनार परम्परा में उसकी रचनाओं को सुरक्षित किया गया | हालांकि इन स्त्रियों ने अपने सामाजिक कर्तव्यों का परित्याग किया | इन स्त्रियों की जीवन पद्वति और इनकी रचनाओं ने पितृसत्तात्मक आदर्शों को चुनौती दी |

भक्ति साहित्य का संकलन  
10वीं शताब्दी तक आते-आते बारह अलवारों की रचनाओं का एक संकलन कर लिया गया जो  "नलयिरादिव्यप्रबन्धम"("चार हजार पावन रचनाएं ") के नाम से जाना जाता है | 10वीं शताब्दी में ही अप्पार संबंदर  और सुन्दरार की कवितायेँ तवरम नामक संकलन में राखी गयी जिसमें कविताओं का संगीत के आधार पर वर्गीकरण हुआ |

संतों का राज्य के साथ संबंध 
    प्रथम सहस्राब्दी ईस्वी के उतरार्ध में राज्य का उद्भव और विकास हुआ जिसमें पल्लव और पांड्य राज्य शामिल थे | जैन धर्म और बौद्व धर्म की उपस्थिति कई सदियों से थी और उन्हें व्यापारी व् शिल्पी वर्ग का प्रश्रय हासिल था | इन धर्मों को राजकीय संरक्षण और अनुदान यदा-कदा ही हासिल होता था |
    तमिल भक्ति रचनाओं की एक मुख्य विषयवस्तु बौद्व और जैन धर्म के  प्रति उनका विरोध है | विरोध का स्वर संतों की रचनाओं में विशेष रूप से उभर  कर आता है | इतिहासकारों का मानना है कि परस्पर विरोधी धार्मिक समुदायों में राजकीय अनुदान को लेकर प्रतिस्पर्धा थी | शक्तिशाली चोल सम्राटो   (9-13 वीं शताब्दी) ने ब्राह्मनीय और भक्ति परम्परा को समर्थन दिया तथा विष्णु और शिव के मंदिरों के निर्माण के लिए भूमि-अनुदान दिए |
    चोल सम्राटों ने दैवीय समर्थन पाने और अपनी सत्ता के प्रदर्शन के लिए सुन्दर मंदिरों का निर्माण कराया | इन सम्राटों ने तमिल भाषा के शैव भजनों का गायन इन मंदिरों में प्रचलित किया | चोल सम्राटों द्वारा निर्मित मंदिर - चिदम्बरम, तंजावुर और गंगेकोंडचोलपुरम प्रमुख था |  नटराज की मूर्ती अविश्वसनीय देन है |



कर्नाटक की वीरशैव परम्परा :
 12वीं शताब्दी में  कर्नाटक में एक नवीन आन्दोलन का आरम्भ हुआ | वीरशैव परम्परा का नेतृत्व बासवन्ना (1106-68) नामक ब्राह्मण ने किया | बासवन्ना कलाचुरी राजा के दरबार में मंत्री थे | इनके अनुयायी वीरशैव (शिव के वीर ) व् लिंगायत (लिंग धारण करनेवाले ) कहलाए |
     आज भी लिंगायत समुदाय शिव की आराधना लिंग के रूप में करते है | इस समुदाय के पुरूष स्कन्ध पर चांदी के एक पिटारे में एक लघु लिंग को धारण करते है | लिंगायतों का विश्वास है कि मृत्योपरांत भक्त शिव में लीन हो जाएंगे तथा इस संसार में पुन: नही लौटेंगे | धर्मशास्त्र में बताए  गए श्राद्व संस्कार का वे पालन नही करते और अपने मृतकों को विधिपूर्वक दफनाते है |
    लिंगायतों ने जाति की अवधारणा और अस्पृश्यता का विरोध किया | पुनर्जन्म के सिद्वांत का भी विरोध किया |  धर्मशास्त्रों में जिन आचारों को अस्वीकार किया गया था जैसे व्यस्क विवाह और विधवा पुनर्विवाह , लिंगायतों ने उन्हें मान्यता प्रदान की | 
 अनुष्ठान और यथार्थ संसार 
यह बासवन्ना द्वारा  रचित  एक वचन है
 :
जब वे एक पत्थर से बने सर्प को 
देखते है तो उस पर दूध चढाते है 
यदि असली सांप आ जाए
 तो कहते है "मारो-मारो" |
देवता के उस सेवक को, जो
 भोजन परसने पर खा सकता है वे 
कहते है "चले जाओ ! चले जाओ |"
किन्तु ईश्वर की प्रतिमा को जो  खा
 नहीं सकती, वे व्यंजन परोसते है |
    बासवन्ना का यह व्यंग्य वर्तमान समय  में भी पूर्णत:  प्रासंगिक प्रतीत होता है |
 
उत्तर भारत में भक्ति आन्दोलन 
    उत्तर भारत में भक्ति आन्दोलन के प्रमुख प्रणेता कबीर,नानक और चैतन्य थे |इसके अलावा भी क्षेत्रीय स्तर कई संतों का प्रादुर्भाव हुआ | जिन्होंने स्थानीय भाषा में  ईश्वर की भक्ति की और उपदेश देकर एवं लेखन कर धर्ममय वातावरण बनाई | इन सभी ने जाति-पांति, ऊंच-नीच के भेदभाव का विरोध किया |  ईश्वर की आराधना के लिए  आम लोगों को समानता और प्रेम पर बल दिया |

भक्ति-सूफ़ी परम्पराएं 
भारत में इस्लामी परम्पराएं :
    प्रथम सहस्राब्दी ईस्वी में अरब व्यापारी समुद्र के रास्ते पश्चिमी भारत के बंदरगाह  तक आये | इसी समय मध्य एशिया से लोग देश के उत्तर-पश्चिम प्रान्तों में आकर बस गए | 7 वीं सदी में इस्लाम के उद्भव के बाद ये क्षेत्र  इस्लामिक क्षेत्र बन गया |
   
