Kinship Caste and Class: Ncert Solutions & notes
भारतीय इतिहास के कुछ विषय : वर्ग 12
विषय तीन – बन्धुत्व , जाति तथा वर्ग
(आरम्भिक समाज – 600ई० पू. से 600 ईस्वी )
परिचय :
* पिछले अध्याय में 600 ई, पू. से 600ई, तक के मध्य आर्थिक और राजनीतिक जीवन में अनेक परिवर्तन हुए | जैसे –
1. वन क्षेत्रों में कृषि का विस्तार
2. लोगों के जीवन शैली में परिवर्तन
3. शिल्प विशेषज्ञों के एक विशिष्ट सामाजिक समूह का उदय
4. सम्पति के असमान वितरण से सामाजिक विषमताओं का अधिक प्रखर होना
इतिहासकार तत्कालीन समाज में सामाजिक , आर्थिक और राजनीतिक प्रक्रियाओं को समझाने के लिए प्राय: अभिलेख , सिक्के एवं साहित्यिक परम्पराओं का उपयोग करते है |
इतिहासकार तत्कालीन समाज में सामाजिक , आर्थिक और राजनीतिक प्रक्रियाओं को समझाने के लिए प्राय: अभिलेख , सिक्के एवं साहित्यिक परम्पराओं का उपयोग करते है |
अभिलेखों, सिक्के एवं साहित्यिक रचनाओं से प्रचलित आचार-व्यवहार और रिवाजों का इतिहास पता चलता है | इस पाठ में महाभारत महाकाव्य का अध्ययन करेंगे जो वर्तमान रूप में एक लाख श्लोको से अधिक है और विभिन्न सामाजिक श्रेणियों व परिस्थितियों का लेखा जोखा है |
महाभारत का समालोचनात्मक संस्करण
* 1919 में संस्कृत के विद्वान वी,एस.सुकथानकर के नेतृत्व में में महाभारत का
समालोचनात्मक संस्करण तैयार करने का जिम्मा उठाया |
* विद्वानों ने महाभारत से जुडी सभी भाषाओं के उन श्लोकों को चयन किया जो लगभग
लगभग सभी पांडुलिपियों में पाए गए थे और उनका प्रकाशन 13000 पृष्ठों में फैले अनेक ग्रन्थ खंडों में किया |
* इस परियोजना को पूरा करने के लिए 47 वर्ष लगे |
* इस प्रक्रिया से दो बाते निकल के आयी –
1. संस्कृत के कई पाठों के अनेक अंशों में समानता थी और देश के अलग-अलग हिस्सों से प्राप्त पांडुलिपियों में यह समानता थी |
2. कुछ शताब्दियों के दौरान हुए महाभारत के प्रेषण में अनेक क्षेत्रीय प्रभेद सामने आये | इन प्रभेदों का संकलन मुख्य पाठ की पादटिप्पणियों और परिशिष्टों के रूप में किया गया | 13000 पृष्ठों में से आधे से भी अधिक इन प्रभेदों का ब्योरा देते है |
* आरम्भ में यह विश्वास किया जाता था की संस्कृत ग्रन्थों में लिखी बाते व्यवहार में भी प्रयुक्त होता होगा परन्तु पाली , प्राकृत और तमिल ग्रन्थों के अध्ययन इन आदर्शों को प्रश्नवाचक दृष्टी से भी देखा जाता था और यदा-कदा इनकी अवहेलना भी की जाती थी |
नोट:
प्रभेद : उन गूढ़ प्रक्रियाओं के द्योतक है जिन्होंने प्रभावशाली परम्पराओं और लचीले स्थानीय विचार और आचरण के बीच संवाद कायम करके सामाजिक इतिहासों को रूप दिया था | यह संवाद द्वंद्व और मतैक्य दोनों का ही चित्रित करते है |
महाकाव्य महाभारत
* महाभारत की रचना वेद व्यास ने की थी |
*महाभारत महाकाव्य की रचना काल 500 ई. पू. से 500 ई. के बीच माना जाता है |
* आरम्भ में इस ग्रन्थ में 8800 श्लोक थे और इसका नाम “जय संहिता“ था| कालान्तर में श्लोकों की संख्या 24000 हो गयी और नाम “ भारत “ पड़ा |
* अंत में श्लोकों की संख्या बढ़कर 100000 हो गयी और नाम “ शत सहस्रीसंहिता/महाभारत “ पड़ा |
* इस प्राचीनतम महाकाव्य में कुरू वंश ( कौरवों और पांडवों ) की कथा है |
* महाभारत महाकाव्य से हमें तत्कालीन भारत की सामाजिक, धार्मिक तथा राजनीतिक स्थिति का परिचय मिलता है; इनमें शक, यवन, पारसीक, हूण आदि जातियों का उल्लेख है |
बंधुता और विवाह : अनेक नियम और व्यवहार की विभिन्नता :
* वैदिक युग( 1500-1000 ई० पू.) में समाज में पितृसत्तात्मक परिवार का प्रचलन था |
* इस परिवार में माता-पिता, पुत्र-पुत्री, भाई-बहन ,पति-पत्नी के लिए पृथक-पृथक संज्ञाएँ थी |
* वे एक साथ रहते , संसाधनों का आपस में मिल-बांटकर इस्तेमाल करते , काम करते और धार्मिक अनुष्ठानों को साथ ही इस्तेमाल करते थे |
* परिवार एक बड़े समूह का हिस्सा होते थे जिन्हें " सम्बन्धी " कहते है | तकनीकी तौर पे सम्बन्धियों को जाति समूह कह सकते है | पारिवारिक रिश्ते नैसर्गिक और रक्त सम्बन्ध होते थे |
नोट : संस्कृत ग्रन्थों में " कुल " शब्द का प्रयोग परिवार के लिए और "जाति" का बांधवों के बड़े समूह के लिए होता है | पीढी -दर -पीढी किसी भी कुल के पूर्वज इकट्ठे रूप में एक ही वंश के माने जाते है |
* महाभारत में भी दो परिवार कौरव और पांडव की कहानी है जिसमें भूमि और सत्ता को लेकर संघर्ष का चित्रण करती है | ये दोनों परिवार एक ही कुल कुरु वंश से सम्बन्धित थे जिनका एक जनपद ' कुरु पर शासन था |