711 ईस्वी में मुहम्मद बिन कासिम नाम के एक अरबी सेनापति ने सिंध को विजित किया और उसे खलीफा के क्षेत्र में शामिल कर लिया | बाद में (13वीं शताब्दी ईस्वी) तुर्क और अफगानों ने दिल्ली सल्तनत की नीवं रखी|  समय के साथ देश के अन्य भागों में दिल्ली सल्तनत की सीमा का प्रसार हुआ  |  यह स्थिति 16वीं शताब्दी में मुग़ल सल्तनत की स्थापना के साथ  भी बरकरार रही | 18 वीं सदी में जो क्षेत्रीय राज्य उभर कर आये उनमें से कई राज्यों के शासक भी इस्लाम धर्म को मानने वाले थे |
    सैद्वान्तिक रूप से मुसलमान शासकों को उलमा के मार्गदर्शन पर चलना होता था | उलमा से यह अपेक्षा की जाती थी कि वे शासन में शरिया का अमल सुनिश्चित करायेगें | किन्तु भारतीय उपमहाद्वीप की स्थिति जटिल थी क्योंकि बड़ी जनसंख्या इस्लाम धर्म को मानने वाली नहीं थी |
                    ऐसे में जिम्मी (उत्पति अरबी शब्द जिम्मा से ) अर्थात संरक्षित श्रेणी का उदय हुआ | जिम्मी वे लोग थे जो इस्लाम को नहीं मानते थे परन्तु उसके शासक मुसलमान होता था - जैसे - ईसाई , यहूदी , हिन्दू | ये  लोग जजिया कर चुका कर मुसलमान शासकों द्वारा संरक्षण दिए जाने के अधिकारी हो जाते थे | 
    
 शरिया 
    शरिया मुसलमान समुदाय को निर्देशित करने वाला कानून है | यह कुरान शरीफ और हदीस पर आधारित है | हदीस का अर्थ है पैगम्बर साहब से  जुडी परम्पराएं जिनके अंतर्गत उनके स्मृत शब्द और क्रियाकलाप भी आते है |
    जब अरब क्षेत्र से बाहर इस्लाम का प्रसार हुआ जहां के आचार-व्यवहार भिन्न थे तजो क्रियास (सदृश्ता के आधार पर तर्क) और इजमा (समुदाय की सहमति)  को भी क़ानून का स्रोत माना जाने लगा | इस तरह शरिया, कुरआन , हदीस , क्रियास और इजमा से उद्भूत हुआ |


कभी कभी कुछ शासक गैर -मुसलमानों के प्रति उदार दृष्टिकोण रखते थे | 
 जोगी के प्रति श्रद्वा 
यह उद्वरण 1661-62 में औरंगजेब द्वारा एक जोगी को लिखे पत्र का अंश है - 
बुलंद मकाम शिवमूरत गुरु  आनन्द नाथ जियो !
जनाब-ए -मुहतरम ( श्रद्वेय ) अमन और खुशी से आ श्री शिव जियो की पनाह में रहें | 
पोशाक के लिए वस्त्र और पच्चीस रूपये की रकम  भेंट के तौर  पे भेजी जा गई है आप तक पहुंचेगी .......... जनाब-ए-मुहतरम आप हमें लिख सकते है जब भी हमारी मदद की जरुरत  हो |


लोक प्रचलन में इस्लाम :
    भारत में इस्लाम के आगमन से अनेक परिवर्तन हुए|  विभिन्न सामाजिक समुदायों -किसान,शिल्पी , योद्वा, व्यापारी जिन्होंने इस्लाम धर्म कबूल किया उन्होंने इसकी पांच बातें मानी -
अल्लाह एकमात्र ईश्वर है ;
* पैगम्बर मुहम्मद उनके दूत (शाहद ) है ;
* दिन में पांच बार नमाज पढी जानी चाहिए ;
* खैरात(जकात )  बांटनी चाहिए ;
* रमजान के महीने में रोजा रखना चाहिए और हज के लिए मक्का जाना चाहिए |
    इन धर्मातरित लोगों ने  अरबी संस्कृति के स्थान पर स्थानीय व्यवहारों को अपनाया |  कुरान के विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए  जीनन (ज्ञान ) नाम से भक्ति गीत, जो राग में निबद्व थे, पंजाबी, मुल्तानी, सिंधी,कच्छी, हिन्दी और गुजराती में दैनिक प्रार्थना के दौरान गाए जाते थे |  मस्जिदों के निर्माण में भी अरबी और भारतीय शैली का मिश्रण देखने को मिलता है | मस्जिदों के कुछ स्थापत्य सम्बन्धी तत्व सार्वर्भौमिक थे - जैसे इमारत का मक्का की तरफ अनुस्थापन जो मेहराब( प्रार्थना का आला ) और मिनबर (व्यासपीठ ) की स्थापना से लक्षित होता था |
 मातृगृहता : 
     मातृगृहता वह परिपाटी है जहां स्त्रियाँ विवाह के बाद अपने मायके में ही अपनी सन्तान के साथ रहती है और उनके पति उनके साथ आकर रह सकते है | 

समुदायों के नाम :
    कुछ इतिहासकारों का मानना है कि इस्लाम धर्म मानने वाले लोगों के लिए शायद ही मुसलमान शब्द का प्रयोग हुआ हो |  8वीं से 14वीं शताब्दी के मध्य  संस्कृत ग्रन्थों और अभिलेखों के अध्ययन से यह पता चलता है की इस लोगों का वर्गीकरण उनके जन्म स्थान के आधार पर किया जाता था | तुर्की के मुसलमानों को "तुरुष्क " , तजाकिस्तान के आए लोगों को "ताजिक" और फारस के लोगों को "पारसीक" के नाम से सम्बोधित किया जाता था |
    भारत में इन प्रवासी समुदायों के लिए सामान्य प्रयुक्त शब्द " मलेच्छ" था | अर्थात ये लोग वर्ण नियमों का पालन नहीं करते थे और ऐसी भाषा का प्रयोग करते जो संस्कृत से नहीं उपजी थी |

सूफीमत का विकास :
    इस्लाम की आरंभिक शताब्दियों में धार्मिक और राजनीतिक संस्था के रूप में खिलाफत की बढ़ती विषयशक्ति के विरूद्व कुछ आध्यात्मिक लोगों का रहस्यवाद और वैराग्य की ओर झुकाव बढ़ा, जिन्हें सूफ़ी कहा जाता था |
    इन लोगों ने रूढ़ीवादी परिभाषाओं तथा धर्माचार्यों द्वारा की गयी कुरानऔर सुन्ना (पैगम्बर के व्यवहार ) की बौद्विक व्याख्या की आलोचना की | इसके विपरीत सुफिओं ने मुक्ति की प्राप्ति के लिए ईश्वर की भक्ति पर बल दिया और कुरान की व्याख्या अपने निजी अनुभवों के आधार पर की |

सूफीवाद  और तसव्वुफ
    सूफीवाद  19वीं  मुद्रित एक अंगरेजी शब्द है  | इस सूफीवाद के इस्लामी ग्रन्थों में जिस शब्द का  इस्तेमाल होता था वह है  तसव्वुफ | कुछ विद्वानों  अनुसार यह  शब्द "सूफ " से निकलता  है जिसका अर्थ "ऊन " है | अन्य विद्वान इस शब्द की उत्पति "सफा" से मानते  जिसका अर्थ है  " साफ " | यह  भी संभव है कि यह शब्द "सफा" से निकला हो जो पैगम्बर की मस्जिद के बाहर चबूतरा   निकट अनुयायियों की मंडली धर्म के  बारे में जानने के लिए इकटठी होती थी |

खानकाह और सिलसिला 
    
11वीं शताब्दी तक आते-आते सूफी अपने को एक संगठित समुदाय - 
खानकाह(मठ) के इर्द-गिर्द स्थापित करते थे | खानकाह का नियन्त्रण शेख (अरबी), पीर अथवा मुर्शीद (फारसी ) के हाथ में था | शेख/पीर/मुर्शीद का अर्थ बुजुर्ग/गुरु/मार्गदर्शक/ शिक्षक  होता है | वे अनुयायियों (मुरीदों) की भर्ती करते थे और अपने वारिस (खलीफा ) की नियुक्ति करते थे | आध्यात्मिक व्यवहार के नियम निर्धारित करने के अलावा खानकाह में रहने वालों के बीच के सम्बन्ध और शेख व् जनसामान्य के बीच के रिश्तों की सीमा भी नियत करते थे |
    12वीं शताब्दी के आसपास इस्लामी दुनिया में सूफी सिलसिलों का गठन होने लगा| सिलसिला का शाब्दिक अर्थ है जंजीर जो शेख और मुरीद के बीच एक निरंतर रिश्ते की द्योतक है , जिसकी पहली अटूट शक्ति कड़ी पैगम्बर से जूडी है | इस कड़ी के द्वारा आध्यात्मिक शक्ति और आशीर्वाद मुरीदों तक पहुचता था | दीक्षा के विशिष्ट अनुष्ठान विकसित किये गए जिसमें दीक्षित को निष्ठा का वचन देना होता था, और सर मुंडाकर ठेगडी लगे वस्त्र धारण करने पड़ते थे |
    पीर की मृत्यु के बाद उसकी दरगाह( फारसी में इसका अर्थ दरबार ) उसके मुरीदों के लिए भक्ति का स्थल बन जाती थी | इस तरह पीर की दरगाह पर जियारत के लिए जाने की, खासतौर से उनकी बरसी के अवसर पर, परिपाटी चल निकली | इस परिपाटी तो उर्स( विवाह, मायने पीर की आत्मा का ईश्वर से मिलन) कहा जाता था क्योंकि लोगों का माना था कि मृत्यु के बाद पीर ईश्वर से एकीभूत हो जाते है और इस तरह पहले के बजाय उनके अधिक करीब हो जाते है | लोग आध्यात्मिक और ऐहिक कामनाओं की पूर्ती के लिए उनका आशीर्वाद लेने जाते थे | इस तरह शेख का वली (ईश्वर का मित्र) के रूप में आदर करने की परिपाटी शुरू हुई |

 सिलसिलों के नाम 
ज्यादातर सूफी वंश उन्हें स्थापित करने वालों के नाम पर पड़े |  उदाहरण - कादरी सिलसिला शेख अब्दुल कादिर जिलानी के नाम पर पड़ा | कुछ अन्य सिलिसलों का नामकरण उनके जन्मस्थान पर हुआ जैसे चिश्ती नाम मध्य अफगानिस्तान के चिश्ती शहर से लिया गया |
 वली
वली (वहुवचन औलिया ) अर्थात ईश्वर का मित्र वह सूफी जो अल्लाह के नजदीक होने का दावा करता था और उनसे मिली बरकत से करामात करने की शक्ति रखता था |

बे-शरिया 
            कुछ रहस्यवादियों ने सूफी सिद्वान्तों की मौलिक व्याख्या के आधार पर नवीन आंदोलनों की  नीवं रखी | खानकाह का तिरस्कार करके यह रहस्यवादी, फकीर की जिन्दगी बिताते थे | निर्धनता और ब्रह्मचर्य का  पालन किया | इन्हें विभिन्न नामों से जाना जाता था - कलंदर, मदारी, मलंग, हैदरी इत्यादि |  शरिया की अवहेलना करने के कारण उन्हें बे-शरिया कहा जाता था |
बा-शरिया- वे जो इस्लाम के विधानों को मानकर चलते है | 
भक्ति-सूफ़ी परम्पराएं  
भारतीय उपमहाद्वीप में चिश्ती सिलसिला 
12वीं शताब्दी के अंत में भारत आने वाले सूफ़ी समुदायों में चिश्ती सबसे अधिक प्रभावशाली रहे | इसके दो कारण थे -  
चिश्ती सिलसिला अपने आपको  स्थानीय परिवेश में अच्छी तरह ढाल लिया |
* इसने भारतीय भक्ति परम्परा की कई  विशिष्टताओं को भी अपनाया |

चिश्ती खानकाह में जीवन 
    
खानकाह सामाजिक जीवन का केंद्र बिंदु था | खानकाह के बारे में विस्तृत अध्ययन निजामुद्दीन औलिया की खानकाह से करेंगे | निजामुद्दीन औलिया का खानकाह दिल्ली शहर की बाहरी सीमा पर यमुना नदी के किनारे गियास्पुर में था | 
यहाँ कई छोटे-छोटे कमरे और एक बड़ा हाल (जमातखाना ) था जहां सहवासी और अतिथि रहते, और उपासना करते थे | 
    सहवासियों में शेख का अपना परिवार, सेवक और अनुयायी थे |  शेख एक छोटे कमरे में छत पर रहते थे जहां वः मेहमानों से सुबह-शाम मिला करते थे | आँगन एक गलियारे से घिरा होता था और खानकाह को चारों ओर से दीवार घेरे रहती थी | 
    एक बार मंगोल आक्रमण के समय पड़ोसी क्षेत्र के लोगों ने खानकाह में शरण ली |
    यहाँ एक समुदायिक रसोई (लंगर ) फुतूह (बिना माँगी खैर ) पर चलती थी | सुबह से देर रात तक सब तबके के लोग -सिपाही, गुलाम, गायक, व्यापारी, कवि, राहगीर, धनी और निर्धन , हिन्दू जोगी और कलंदर यहाँ अनुयायी बनने, इबादत करने, ताबीज लेने अथवा विभिन्न मसलों पर मध्यस्थता के लिए आते थे |  कुछ विशिष्ट मिलने वालों में अमीर हसन सिजजी  और अमीर खुसरो जैसे कवि  तथा इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी जैसे लोग शामिल थे | इन लोगों के अनुसार शेख के सामने झुकना, मिलने वालों को पानी पिलाना, दीक्षितों के सर का मुंडन  तथा यौगिक व्यायाम आदि व्यवहार इस तथ्य के द्योतक हैं कि स्थानीय परम्पराओं को आत्मसात करने का प्रयत्न किया गया | 
    शेख निजामुद्दीन ने कई आध्यात्मिक वारिसों का चुनाव किया और उन्हें उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में खानकाह स्थापित करने के लिए नियुक्त किया | इस वजह से चिश्तियों के उपदेश, व्यवहार और संस्थाएं तथा शेख का यश चारों और फैल  गया | उनकी तथा उनके आध्यात्मिक पूर्वजों की दरगाह पर अनेक तीर्थयात्री आने लगे |