* महाभारत में यह पता चलता है की सत्ता का उत्तराधिकारी ज्येष्ठ पुत्र होता था | इसलिए दुर्योधन को यह चिंता हुई की कहीं पांडू के पुत्रों को उतराधिकार न मिल जाए |
* समाज पितृसत्तात्मक होने के कारण पुत्र पिता की मृत्यु के बाद उसका उत्तराधिकारी होता है |
* कभी पुत्र के ना होने पर एक भाई दूसरे का उत्तराधिकारी हो जाता था (जैसे पांडू के अचानक मृत्यु होने पर उनके अंधे भाई धृतराष्ट्र कुरु जनपद का राजा बने ) तो कभी बन्धु-बांधव सिंहासन पर अपना अधिकार जमाते थे |
* कुछ विशेष परिस्थितियों में महिलाएं भी सता का उपभोग थी ( जैसे प्रभावती गुप्त )
* आज भी भारतीय समाज में पितृवंशिकता के प्रति झुकाव है | इसका अनुभव इस बात से कर सकते है की आज भी अनेक हिन्दू विवाह संस्कारों में पुत्र प्राप्ति के लिए मन्त्र पढ़े जाते है | ऋग्वेद से एक मन्त्र उद्वृत है -
" मैं इसे यहाँ से मुक्त करता हूँ किन्तु वहां से नहीं | मैंने इसे वहां मजबूती से स्थापित किया है जिससे इंद्र के अनुग्रह से इसके उत्तम पुत्र हों और पति के प्रेम का सौभाग्य से इसे प्राप्त हो |
इंद्र शौर्य , युद्व और वर्षा के एक प्रमुख देवता है | " यहाँ " और "वहां " से तात्पर्य पिता और पति गृह से है |
विवाह के नियम :
विवाह शब्द "व" उपसर्ग-वह धातु से बना है जिसका अर्थ होता है - वधु को वर के घर ले जाना या पहुचाना |
* नए नगरों के उदय और सामाजिक जीवन की जटिलता के कारण ब्राह्मणों ने समाज के लिए विस्तृत आचार संहिताएँ तैयार किया | ब्राह्मणों को इन संहिताओं का विशेष पालन करना होता था और शेष समाज को इसका अनुसरण करना होता था |
* 500 ई. पू. से इन मानदंडो का संकलन धर्मसूत्र और धर्मशास्त्र नामक संस्कृत ग्रन्थों में किया गया |
* परन्तु भारतीय उपमहाद्वीप में फ़ैली में क्षेत्रीय विभिन्नता और संचार की बाधाओं से सार्वभौमिक प्रभाव नही हुआ |
* मनु द्वारा रचित "मनुस्मृति"( 200 ई. पू.-200 ई.) में 8 प्रकार के विवाहों का वर्णन मिलता है | * महाभारत के आदिपर्व में 102वें अध्याय में श्लोक 11 और 17 में भीष्म पितामह ने भी इन्ही 8 प्रकार के विवाहों का वर्णन किया है |
विवाह के प्रकार :
जैसा की हमलोग ऊपर देखे की " विवाह के पश्चात स्त्रियाँ अपने पिता के स्थान पर पति का गोत्र धारण करना पड़ता था " परन्तु सातवाहन वंश के अभिलेखों से ज्ञात होता है की सातवाहन के रानियाँ पति के गोत्र अपनाने की अपेक्षा अपने पिता का ही गोत्र का इस्तेमाल की थी |
अभिलेखों से यह भी पता चलता है की कुछ रानियाँ एक ही गोत्र से थी | यह बहिर्विवाह पद्वति केनियमों के विरूद्व था | यह उदाहरण एक वैकल्पिक प्रथा अन्तर्विवाह पद्वति अर्थात बन्धुओं में विवाह सम्बन्ध को दर्शाता है जिसका प्रचलन दक्षिण भारत के कई समुदायों में आज भी है |
बांधवों ( ममरे , चचेरे , फुफेरे इत्यादि भाई -बहन ) के साथ जोड़े गए विवाह सम्बन्धों की वजह से एक सुगठित समुदाय उभर पाता था |
सातवाहन राजाओं के अभिलेखों से यह भी ज्ञात होता है की माताएं महत्वपूर्ण थी | सिंहासन का उत्तराधिकारी पितृवंशिक था परन्तु राजा अपने नाम के पहले माता के गोत्र नाम का प्रयोग करते थे |
परन्तु " महाकाव्य महाभारत " में देखते है की भीष्म पितामह अपनी माता सत्यवती और पांडव अपनी माता कुंती से सलाह लेकर कार्य करते थे किन्तु माता गांधारी अपने पुत्र दुर्योधन को युद्व के स्थान पर संधि करने की सलाह को नहीं मानता है
* इस परिवार में माता-पिता, पुत्र-पुत्री, भाई-बहन ,पति-पत्नी के लिए पृथक-पृथक संज्ञाएँ थी |
* वे एक साथ रहते , संसाधनों का आपस में मिल-बांटकर इस्तेमाल करते , काम करते और धार्मिक अनुष्ठानों को साथ ही इस्तेमाल करते थे |
* परिवार एक बड़े समूह का हिस्सा होते थे जिन्हें " सम्बन्धी " कहते है | तकनीकी तौर पे सम्बन्धियों को जाति समूह कह सकते है | पारिवारिक रिश्ते नैसर्गिक और रक्त सम्बन्ध होते थे |
नोट : संस्कृत ग्रन्थों में " कुल " शब्द का प्रयोग परिवार के लिए और "जाति" का बांधवों के बड़े समूह के लिए होता है | पीढी -दर -पीढी किसी भी कुल के पूर्वज इकट्ठे रूप में एक ही वंश के माने जाते है |
* महाभारत में भी दो परिवार कौरव और पांडव की कहानी है जिसमें भूमि और सत्ता को लेकर संघर्ष का चित्रण करती है | ये दोनों परिवार एक ही कुल कुरु वंश से सम्बन्धित थे जिनका एक जनपद ' कुरु पर शासन था |
* महाभारत में यह पता चलता है की सत्ता का उत्तराधिकारी ज्येष्ठ पुत्र होता था | इसलिए दुर्योधन को यह चिंता हुई की कहीं पांडू के पुत्रों को उतराधिकार न मिल जाए |