चिश्ती उपासना: जियारत और कव्वाली 
   
सूफी संतों की दरगाह पर की गई जियारत सारे इस्लामी संसार में प्रचलित है | पिछले सात सौ सालों से अलग-अलग सम्प्रदायों, वर्गों और समुदायों के लोग पांच महान चिश्ती संतों की दरगाह पर अपनी आस्था प्रकट करते रहे है | इनमें सबसे अधिक पूजनीय  दरगाह ख्वाजा मुइनुद्दीन 
 चिश्ती की है जिन्हें "गरीब नवाज" कहा जाता है |
    यह दरगाह शेख की सदाचारिता और धर्मनिष्ठा तथा उनके आध्यात्मिक वारिसों की महानता और राजसी मेहमानों द्वारा दिए गए प्रश्रय के कारण लोकप्रिय थी | 
   
मुहम्मद बिन तुगलक (1324-51) पहला सुलतान था जो इस दरगाह पर आया था | शेख की मजार पर सबसे पहली इमारत मालवा के सुल्तान गियासुद्दीन खलजी ने 15वीं सदी के उतरार्ध में बनवाई | चूँकि यह दरगाह दिल्ली और गुजरात को जोड़नेवाले व्यापारिक मार्ग पर थी अत: अनेक यात्री यहाँ आते थे |
    16वीं शताब्दी तक आते -आते अजमेर की यह दरगाह बहुत ही लोकप्रिय हो गयी | मुग़ल बादशाह अकबर 14 बार आया | कभी तो साल में दो-तीन बार, कभी  नयी जीत के लिए आशीर्वाद लेने अथवा संकल्प की पूर्ती पर या फिर पुत्रों के जन्म पर |
अकबर यह परम्परा 1580 तक बनाए रखी| प्रत्येक यात्रा पर बादशाह दान-भेंट किया करते थे, जिनके ब्योरे शाही दस्तावेजों में दर्ज है | उदाहरण के लिए , 1568 में उन्होंने तीर्थयात्रियों के इए खाना पकाने हेतु एक विशाल देग दरगाह को भेंट की | उसने दरगाह के अहाते में एक मस्जिद भी बनवाई|
    नाच और संगीत भी जियारत (भक्ति ) का हिस्सा थे , खासतौर से कव्वालों द्वारा प्रस्तुत रहस्यवादी गुणगान जिसमें परमानद की भावना को उभारा जा सके| सूफ़ी संत जिक्र(ईश्वर का नाम-जाप ) या फिर समा (श्रवण करना ) यानी आध्यात्मिक संगीत की महफिल के द्वारा ईश्वर की उपासना में विश्वास रखते थे | चिश्ती उपासना पद्वति में सभा का महत्व इस तथ्य की पुष्टि करता है कि चिश्ती स्थानीय भक्ति परम्परा से जुड़े | 

चिश्ती सिलसिला के मुख्य उपदेशक 
1. शेख मुईनुद्दीन चिश्ती- 1235(मृत्यु) - अजमेर (दरगाह )
2. ख्वाजा कुतुबद्दीन बख्तियार काकी- 1235 (मृत्यु) - दिल्ली 
3. शेख फरीदुद्दीन गंज-ए-शंकर - 1265 (मृत्यु)- अजोधन (पाकिस्तान)
4. शेख निजामुद्दीन औलिया- 1325 (मृत्यु ) दिल्ली 
5. शेख नसीरुद्दीन चिराग-ए-देहली - 1356 (मृत्यु)- दिल्ली  

" 1039ईस्वी  में  अबुल हसन अल हुजविरी जो अफगानिस्तान के शहर गजनी के निकट हुजविर के रहनेवाले थे , उन्हें तुर्की सेना के एक कैदी के रूप में सिन्धु नदी पार करनी पडी| वह लाहौर में बस गए और फ़ारसी में उन्होंने एक किताब लिखी "कश्फ़ -उल - महजूब " (परदे वाले की बेपर्दगी ) जिसमें तसव्वुफ के मायने और इसका पालन करने वाले सूफियों के बारे में बताया गया था | 
    हुजविरी की 1073 में मृत्यु हो गयी और उन्हें लाहौर में दफनाया गया | सुलतान महमूद गजनी के पोते ने उनकी मजार पर दरगाह बनवाई | यह दरगाह उनकी बरसी के अवसर पर उनकी अनुयायियों के लिए तीर्थ स्थल बन गयी | 
    आज भी हुजविरी दाता गंज बख्श के रूप में आदरणीय है और उनकी दरगाह को दाता  दरबार यानी देने वाले की दरगाह कहा जाता है |"

" मुल्क का चिराग "
    |- प्रत्येक सूफी दरगाह के कुछ विशिष्ट लक्षण होते थे | 18वीं शताब्दी में ढक्कन के दरगाह कुली खान शेख नसीरुद्दीन चिराग-ए-देहली  की दरगाह के बारे में मुरक्का-ए-देहली  (दिल्ली की अलबम ) में लिखा कि -------
शेख सिर्फ देहली के ही चिराग नहीं अपितु सारे मुल्क के चिराग है | लोंगो का हुजूम यहाँ आता है खासतौर से इतवार के रोज | दिवाली के महीने में दिल्ली की सारी आबादी दरगाह पर उमड़ आती है और हौज के पास तम्बू गाड़ कर वे कई दिनों तक यहाँ रहते है | पुराने रोंगों को ठीक करने के लिए वे यहाँ नहाते है | हिन्दू और मुसलमान एक ही भावना से आते है | सुबह से शाम तक लोग आते है और पेड़ की छाँव में हंसी-खुशी में समय बिताते है |-

"मुग़ल शहजादी जहांआरा  की तीर्थयात्रा -1643 "
यह गद्यांश जहाँआरा द्वारा रचित शेख मुईनुद्दीन चिश्ती की जीवनी मुनिस-अल-अखाह (यानी आत्मा का विश्वस्त) से लिया गया है -
" अल्लाहताला की तारीफ के बाद ....... यह फकीरा जहांआरा..... राजधानी आगरा से अपने पिता बादशाह शाहजहाँ के संग पाक और बेजोड़ अजमेर के लिए निकली ..... मैं इस बात के लिए वायादापरस्त थी कि हर रोज और हर मुकाम पर मैं दो बार की अख्तियारी नमाज अदा करूंगी ..... बहुत दिन ....मैं रात को बाघ के चमड़े पर नहीं सोई और अपने पैर मुकद्दस दरगाह की तरफ नहीं फैलाए, न ही मैंने अपनी पीठ उनकी तरफ की| मैं पेड़ के नीचे दिन गुजारती थी |
     वीरवार को रमजान के मुकद्दस महीने के चौथे रोज मुझे चिराग और इतर में डूबे दरगाह की जियारत की खुशी हासिल हुई .....चूंकि दिन की रोशनी की एक छड़ी बाकी थी मैं दरगाह के भीतर गई और अपने जर्द चहरे को उसकी चौखट की धुल से रगडा| दरवाजे से मुकद्दस दरगाह तक मैं नंगे पाँव वहां की जमीन को चूमती हुई गयी | गुम्बद के भीतर रोशनी से दरगाह में मैंने मजार के चारों ओर सात फेरे लिए| आखिर में अपने हाथों से मुकद्दस दरगाह पर मैंने सबसे उम्दा इतर छिड़का | चूंकि गुलाबी दुपट्टा जो मेरे सिर पर था, मैं उतार चुकी थी इसलिए उसे मैंने मुकद्दस मजार के ऊपर रखा |..

भाषा और सम्पर्क 
    चिश्तियों ने स्थानीय भाषा को अपनाया | बाबा फरीद ने भी क्षेत्रीय भाषा में काव्य रचना की जो गुरु ग्रन्थ साहिब में संकलित है | कुछ और सूफियों ने लम्बी कवितायेँ " मसनवी" लिखी जहां ईश्वर के प्रति प्रेम को मानवीय प्रेम के रूपक के द्वारा अभिव्यक्त किया गया | जैसे मलिक मुहम्मद जायसी की रचना " पद्मावत " |
सूफी कविता की एक भिन्न विधा की रचना बीजापुर कर्नाटक के आसपास हुई | यहाँ इस क्षेत्र में रहनेवाले चिश्ती संतों ने छोटी-छोटी कवितायेँ लिखी | ये रचनाएं सम्भवत: औरतों द्वारा घर का काम करते हुए  गाई जाती थी | कुछ रचनाएं लोरीनामा और शादीनामा के रूप में लिखी गयी |ये सूफी रचनाएं भक्ति परम्परा से प्रभावित थी | 
    लिंगायतों द्वारा लिखे गए "कन्न्ड़ के वचन" और पंढरपुर के संतों द्वारा लिखी मराठी के  "अभंगों" ने भी उन पर प्रभाव डाला |

सूफी और राज्य से संबंध 
सूफी संत सत्ता से दूर रहते थे  | लेकिन सत्तधारी विशिष्ट वर्ग अगर बिना मांगे अनुदान या भेंट देता तो सूफी संत उसे स्वीकार करते थे |  सुल्तानों ने खानकाहों को कर मुक्त (इनाम) भूमि अनुदान में दी और दान संबंधी न्यास स्थापित किये | 
    चिश्ती धन और सामान के रूप में दान स्वीकार करते थे और खाने, कपड़े, रहने की व्यवस्था और समा की महफिलों पर पूरी तरह खर्च कर देते थे | सूफी संतों की नैतिकता से लोगों का उनके प्रति झुकाव था | इन वजहों से शासक भी उनका सर्थन करते थे | 
    शासक ने सूफी संतों से सम्पर्क रखते थे क्योंकि सूफी शरिया की व्याख्या पर निर्भर नही थे | सुलतान जनता था किअधिकाँश प्रजा इस्लाम धर्म मानने वाली नहीं थी | इसलिए शरिया लागू करना उचित नहीं |
    सुल्तानों और सूफियों के बीच तनाव के उदाहरन भी मौजूद है |अपनी सत्ता का दावा करने के लिए दोनों ही कुछ आचारों पर बल देते थे जैसे झुक कर प्रणाम और कदम चूमना | निजामुद्दीन औलिया के  अनुयायी उन्हें सुलतान-उल-मशेख (शेखों में सुलतान) कह कर सम्बोधित करते थे |

भक्ति -सूफी परम्पराएं 
सूफी और राज्य 

    चिश्ती सिलसिला के अलावा कुछ अन्य सूफ़ी भी, जैसे कि दिल्ली सल्तनत के युग में सुहरावर्दी और मुगलकालीन नक्शबंदी, राज्य से जुड़े रहे | लेकिन उनके जुड़ाव के तरीके चिश्तियों से भिन्न थे | कभी-कभी सूफ़ी दरबारी पद भी स्वीकार कर लेते थे |
कुछ प्रमुख सिलसिला 

1. चिश्ती सिलसिला :
भारतवर्ष में चिश्ती सम्प्रदाय का प्रणेता ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती को माना जाता है | ये 1192ई. में भारत में आये | अपना ठिकाना अजमेर में स्थापित किया | मुहम्मद गोरी उन्हें "सुलतान-उल-हिन्द" (हिन्द का आध्यात्मिक गुरु ) की उपाधि से विभूषित किया था |





शेख कुतुबद्दीन बख्तियार काकी :
यह मुईनुद्दीन चिश्ती के शिष्य थे | ये सुलतान इल्तुतमिश के समय भारत आये |  
बख्तियार (भाग्य-बन्धु) नाम मुईनुद्दीन द्वारा दिया गया था |







* बाबा फरीद :
इनका पूरा नाम 
फरीदउद्दीन-गंज-ए-शकर था | इनका जन्म मुल्तान जिले के कठवाल में 1175 में हुआ था | इनकी रचना गुरु ग्रन्थ साहिब में संकलित है |





शेख  निजामुद्दीन औलिया :
इनका वास्तविक नाम 
मुहम्मद बिन-अहमद-बिन-दनियाल-अल बुखारी था | इनका जन्म बदायूं में 1236 में हुआ था | इन्होने अपने जीवन काल में दिल्ली के  सात सुल्तानों का राज्य देखा था | अमीर खुसरों प्रमुख शिष्य था | इनकी मृत्यु 1325 में हुई |

*  शेख बुरहानुद्दीन : ये निजामुद्दीन औलिया के शिष्य थे | इन्होने दौलताबाद का शिक्षा का केंद्र बनाकर " महबूब-ए-इलाही " के उपदेशों का प्रचार किया |

शेख सलीम चिश्ती : यह फतेहपुर सीकरी में रहते थे | इनके आर्शीवाद से ही अकबर के पुत्र सलीम (जहांगीर ) का जन्म हुआ था | 