* समाज पितृसत्तात्मक होने के कारण पुत्र पिता की मृत्यु के बाद उसका उत्तराधिकारी होता है |
* कभी पुत्र के ना होने पर एक भाई दूसरे का उत्तराधिकारी हो जाता था (जैसे पांडू के अचानक मृत्यु होने पर उनके अंधे भाई धृतराष्ट्र कुरु जनपद का राजा बने ) तो कभी बन्धु-बांधव सिंहासन पर अपना अधिकार जमाते थे |
* कुछ विशेष परिस्थितियों में महिलाएं भी सता का उपभोग थी ( जैसे प्रभावती गुप्त )
* आज भी भारतीय समाज में पितृवंशिकता के प्रति झुकाव है | इसका अनुभव इस बात से कर सकते है की आज भी अनेक हिन्दू विवाह संस्कारों में पुत्र प्राप्ति के लिए मन्त्र पढ़े जाते है | ऋग्वेद से एक मन्त्र उद्वृत है -
" मैं इसे यहाँ से मुक्त करता हूँ किन्तु वहां से नहीं | मैंने इसे वहां मजबूती से स्थापित किया है जिससे इंद्र के अनुग्रह से इसके उत्तम पुत्र हों और पति के प्रेम का सौभाग्य से इसे प्राप्त हो |
इंद्र शौर्य , युद्व और वर्षा के एक प्रमुख देवता है | " यहाँ " और "वहां " से तात्पर्य पिता और पति गृह से है |
विवाह के नियम :
विवाह शब्द "व" उपसर्ग-वह धातु से बना है जिसका अर्थ होता है - वधु को वर के घर ले जाना या पहुचाना |
* नए नगरों के उदय और सामाजिक जीवन की जटिलता के कारण ब्राह्मणों ने समाज के लिए विस्तृत आचार संहिताएँ तैयार किया | ब्राह्मणों को इन संहिताओं का विशेष पालन करना होता था और शेष समाज को इसका अनुसरण करना होता था |
* 500 ई. पू. से इन मानदंडो का संकलन धर्मसूत्र और धर्मशास्त्र नामक संस्कृत ग्रन्थों में किया गया |
* परन्तु भारतीय उपमहाद्वीप में फ़ैली में क्षेत्रीय विभिन्नता और संचार की बाधाओं से सार्वभौमिक प्रभाव नही हुआ |
* मनु द्वारा रचित "मनुस्मृति"( 200 ई. पू.-200 ई.) में 8 प्रकार के विवाहों का वर्णन मिलता है | * महाभारत के आदिपर्व में 102वें अध्याय में श्लोक 11 और 17 में भीष्म पितामह ने भी इन्ही 8 प्रकार के विवाहों का वर्णन किया है |
विवाह के प्रकार :
मनुस्मृति में विवाह के आठ प्रकारो का उल्लेख है।इसमें प्रथम चार प्रशंसित और अंतिम चार निंदनीय है ।
1.ब्रह्म विवाह - वेदज्ञ व शीलवान वर को आमंत्रित कर उपहार आदि के साथ कन्या प्रदान करना ।
1.ब्रह्म विवाह - वेदज्ञ व शीलवान वर को आमंत्रित कर उपहार आदि के साथ कन्या प्रदान करना ।
2.देव विवाह- सफलता पूर्वक आनुष्ठानिक यज्ञ पूर्ण करनेवाले पुरोहित के साथ कन्या का विवाह।
3.आर्ष विवाह - कन्या के पिता द्वारा वर से यज्ञीय कार्य हेतु एक जोड़ी गाय-बैल के बदले कन्या प्रदान करना ।
4.प्रजापत्य विवाह - कन्या और वर दोनों संयुक्त रूप से सामाजिक आर्थिक कर्तव्य निर्वाह की वचनबद्वता, वर्तमान में भी प्रचलित।
5.गंधर्व विवाह-(प्रेम विवाह)-माता पिता की अनुमति के बिना वर कन्या का एक दूसरे पर आसक्त होकर विवाह करना ।
6.आसुर विवाह : कन्या के पिता द्वारा धन के बदले में कन्या की बिक्री ।
7.राक्षस विवाह-कन्या का अपहरण कर बलपूर्वक किया गया विवाह ।
8.पैशाच विवाह-कन्या के साथ छ्ल-छ्द्म द्वारा शारीरिक सम्बंध स्थापित कर विवाह करना ।
अन्य विवाह :
*अनुलोम विवाह:उच्च वर्ण का व्यक्ति अपने से नीचे वर्ण की कन्या के साथ विवाह करता हो ।
*अनुलोम विवाह:उच्च वर्ण का व्यक्ति अपने से नीचे वर्ण की कन्या के साथ विवाह करता हो ।
*प्रतिलोम विवाह:उच्च वर्ण की कन्या का अपने से निम्न वर्ण के पुरुष के साथ किया गया विवाह ।
नोट:
* अन्तर्विवाह : इसमें वैवाहिक सम्बन्ध समूह के मध्य ही होते है | यह समूह एक गोत्र कुल अथवा एक जाति या फिर एक ही स्थान पर बसने वालों का हो सकता है |
* बहिर्विवाह - इसमें गोत्र से बाहर विवाह करने को कहते है |
* बहुपत्नी विवाह - इस प्रथा में एक पुरुष की अनेक पत्नियां होने की सामाजिक परिपाटी है |
* बहुपति विवाह : इस प्रथा में एक स्त्री के अनेक पति होने की पद्वति है |
नोट:
* अन्तर्विवाह : इसमें वैवाहिक सम्बन्ध समूह के मध्य ही होते है | यह समूह एक गोत्र कुल अथवा एक जाति या फिर एक ही स्थान पर बसने वालों का हो सकता है |
* बहिर्विवाह - इसमें गोत्र से बाहर विवाह करने को कहते है |
* बहुपत्नी विवाह - इस प्रथा में एक पुरुष की अनेक पत्नियां होने की सामाजिक परिपाटी है |
* बहुपति विवाह : इस प्रथा में एक स्त्री के अनेक पति होने की पद्वति है |
गोत्र :
गोत्र उन लोगों के समूह को कहते है जिनके वंश एक मूल पुरुष से सम्बन्ध रखता है | लोग अपने वंशज को आदि पुरूष से जोड़ते है | प्रत्येक गोत्र एक वैदिक ऋषि के नाम पर होता है | उस गोत्र के सदस्य ऋषि के वंशज के नाम से जाने जाते है |
गोत्र के दो नियम महत्वपूर्ण है :
1. विवाह के पश्चात स्त्रियों को पिता के स्थान पर पति के गोत्र का माना जाता था
2. एक ही गोत्र के सदस्य आपस में विवाह सम्बन्ध नहीं रख सकते थे |
प्रमुख गोत्र : कश्यप गोत्र , अत्री गोत्र , भारद्वाज गोत्र , भृगु गोत्र , गौतम गोत्र , वशिष्ट गोत्र , विश्वामित्र गोत्र
गोत्र उन लोगों के समूह को कहते है जिनके वंश एक मूल पुरुष से सम्बन्ध रखता है | लोग अपने वंशज को आदि पुरूष से जोड़ते है | प्रत्येक गोत्र एक वैदिक ऋषि के नाम पर होता है | उस गोत्र के सदस्य ऋषि के वंशज के नाम से जाने जाते है |
गोत्र के दो नियम महत्वपूर्ण है :
1. विवाह के पश्चात स्त्रियों को पिता के स्थान पर पति के गोत्र का माना जाता था
2. एक ही गोत्र के सदस्य आपस में विवाह सम्बन्ध नहीं रख सकते थे |
प्रमुख गोत्र : कश्यप गोत्र , अत्री गोत्र , भारद्वाज गोत्र , भृगु गोत्र , गौतम गोत्र , वशिष्ट गोत्र , विश्वामित्र गोत्र
जैसा की हमलोग ऊपर देखे की " विवाह के पश्चात स्त्रियाँ अपने पिता के स्थान पर पति का गोत्र धारण करना पड़ता था " परन्तु सातवाहन वंश के अभिलेखों से ज्ञात होता है की सातवाहन के रानियाँ पति के गोत्र अपनाने की अपेक्षा अपने पिता का ही गोत्र का इस्तेमाल की थी |
अभिलेखों से यह भी पता चलता है की कुछ रानियाँ एक ही गोत्र से थी | यह बहिर्विवाह पद्वति केनियमों के विरूद्व था | यह उदाहरण एक वैकल्पिक प्रथा अन्तर्विवाह पद्वति अर्थात बन्धुओं में विवाह सम्बन्ध को दर्शाता है जिसका प्रचलन दक्षिण भारत के कई समुदायों में आज भी है |
बांधवों ( ममरे , चचेरे , फुफेरे इत्यादि भाई -बहन ) के साथ जोड़े गए विवाह सम्बन्धों की वजह से एक सुगठित समुदाय उभर पाता था |
सातवाहन राजाओं के अभिलेखों से यह भी ज्ञात होता है की माताएं महत्वपूर्ण थी | सिंहासन का उत्तराधिकारी पितृवंशिक था परन्तु राजा अपने नाम के पहले माता के गोत्र नाम का प्रयोग करते थे |
परन्तु " महाकाव्य महाभारत " में देखते है की भीष्म पितामह अपनी माता सत्यवती और पांडव अपनी माता कुंती से सलाह लेकर कार्य करते थे किन्तु माता गांधारी अपने पुत्र दुर्योधन को युद्व के स्थान पर संधि करने की सलाह को नहीं मानता है
सामाजिक असमानताएं :
वर्ण व्यवस्था :-
ऋग्वेद के पुरूष सूक्त में चार वर्णों की उत्पति विराट पुरूष के चार अंगों से मानी गयी है |
वर्ण व्यवस्था :-
ऋग्वेद के पुरूष सूक्त में चार वर्णों की उत्पति विराट पुरूष के चार अंगों से मानी गयी है |
मनुस्मृति पुरूष सूक्त में कहा गया है -
ब्राह्मणोस्य मुख मासीद बाहू राजन्य: कृत:
उरूतदस्य यदवैश्य: पदथयां शूद्रोअजायातं |
अर्थात विराट पुरूष (ईश्वर ) के मुख से ब्राह्मण , बाहु से क्षत्रिय , जंघा से वैश्य एवं पैरों से शूद्र वर्ण की उत्पति हुई है |
महाभारत के शांतिपर्व के 188 वें अध्याय के 10 वें श्लोक में वनों की उत्पति ब्रह्मा से इस प्रकार बताई |
ब्रह्मणां तू सीनो क्षत्रियाणाम तू लोहित: |
वैश्यानां पीत को वर्ण शूद्राणामसितास्तथा ||
अर्थात ब्रह्मा ने ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य एवं शुद्र वर्ण की उत्पति की जिनके रंग क्रमश: श्वेत , लोहित , पीला एवं काला था |
ब्राह्मणोस्य मुख मासीद बाहू राजन्य: कृत:
उरूतदस्य यदवैश्य: पदथयां शूद्रोअजायातं |
अर्थात विराट पुरूष (ईश्वर ) के मुख से ब्राह्मण , बाहु से क्षत्रिय , जंघा से वैश्य एवं पैरों से शूद्र वर्ण की उत्पति हुई है |
महाभारत के शांतिपर्व के 188 वें अध्याय के 10 वें श्लोक में वनों की उत्पति ब्रह्मा से इस प्रकार बताई |
ब्रह्मणां तू सीनो क्षत्रियाणाम तू लोहित: |
वैश्यानां पीत को वर्ण शूद्राणामसितास्तथा ||
अर्थात ब्रह्मा ने ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य एवं शुद्र वर्ण की उत्पति की जिनके रंग क्रमश: श्वेत , लोहित , पीला एवं काला था |
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* पूर्व वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था कर्म के आधार पर निर्धारित थी | जो व्यक्ति जैसा कर्म करेगा उसका वर्ण वही होगा | अर्थात एक ब्राह्मण सैनिक का कार्य करता था तो उसका वर्ण क्षत्रिय वर्ण में गिना जाता था | यदि एक शुद्र वेदों का अध्ययन करता था और पूजा अनुष्ठान सम्पन्न कराता था तो उसे ब्राह्मण वर्ण की श्रेणी में गिना जाता |