       चिश्ती सम्प्रदाय में संगीत को प्रधानता दी गयी थी | निजामुद्दीन औलिया ने योग को अपनाया और उन्हें योगी सिद्व भी कहा गया | चिश्ती संत राज्य की सेवा स्वीकार नहीं करते थे |

2. सुहरावर्दी सिलसिला : भारत में इस शाखा का प्रचार शेख बहाउदीन जकारिया द्वारा किया गया | इनका जन्म 1182 ई. में मुल्तान के कोट अन्गेर नामक स्थान पर हुआ था | इस शाखा का प्रवर्तक शिहाबुदीन सुहरावर्दी को माना जाता है |  इस सिलसिले के प्रमुख संत सैयद जलालुदीन बुखारी (मखदूमे जहानियाँ ) , शेख हमीदउद्दीन  नागौरी , शेख मूसा और शाह दौला दरियाली नाम उल्लेखनीय है | 

3. कादिरी सिलसिला :  इस सिलसिले का प्रवर्तक ईराक के अब्दुल कादिर अल जिलानी  थे | भारत में इस सिलसिले के प्रवर्तक मुहम्मद गौस थे | राजकुमार दाराशिकोह  कादिरी सिलसिले के मुल्ला शाह बद्ख्शी  के शिष्य थे |
4. नक्सबंदी सिलसिला : भारत में इस सिलसिले का प्रवर्तक ख्वाजा वकी  बिल्लाह को माना जाता है | इसके  शिष्यों में "शेख अहमद फारुख सरहिन्दी "  प्रमुख थे |

भक्ति-सूफी परम्पराएं 
नवीन भक्ति पंथ 
उत्तरी भारत में संवाद और असहमति 
    अनेक संत कवियों ने नवीन सामाजिक परिस्थियों, विचारों और संस्थाओं के साथ स्पष्ट और सांकेतिक दोनों किस्म के संवाद कायम किए | इस काल के तीन प्रमुख और प्रभावकारी व्यक्तियों पर दृष्टिपात करेंगें |
    
मध्यकालीन भारत में कई धार्मिक विचारकों तथा सुधारकों ने भारत के सामाजिक-धार्मिक जीवन में  सुधार लाने के उद्देश्य से भक्ति का साधन बनाकर एक आन्दोलन चलाया जो " भक्ति आन्दोलन " कहलाया |
    
 सर्वप्रथम भक्ति आन्दोलन का प्राम्भ द्रविड़ देश में हुआ था | भक्ति आन्दोलन के प्राचीनतम प्रचारक दक्षिण भारत के प्रसिद्व वैष्णव् आचार्य रामानुज (1037-1137 ई.) थे, जिन्होंने सगुन ईश्वर की उपासना पर बल दिया | निम्बकाचार्य, माधवाचार्य एवं बल्लभाचार्य भी दक्षिण भारत के कुछ अन्य धर्म प्रचारक थे |
 " भक्ति द्रविड़ उपजी, उत्तर लाये रामानन्द |
परगट कियो कबीर ने , सात  द्वीप  नौ खंड ||"
    वस्तुत:  धार्मिक आन्दोलन का  उदभव 8वीं सदी में शंकराचार्य द्वारा दक्षिण भारत में हो गया था | रामानुजाचार्य के समय उसका अत्यधिक प्रसार हुआ |

रामानन्द : 
उत्तर भारत में भक्ति आन्दोलन  करने का श्रेय  रामानंद को जाता है | इनका जन्म 1299 ई, के लगभग प्रयाग के कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में हुआ था | श्री राघवानंद को अपना गुरु बनाये जो श्रीसम्प्रदाय के महान  संत थे |  किसी अनुशासन सम्बन्धी प्रश्न पर गुरु से मतभेद होने के कारण रामानंद ने मठ त्याग दिया और उत्तर भारत चले आये | रामानंद ने रामानुज की भाँती भक्ति को मोक्ष का एकमात्र  साधन स्वीकार किया|  
    जाति-पांति तथा बाह्य आडम्बर का विरोध करते हुए उन्होंने सभी जातियों के लोगों को अपना उपदेश दिया | रामानन्द ने अपने मत का प्रचार संस्कृत में न करके क्षेत्रीय भाषाओं में किया | रामानंद के 12 शिष्यों में सभी जातियों के शिष्य थे |
1.  कबीर (जुलाहा )                         7. महानन्द 
2. रैदास (चमार)                              8. सुखानंद
3. धन्ना (जाट किसान )                     9. आशानन्द 
4. सेना (नाई )                                 10.  सुरसुरानंद
5. पीपा (राजपूत )                            11 .  परमानद
6. भवानंद                                       12.  श्रीआनन्द 

रामानन्द ने भक्ति आन्दोलन का उत्तर भारत में प्रसार कर ऐसे शिष्यों  को जन्म दिया जिन्होनें भक्ति आन्दोलन को एक नई दिशा दी | 

* कबीर : 
    
कबीर का जन्म 1425ई. में एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ था | कहा जाता है की लोक-लजा के डर से उसने कबीर को वाराणसी में लहरतारा के पास एक तालाब के समीप छोड़ दिया था | तत्पश्चात उनका लालन-पालन एक जुलाहा दम्पति नीरू और नीमा के द्ववारा किया गया | उन्होंने इस बालक का नाम कबीर रखा | कबीर का अर्थ होता है -महान | उन्होंने हिन्दू- मुस्लिम के बाह्य कर्मकांड और आडम्बर का विरोध किया और एकता पर बल दिया | 
    कबीर निराकार ईश्वर पर विश्वास करते थे | अत: उन्होंने वेद और कुरान दोनों की प्रमाणिकता की चुनौती दी | जन्म के स्थान पर कर्म की प्रधानता दी | मूर्ती पूजा, मंदिर, मस्जिद, तीर्थ, व्रत आदि की आलोचना की 
इस सम्बन्ध में कहते है - 
" पाहन पूजे हरि मिले , तो मैं पूंजूँ पहाड़ |
ताते तो चाकी भली, पीस खाय संसार ||"
                        तथा 
"कंकर पत्थर जोरि कै, मस्जिद लई चुनाय |
ता चढ़ी मुल्ला बांग दे , बहरा हुआ खुदाय ||"
 कबीर ने जाति -पांति का भी विरोध किया | उनका कहना था -
" जाति-पांति पूछे नहीं कोई |
हरि को भजे सो हरि का होई ||"
कबीर धन संचय का भी विरोध किया| वह स्पष्ट करते है -
" सांई इतना दीजिए, जाके कुटुंब समाय|
मैं भी भूखा न रहूँ, साधू भी न भूखा जाय ||"