* परन्तु उत्तर वैदिक काल में यह व्यवस्था बदल गयी और वर्ण जन्म के आधार पर निर्धारित होने लगी | इस धारणा को पुष्ट करने के लिए धर्म सूत्रों एवं धर्मशास्त्रों में एक आदर्श व्यवस्था का उल्लेख किया जिसमें स्वयं उन्हें पहला दर्जा प्राप्त है, एक दैवीय व्यवस्था है |
* धर्मशास्त्रों और धर्मसूत्रों में चार वर्गों के लिए आदर्श "जीविका " से जुड़े कई नियम बनाये |
1. ब्राह्मणों का कार्य अध्ययन , वेदों की शिक्षा , यज्ञ सम्पन्न करना और कराना , दान देना और लेना था |
2. क्षत्रियों का कार्य युद्व करना , लोगों की सुरक्षा करना , न्याय करना , वेद पढ़ना , यज्ञ करना और दान-दक्षिणा देना था |
3. वैश्य का कार्य - वैश्यों के लिए कृषि , गौ-पालन , व्यापार का कर्म अपेक्षित था |
4. शूद्र का कार्य - शूद्रों के मात्र एक जीविका थी - तीनों - "उच्च " वर्णों की सेवा करना |
इन नियमों का पालन करवाने के लिए ब्राह्मणों ने दो-तीन नीतियाँ अपनाई |
1. वर्ण व्यवस्था की उत्पति एक दैवीय व्यवस्था है |
2. वे शासकों को यह उपदेश देते थे की वे इस व्यवस्था के नियमों का अपने राज्यों में अनुसरण करे |
3. लोगों को यह विश्वास दिलाने का प्रयत्न किया की उनकी प्रतिष्ठा जन्म पर आधारित है |
किन्तु ऐसा करना आसान नही था | अत: इन मानदंडों को बहुधा महाभारत जैसे अनेक ग्रन्थों में वर्णित कहानियों के द्वारा बल प्रदान किया जाता था |
उदाहरण स्वरूप एकलव्य ( जो एक आदिवासी भील जाति का था ) की कहानी | जिसमें द्रोणाचार्य अपने प्रिय शिष्य अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ तीरंदाज साबित करने के लिए एकलव्य से गुरु दक्षिणा में उसका दायाँ हाथ का अंगूठा मांग लिया था |
राजा कौन ?
* शास्त्रों के अनुसार केवल क्षत्रिय ही राजा हो सकते थे | परन्तु इतिहास में अनेक ऐसे उदाहरण है जो यह प्रमाणित करता है की जो समर्थन और संसाधान जुटा सके वह राजनीतिक सत्ता का उपभोग कर सकता है |
* महाभारत में कर्ण सूत पुत्र होते हुए भी दुर्योधन ने उसे " अंग" राज्य का राजा बनाया था |
* मौर्य वंश के शासक के क्षत्रिय होने पर भी बहस होती रही है | बौद्व ग्रन्थों में इस वंश के शासकों को क्षत्रिय कहा गया है जबकि ब्राह्मण ग्रन्थ उन्हें " निम्न कुल " का मानते है |
* नन्द वंश के शासक " निम्न कुल " के होने पर भी "मगध महाजनपद" पर शासन किया |
* शक जो मध्य एशिया से भारत आए , ब्राह्मण मलेच्छ , बर्बर मानते थे | परन्तु शक राजा रूद्रदामन पश्चिमोतर भारत पर शासन किया साथ ही उसके परिवार के सदस्य के साथ सातवाहन वंश के शासक ( जो स्वयं को अनूठा ब्राह्मण और क्षत्रिय को दर्प करने वाला बताया ) वैवाहिक सम्बन्ध भी बनाए |
सवाल ?:
1. शास्त्र कहता है की राजा सिर्फ क्षत्रिय बन सकता है , ऐसे में शुंग वंश , कंव वंश , सातवाहन वंश ( जो ब्राह्मण थे ) शासन किया |
2. सातवाहन शासकों ने उन लोगों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये जो वर्ण व्यवस्था से ही बाहर थे |
3. सातवाहन शासकों ने अन्तर्विवाह पद्वति का पालन करते थे , जबकि ब्राह्मणीय ग्रन्थों में बहिर्विवाह प्रणाली प्रस्तावित है |
जाति और सामाजिक गतिशीलता :
* समाज में वर्ण चार थे वहीं जातियों की कोई संख्या निश्चित नही थी |
* निषाद या स्वर्णकार जो चार वर्ण व्यवस्था में समाहित करना सम्भव नही था , उनका जाति में वर्गीकृत कर दिया गया |
* वे जातियां जो एक ही जीविका अथवा व्यवसाय से जुडी थी उन्हें कभी-कभी श्रेणियों में संगठित किया जाता था |
* ऐसा ही उदाहरण मदसौर अभिलेख से मिला है जिसमें एक रेशम के बुनकरों की एक श्रेणी का वर्णन मिलता है | सामूहिक रूप से शिल्पकर्म से अर्जित धन को सूर्य देवता के सम्मान में मन्दिर बनवाने पर खर्च किया | यह सामाजिक गतिशीलता का प्रतीक है |
* संस्कृत साहित्य में कुछ ऐसे समुदायों का भी उल्लेख आता है जिसे विचित्र , असभ्य , पशुवत, मलेच्छ कहकर
चित्रित किया गया है | किन्तु इन लोगों के बीच विचारों एवं मतों का आदान प्रदान होता था |
* उदाहरण स्वरूप :
1. महाभारत में भीष्म पितामह के पिता राजा शांतनु ने निषाद कन्या सत्यवती से विवाह किया था |
क्या यह ब्राह्मणीय वैवाहिक नियमों के तहत था ?
2. महाभारत में पांडव पुत्र भीम ने हिडिम्बा राक्षसी से विवाह किया |
क्या यह ब्राह्मणीय वैवाहिक नियमों के तहत था ?
3. सातवाहन नरेश पुलुमावी वशिष्ठ ने शक राजा रूद्रदामन की कन्या से विवाह किया |
क्या यह ब्राह्मणीय वैवाहिक नियमों के तहत था ?
चूँकि ये लोग समर्थ थे | अत: किसी ने प्रश्न चिन्ह नही लगाया |
गुप्तोतर काल में विभिन्न वर्णों के बीच विवाह सम्बन्ध होने लगे | इससे कई जातियां और उपजातियां अस्तित्व में आई |
* ब्राह्मण कुछ लोगों को वर्ण व्यवस्था वाली सामाजिक प्रणाली के बाहर मानते थे | ऐसे वर्गों को " अस्पृश्य " कहा गया | इनलोगों में ही जो लोग शवों की अंत्येष्टि और मृत पशुओं को छूने वाले को " चांडाल " कहा जाता था |
* मनुस्मृति में चांडालों के कर्तव्यों की सूची मिलती है | उन्हें गाँव के बाहर रहना होता था | फेके हुए वर्तन का इस्तेमाल करते थे , मरे हुए लोगों के वस्त्र तथा लोहे के आभूषण पहनते थे |
* ये लोग सडक पर चलते समय करताल बजाकर अपने होने की सूचना देते जिससे अन्य लोग उन्हें देखने के दोष से बच जाए | चीन से आए बौद्व भिक्षु फाह्यान ने भी इसका वर्णन किया है |
* पूर्व वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था कर्म के आधार पर निर्धारित थी | जो व्यक्ति जैसा कर्म करेगा उसका वर्ण वही होगा | अर्थात एक ब्राह्मण सैनिक का कार्य करता था तो उसका वर्ण क्षत्रिय वर्ण में गिना जाता था | यदि एक शुद्र वेदों का अध्ययन करता था और पूजा अनुष्ठान सम्पन्न कराता था तो उसे ब्राह्मण वर्ण की श्रेणी में गिना जाता |
* परन्तु उत्तर वैदिक काल में यह व्यवस्था बदल गयी और वर्ण जन्म के आधार पर निर्धारित होने लगी | इस धारणा को पुष्ट करने के लिए धर्म सूत्रों एवं धर्मशास्त्रों में एक आदर्श व्यवस्था का उल्लेख किया जिसमें स्वयं उन्हें पहला दर्जा प्राप्त है, एक दैवीय व्यवस्था है |
* धर्मशास्त्रों और धर्मसूत्रों में चार वर्गों के लिए आदर्श "जीविका " से जुड़े कई नियम बनाये |
1. ब्राह्मणों का कार्य अध्ययन , वेदों की शिक्षा , यज्ञ सम्पन्न करना और कराना , दान देना और लेना था |
2. क्षत्रियों का कार्य युद्व करना , लोगों की सुरक्षा करना , न्याय करना , वेद पढ़ना , यज्ञ करना और दान-दक्षिणा देना था |
3. वैश्य का कार्य - वैश्यों के लिए कृषि , गौ-पालन , व्यापार का कर्म अपेक्षित था |
4. शूद्र का कार्य - शूद्रों के मात्र एक जीविका थी - तीनों - "उच्च " वर्णों की सेवा करना |
इन नियमों का पालन करवाने के लिए ब्राह्मणों ने दो-तीन नीतियाँ अपनाई |
1. वर्ण व्यवस्था की उत्पति एक दैवीय व्यवस्था है |
2. वे शासकों को यह उपदेश देते थे की वे इस व्यवस्था के नियमों का अपने राज्यों में अनुसरण करे |
3. लोगों को यह विश्वास दिलाने का प्रयत्न किया की उनकी प्रतिष्ठा जन्म पर आधारित है |
किन्तु ऐसा करना आसान नही था | अत: इन मानदंडों को बहुधा महाभारत जैसे अनेक ग्रन्थों में वर्णित कहानियों के द्वारा बल प्रदान किया जाता था |
उदाहरण स्वरूप एकलव्य ( जो एक आदिवासी भील जाति का था ) की कहानी | जिसमें द्रोणाचार्य अपने प्रिय शिष्य अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ तीरंदाज साबित करने के लिए एकलव्य से गुरु दक्षिणा में उसका दायाँ हाथ का अंगूठा मांग लिया था |
राजा कौन ?
* शास्त्रों के अनुसार केवल क्षत्रिय ही राजा हो सकते थे | परन्तु इतिहास में अनेक ऐसे उदाहरण है जो यह प्रमाणित करता है की जो समर्थन और संसाधान जुटा सके वह राजनीतिक सत्ता का उपभोग कर सकता है |
* महाभारत में कर्ण सूत पुत्र होते हुए भी दुर्योधन ने उसे " अंग" राज्य का राजा बनाया था |
* मौर्य वंश के शासक के क्षत्रिय होने पर भी बहस होती रही है | बौद्व ग्रन्थों में इस वंश के शासकों को क्षत्रिय कहा गया है जबकि ब्राह्मण ग्रन्थ उन्हें " निम्न कुल " का मानते है |
* नन्द वंश के शासक " निम्न कुल " के होने पर भी "मगध महाजनपद" पर शासन किया |
* शक जो मध्य एशिया से भारत आए , ब्राह्मण मलेच्छ , बर्बर मानते थे | परन्तु शक राजा रूद्रदामन पश्चिमोतर भारत पर शासन किया साथ ही उसके परिवार के सदस्य के साथ सातवाहन वंश के शासक ( जो स्वयं को अनूठा ब्राह्मण और क्षत्रिय को दर्प करने वाला बताया ) वैवाहिक सम्बन्ध भी बनाए |
सवाल ?:
1. शास्त्र कहता है की राजा सिर्फ क्षत्रिय बन सकता है , ऐसे में शुंग वंश , कंव वंश , सातवाहन वंश ( जो ब्राह्मण थे ) शासन किया |
2. सातवाहन शासकों ने उन लोगों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये जो वर्ण व्यवस्था से ही बाहर थे |
3. सातवाहन शासकों ने अन्तर्विवाह पद्वति का पालन करते थे , जबकि ब्राह्मणीय ग्रन्थों में बहिर्विवाह प्रणाली प्रस्तावित है |
जाति और सामाजिक गतिशीलता :
* समाज में वर्ण चार थे वहीं जातियों की कोई संख्या निश्चित नही थी |
* निषाद या स्वर्णकार जो चार वर्ण व्यवस्था में समाहित करना सम्भव नही था , उनका जाति में वर्गीकृत कर दिया गया |
* वे जातियां जो एक ही जीविका अथवा व्यवसाय से जुडी थी उन्हें कभी-कभी श्रेणियों में संगठित किया जाता था |
* ऐसा ही उदाहरण मदसौर अभिलेख से मिला है जिसमें एक रेशम के बुनकरों की एक श्रेणी का वर्णन मिलता है | सामूहिक रूप से शिल्पकर्म से अर्जित धन को सूर्य देवता के सम्मान में मन्दिर बनवाने पर खर्च किया | यह सामाजिक गतिशीलता का प्रतीक है |
* संस्कृत साहित्य में कुछ ऐसे समुदायों का भी उल्लेख आता है जिसे विचित्र , असभ्य , पशुवत, मलेच्छ कहकर
चित्रित किया गया है | किन्तु इन लोगों के बीच विचारों एवं मतों का आदान प्रदान होता था |
* उदाहरण स्वरूप :
1. महाभारत में भीष्म पितामह के पिता राजा शांतनु ने निषाद कन्या सत्यवती से विवाह किया था |
क्या यह ब्राह्मणीय वैवाहिक नियमों के तहत था ?