    कबीर (लगभग 14-15वीं शताब्दी) इस पृष्ठभूमि  के प्रमुख संत थे |
इतिहासकारों ने उनके जीवन और काल का अध्ययन उनके काव्य और बाद में लिखी गयी जीवनियों के आधार पर किया है | 
    कबीर की बानी तीन विशिष्ट किन्तु परस्पर व्याप्त परिपाटियों में संकलित है |  कबीर बीजक कबीर पंथियों द्वारा वाराणसी तथा उत्तर प्रदेश के अन्य स्थानों पर संरक्षित है | कबीर ग्रन्थावली का संबंध राजस्थान के दादू पंथियों से है | इसके अतिरिक्त कबीर के कई पद आदि ग्रन्थ साहिब में संकलित है |
    कबीर की रचनाएँ अनेक भाषाओं और बोलियों में मिलती है | इनमें से कुछ निर्गुण कवियों की ख़ास बोली संत भाषा में है | कुछ रचनाएं जिन्हें उलटबांसी  (उलट कही उक्तियाँ ) के नाम से जाना जाता है , इन रचनाओं का उद्देश्य परम सत्य के स्वरूप को समझने की मुश्किल को दर्शाता है |
    कबीर की बानी की एक और विशिष्टता यह है की उन्होंने परम सत्य को  "शब्द"और "शून्य " का प्रयोग किया है | यह अभिव्यन्जनाएँ योगी परम्परा से ली गयी है |
    कबीर की समृद्व परम्परा इस तथ्य का द्योतक है कि कबीर पहले और आज भी उन लोगों के लिए प्रेरणा के स्रोत है जो सत्य की खोज में रूढ़िवादी, धार्मिक, सामाजिक संस्थाओं, विचारों और व्यवहारों को प्रश्नवाचक दृष्टी से देखते है |

बाबा गुरु नानक और पवित्र शब्द :
  
 गुरु नानक का जन्म 1469 ई. में पंजाब के गुजरानवाला जिले के तलवंडी (ननकाना साहिब ) नामक ग्राम में हुआ था |यह गाँव रावी नदी के तट पर स्थित है | उन्होंने फ़ारसी पढ़ी और  लेखाकार के कार्य का प्रशिक्षण प्राप्त किया| उनका विवाह छोटी आयु में ही हो गया था किन्तु वह अपना अधिक समय सूफी और भक्त संतों के बीच गुजारते थे| गुरु नानक दूर-दराज की यात्राएं भी की |
    बाबा गुरु नानक का संदेश उनके भजनों और उपदेशों  में निहित है | कबीर की भाँती गुरुनानक ने भी धार्मिक आडम्बरों, कर्मकांडों, अवतारवाद, मूर्तिपूजा, कठोर तप, यज्ञ , जाति-पांति, उंच-नीच का विरोध किया | हिन्दू  और मुसलमानों के धर्मग्रन्थों को भी उन्होंने नकारा |
    बाबा गुरु नानक के अनुसार परम पूर्ण रब का कोई लिंग या आकर नहीं था| उन्होंने इस रब की उपासना के लिए एक उपाय बताया - निरंतर स्मरण व् नाम का जाप | उन्होंने अपने विचार पंजाबी भाषा में शबद के माध्यम से सामने रखे | बाबा गुरु नानक यह शबद अलग-अलग रागों में गाते थे और सेवक मरदाना रबाब बजाकर उनका साथ देता था |
    बाबा गुरुनानक ने अपने अनुयायियों को एक समुदाय में संगठित किया | सामुदायिक उपासना( संगत) के नियम बनाए | उन्होंने अपने अनुयायी अंगद को अपने बाद गुरुपद पर आसीन किया ; इस परिपाटी का पालन 200 वर्षों तक होता रहा |
    बाबा गुरुनानक ने सिक्ख धर्म की स्थापना की | सिक्खों के पांचवें गुरु अर्जुन देव जी ने बाबा गुरु नानक तथा उनके चार उत्तराधिकारियों, बाबा फरीद, रविदास और कबीर की बानी को आदि ग्रन्थ साहिब में संकलित कराया|  इन को "गुरुबानी" कहा जाता है और ये अनके भाषाओं में रचे गए |     17वीं शताब्दी के उत्तरार्द्व में दसवें गुरु गोविन्द सिंह जी ने नवें गुरु तेग बहादुर की रचनाओं को भी इसमें शामिल किया और इस ग्रन्थ को " गुरु ग्रन्थ साहिब" कहा गया | गुरु गोविन्द सिंह जी ने खालसा पंथ (पवित्रों की सेना) की नीवं डाली और उनके पांच प्रतीकों का वर्णन किया  :
1. बिना कटे केश 
2. कृपाण 
3. कच्छ 
4. कंघा 
5. लोहे का कडा
गुरु गोविन्द सिंह के नेतृत्व में समुदाय एक सामाजिक, धार्मिक और सैन्य बल के रूप में संगठित होकर सामने आया| 

मीराबाई, भक्तिमय राजकुमारी 
    
दक्षिण भारत में अलवार महिला संत अंडाल की तरह उत्तर भारत में मीराबाई भी  भगवान कृष्ण को अपना पति मानती थी | मीराबाई का जन्म 1498 ई. में राजस्थान के मेड़ता के एक गाँव कुसली में हुआ | उनके पिता रतनसिंह राठौर  मेड़ता के शासक थे | मीराबाई का विवाह मेवाड़ शासक राणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज से हुआ| भोजराज की असमय मृत्यु हो गई और मीराबाई विधवा हो गई | 
    मीराबाई अब कृष्ण भक्ति में रम गयी | 1531ई. में  सुसराल वालों ने मीरा को विष देकर मारने की असफल कोशिश की | मीरा मेवाड़ छोड़कर मेड़ता चली गयी  और उसके बाद द्वारका  पहुँच गयी | उन्होंने कृष्ण भक्ति के कई पदों का सृजन किया | 
" मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई |
जा के सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई |"
मीराबाई द्वारा रचित एक गीत के अंश  
" अगर-चन्दन की चिता  बनाऊं, अपनै हाथ जला जा |
जल-बल भयी भसम की ढेरी, अपनैं अंग लगा जा |
मीरा कहै प्रभु गिरधर नागर, जोत में जोत मिला जा||"
 ऐसा माना जाता है की मीराबाई के गुरु रैदास थे| मीराबाई भी जाति-पांति नहीं मानती थी |
 