2. महाभारत में पांडव पुत्र भीम ने हिडिम्बा राक्षसी से विवाह किया |
क्या यह ब्राह्मणीय वैवाहिक नियमों के तहत था ?
3. सातवाहन नरेश पुलुमावी वशिष्ठ ने शक राजा रूद्रदामन की कन्या से विवाह किया |
क्या यह ब्राह्मणीय वैवाहिक नियमों के तहत था ?
चूँकि ये लोग समर्थ थे | अत: किसी ने प्रश्न चिन्ह नही लगाया |
गुप्तोतर काल में विभिन्न वर्णों के बीच विवाह सम्बन्ध होने लगे | इससे कई जातियां और उपजातियां अस्तित्व में आई |
* ब्राह्मण कुछ लोगों को वर्ण व्यवस्था वाली सामाजिक प्रणाली के बाहर मानते थे | ऐसे वर्गों को " अस्पृश्य " कहा गया | इनलोगों में ही जो लोग शवों की अंत्येष्टि और मृत पशुओं को छूने वाले को " चांडाल " कहा जाता था |
* मनुस्मृति में चांडालों के कर्तव्यों की सूची मिलती है | उन्हें गाँव के बाहर रहना होता था | फेके हुए वर्तन का इस्तेमाल करते थे , मरे हुए लोगों के वस्त्र तथा लोहे के आभूषण पहनते थे |
* ये लोग सडक पर चलते समय करताल बजाकर अपने होने की सूचना देते जिससे अन्य लोग उन्हें देखने के दोष से बच जाए | चीन से आए बौद्व भिक्षु फाह्यान ने भी इसका वर्णन किया है |
बोधिसत्त एक चांडाल के रूप में
क्या चांडालों ने अपने को समाज की सबसे निचली श्रेणी में रखे जाने का प्रतिरोध किया ? यह कहानी पढ़िए जो पाली में लिखी " मातंग " जातक से ली गई है | इस कथा में बोधिसत्त ( पूर्वजन्म में बुद्व ) एक चांडाल के रूप में चित्रित है |
एक बार बोधिसत्त ने बनारस नगर के बाहर एक चांडाल के पुत्र के रूप में जन्म लिया , उनका नाम मातंग था | एक दिन वे किसी कार्यवश नगर में गए और वहां उनकी मुलाक़ात दिथ्थ मांगलिक नामक एक व्यापारी की पुत्री से हुई | उन्हें देखकर वह चिल्लाई " मैंने कुछ अशुभ देख लिया है " यह कहकर उसने अपनी आँखें धोई | उसके क्रोधित सेवकों ने मातंग की पिटाई की | विरोध में मातंग व्यापारी के घर के दरवाजे के बाहर जाकर लेट गए | सातवें रोज घर के लोगों ने बाहर आकर दिथ्थ को उन्हें सौंप दिया | दिथ्थ उपवास से क्षीण हुए मातंग को लेकर चांडाल बस्ती में आई | घर लौटने पर मातंग ने संसार त्यागने का निर्णय लिया | अलौकिक शक्ति हासिल करने के उपरान्त वह बनारस लौटे और उन्होंने दिथ्थ से विवाह कर लिया | माण्डव्य कुमार नामक उनका एक पुत्र हुआ | बड़े होने पर उसने ( माण्डव्य कुमार ) तीनों वेदों का अध्ययन किया तथा प्रत्येक दिन वह 16000 ब्राह्मणों को भोजन कराता था |
एक दिन फटे वस्त्र पहने तथा मिट्टी का भिक्षा पात्र हाथ में लिए मातंग अपने पुत्र ( माण्डव्य कुमार ) के दरवाजे पर आए और उन्होंने भोजन माँगा | माण्डव्य ने कहा वे एक पतित आदमी प्रतीत होते है अत: भिक्षा के योग्य नहीं ,भोजन ब्राह्मणों के लिए है | मातंग ने उतर दिया , " जिन्हें अपने जन्म पर गर्व है पर अज्ञानी है वे भेंट के पात्र नही है "| इसके विपरीत जो लोग दोषमुक्त है वे भेंट के योग्य है | माण्डव्य कुमार ने क्रोधित होकर अपने सेवकों से मातंग को घर से बाहर निकालने को कहा | मातंग आकाश में जाकर अदृश्य हो गये | जब दिथ्थ मांगलिक को इस प्रसंग के बारे में पता चला तो वह उनसे माफी मांगने के लिए उनके पीछे आई | मातंग ने उससे कहा की वह उनके भिक्षा पात्र में बचे हुए भोजन का कुछ अंश माण्डव्य कुमार तथा ब्राह्मणों को दे दें ...........................