एक पद में कहती है - 
" राणों जी मेवाड़ों म्हारो कांई करसी |
म्हे तो गोविन्द रा गुण गास्यां |
राणों जी रुससी गाँव रखासी, हरि रूस्यां कुमालास्या|"
    मीराबाई के आसपास अनुयायियों का जमघट नहीं लगा और उन्होंने किसी निजी मंडली की नीवं नहीं डाली किन्तु फिर भी वह शताब्दियों से प्रेरणा का स्रोत रही है | उनके रचित पद आज भी स्त्रियों और  पुरुषों द्वारा गाए जाते है | खासतौर से गुजरात और राजस्थान के गरीब लोगों द्वारा जिन्हें " नीच जाति" का समझा जाता है |


भक्ति-सूफ़ी परम्पराएं  
भक्ति परम्परा के अन्य संत 
शंकरदेव: 
15 वीं  शताब्दी के उत्तरार्द्व में असम में शंकरदेव वैष्णव धर्म के मुख्य प्रचारक के रूप में उभरे| उनके उपदेशों को  " भगवती धर्म" कह कर सम्बोधित किया जाता है क्योंकि वे भगवद गीता और भागवत पुराण पर आधारित थे | ये उपदेश सर्वोच्य देवता विष्णु के प्रति पूर्ण समर्पण भाव पर केन्द्रीत थे | शंकरदेव ने भक्ति के लिए नाम कीर्तन और श्रद्वावान भक्तों के सत्संग में ईश्वर के नाम उच्चारण पर बल दिया | उन्होंने आध्यात्मिक ज्ञान के प्रचार के लिए सत्र या मठ तथा नामघर जैसे प्रार्थनागृह की स्थापना को बढावा दिया| इस क्षेत्र में ये संस्थाएं और आचार आज भी पंप रहे हैं | शंकरदेव की प्रमुख काव्य रचनाओं में कीर्तनघोष  भी है |




बल्लभाचार्य :
बल्लभाचार्य का जन्म 1479 ई. में बनारस में हुआ था
 | इनके पिता का नाम लक्ष्मण भट्ट और माता का नाम यल्लमगरू  था | उनकी महालक्ष्मी एवं दो पुत्र क्रमश: गोपीनाथ एवं विट्ठल दास थे | 
    बल्लभाचार्य ने मोक्ष के तीन साधन बताये | कर्म, ज्ञान, तथा भक्ति| वे कृष्ण के उपासक थे तथा कृष्ण भक्ति पर बल देते थे |  इन्होने पुष्टिमार्ग सम्प्रदाय चलाया| इनके दार्शनिक मत को शुद्व अद्वैतवाद कहा जाता है |


चैतन्य महाप्रभु :
चैतन्य महाप्रभु का जन्म 1486 ई. में  बंगाल के नदिया जिले में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ | 20 वर्ष की आयु में सन्यास ग्रहण कर लिया और बंगाल में  साम्प्रदायिक सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास किया | चैतन्य महाप्रभु भी कृष्ण के उपासक थे| उन्होंने कीर्तन, नृत्य और संगीत द्वारा कृष्ण भक्ति पर विशेष बल दिया| उनका दार्शनिक मत "अचिन्त्य भेदाभेदवाद" कहलाता है|

भक्ति आन्दोलन की विशेषताएं :
1. भक्ति आन्दोलन का उद्देश्य ईश्वर की एकता पर बल देना था |
2. संत  कर्मकांड एवं बाह्य आडम्बर के विरोधी थे |
3. इन्होने जाति-पांति, उंच-नीच एवं अस्पृश्यता के भेदभाव को त्यागने पर बल दिया |
4. ईश्वर की भक्ति के लिए  कीर्तन, गीत-संगीत और नृत्य को साधन बताया|
5. भक्ति संतो ने चरित्र की शुद्वता पर बल दिया |
6. इस आन्दोलन के द्वारा निम्न वर्ग को भी जोड़ने का प्रयास किया|

भक्ति आन्दोलन का प्रभाव :
1. भक्ति आन्दोलन के संतों ने संस्कृत के स्थान पर क्षेत्रीय भाषा में भजन गाये एवं पदों की रचना की |
2. भक्ति आन्दोलन से स्थानीय भाषा का विकास हुआ |
3. आन्दोलन ने हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल दिया और समाज में भाईचारे एवं सहिष्णुता का विकास हुआ |
4. हिन्दू धर्म में फैली कुरीतियों, जाति-पाती, बाह्य आडम्बर, उंच-नीच एवं संकीर्ण मानसिकता पर प्रहार किया |
5. हिन्दू-मुस्लिम संस्कृति का विकास हुआ |
6. मुग़ल बादशाह अकबर हिन्दू धर्म से प्रभावित होकर तिलक लगाना प्रारंभ किया| 

धार्मिक परम्पराओं के इतिहासों का पुनर्निर्माण :
इतिहासकार धार्मिक परम्परा के इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए अनेक स्रोतों का उपयोग करते है - जैसे मूर्तिकला, स्थापत्य कला, धर्मगुरुओं से जुडी कहानियाँ, दैवीय स्वरूप को समझने को उत्सुक स्त्री और पुरुष द्वारा लिखी गयी काव्य रचनाएं आदि |
  साहित्यिक परम्पराओं में वर्णित रचनाओं में काफी विविधता है, और कई भाषाओं व् शैलियों में लिखे गए है| कुछ रचनाएं काफी सरल और स्पष्ट है जैसे वासवन्ना के वचन जबकि कुछ काफी जटिल और अस्पष्ट है | 

सूफी परम्परा के इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए विभिन्न स्रोत :
1.कश्फ़-उल-मह्जुब- सूफी विचारों और आचारों पर प्रबंध पुस्तिका की  रचना अली बिन उस्मान हुजविरी ने किया था| इस पुस्तक से उपमहाद्वीप के बाहर की परम्पराओं ने भारत की सूफी चिंतन को किस तरह प्रभावित किया |
2.मुलफुजात (सूफ़ी संतों की बातचीत) : मुलफुजात पर आधारित प्रारम्भिक पुस्तक  "फवाइद-अल-फुआद" है |  यह निजामुद्दीन औलिया की बातचीत पर आधारित है |
3. मक्तुबात (लिखे हुए पत्रों का संकलन ) : ये वे पत्र थे जो सूफी संतों द्वारा अपने अनुयायियों और सहयोगियों को लिखे गए|
4. तजकिरा ( सूफी संतों की जीवनियों का स्मरण ) : भारत में लिखा पहला सूफी तजकिरा मीर खुर्द किरमानी का "सियार-उल-औलिया" है | दूसरा प्रमुख तजकिरा अब्दुल हक़ मुहादीश देहलवी का " अखबार-उल-अखयार" है | तजकिरा के लेखकों का मुख्य उद्देश्य अपने सिलसिले की प्रधानता स्थापित करना और आध्यात्मिक वंशावली की महिमा का बखान करना था |


Bhakti-Sufi Tradition - THE END
 


  



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