महाभारत काल में सम्पति पर स्त्री और पुरूष के भिन्न अधिकार
* ऋग्वैदिक काल में परिवार की सम्पति पर पिता का एकाधिकार होता था |
* मनुस्मृति के अनुसार पैतृक जायदाद का माता -पिता की मृत्यु के बाद सभी पुत्रों में समान रूप से बंटबारा किया जाना चाहिए किन्तु ज्येष्ठ पुत्र विशेष भाग का अधिकारी होता था | स्त्रियों का पैतृक सम्पति में कोई अधिकार नहीं होता |
* सिर्फ विवाह के समय मिले उपहार पर स्त्री का अधिकार था किन्तु उसका उपयोग पति के आज्ञा से ही कर सकती थी |
* विज्ञानेश्वर की मिताक्षरा में लिखा है कि पुत्र को यह अधिकार था की वह पिता से सम्पति का विभाजन करा ले |
* जीमूतवाहन ने दयाभाग में लिखा है की पिता की मृत्यु के पश्चात ही पुत्र को सम्पति में अधिकार मिलना चाहिए |
* जैसा की आप जानते है की महाभारत में युधिष्ठिर अपने प्रतिद्वन्द्वी दुर्योधन के साथ खेले गए द्यूत क्रीडा में स्वर्ण , हस्ति , रथ, दास , सेना , कोष , राज्य , तथा अपनी प्रजा की सम्पति , अनुजों और फिर स्वयं को भी दांव पर लगाकर हार जाते |
* इसके उपरांत पांडवों की सहपत्नी द्रोपदी को भी दांव पर लगाया और उसे भी हार गए |
द्रोपदी के प्रश्न : विचार योग्य
ऐसा माना जाता है कि द्रोपदी ने युधिष्ठिरसे यह प्रश्न किया था की वह उसे दांव पर लगाने से पहले स्वयं को हार बैठे थे या नहीं | इस प्रश्न के उत्तर में दो भिन्न मतों को प्रस्तुत किया गया |
1. तो यह कि यदि युधिष्ठिर ने स्वयं को हार जाने के पश्चात द्रोपदी को दांव पर लगाया तो यह अनुचित नही क्योंकि पत्नी पर पति का नियन्त्रण सदैव रहता है |
2. यह कि एक दासत्व स्वीकार करने वाला पुरूष ( जैसे उस क्षण युधिष्ठर थे ) किसी और को दांव पर नही लगा सकता |
इन मुद्दों का कोई निष्कर्ष नही निकला और अंतत: धृतराष्ट्र ने सभी पांडवों और द्रौपदी को उनकी निजी स्वतंत्रता पुन: लौटा दी |
* गुप्त काल के दौरान यह देखने को मिलता है की उच्च वर्ग में सम्पति पर स्त्रियों का अधिकार होता था | जैसे वाकाटक नरेश की मृत्यु उपरांत महिषी प्रभावती गुप्त का राज्य पर शासन था |
मनुस्मृति के अनुसार सम्पति का अर्जन :-
* पुरुषों के लिए सात तरीके : विरासत , खोज , खरीद , विजित करके , निवेश , कार्य द्वारा तथा सज्जनों द्वारा दी गई भेंट को स्वीकार करके |
* स्त्रियों के लिए छः तरीके : वैवाहिक अग्नि के सामने मिले भेंट . वधूगमन के समय मिली भेंट , स्नेह के द्वारा प्रतीक के रूप में , भ्राता , माता और पिता द्वारा दिया गया उपहार , परवर्ती काल में मिली भेंट , अनुरागी पति से प्राप्त उपहार या धन |
एक धनाढ्य शूद्र
यह कहानी पाली भाषा के बौद्व ग्रन्थ मज्झिमनिकाय से है जो एक राजा अवन्ती पुत्र और और बुद्व के अनुयायी कच्चन के बीच हुए सम्वाद का हिस्सा है | यद्यपि यह कहानी अक्षरश: सत्य नही थी तथापि यह बौद्वों के वर्ण सम्बन्धी रवैये को दर्शाती है |
अवन्तिपुत्र ने कच्चन से पूछा कि ब्राह्मणों के इस मत के बारे में उनकी क्या राय है , कि वे सर्वश्रेष्ठ है और अन्य जातियां निम्न कोटि की है ; ब्राह्मण का वर्ण शुभ्र है और अन्य जातियां काली है ; केवल ब्राह्मण पवित्र है अन्य नहीं ; ब्राह्मण ब्राह्मा के पुत्र है , ब्रह्मा के मुख से जन्मे है , उनसे ही रचित है तथा ब्रह्मा के वंशज है |
कच्चन ने उत्तर दिया : " क्या यदि शूद्र धनी होता ............... दूसरा शूद्र ............. अथवा क्षत्रिय या फिर ब्राह्मण अथवा वैश्य .................. उससे विनीत स्वर में बात करता ? "
अवन्तिपुत्र ने प्रत्युतर में कहा कि यदि शूद्र के पास धन अथवा अनाज , स्वर्ण या फिर रजत होती वह दूसरे शूद्र को अपने आज्ञाकारी सेवक के रूप में प्राप्त कर सकता था , जो उससे पहले उठे और उसके बाद विश्राम करे ; जो उसकी आज्ञा का पालन करे , विनीत वचन बोले ; अथवा वह क्षत्रिय , ब्राह्मण या फिर वैश्य को भी आज्ञावाही सेवक बना सकता था |
कच्चन ने पूछा ," यदि ऐसा है , तो क्या फिर यह चारों वर्ण एकदम समान नही है ? "
अवन्तिपुत्र ने यह स्वीकार किया कि इस आधार पर चारों वर्णों में कोई भेद नही है |
नोट:
* इस कहानी से यह ज्ञात होता है कि समाज में सामाजिक प्रतिष्ठा जन्मना वर्णव्यवस्था पर आधरित नही है बल्कि यह सम्पति के आधार पर सामाजिक भेदभाव है |
* ऐसा भी नही है की प्रत्येक जगहों पर एक सी स्थिति थी | तमिल भाषा के संगम साहित्य संग्रह से यह जानकारी मिलती है कि धनी एवं निर्धन के बीच विषमताएं थी , जिन लोगों का संसाधनों पर नियन्त्रण था उनसे यह अपेक्षा की जाती थी कि वे मिल-बाँट कर उसका उपयोग करेंगे |
सामाजिक विषमताओं की व्याख्या : एक सामाजिक अनुबंध
* बौद्वों ने समाज में फैली विषमताओं के सन्दर्भ में एक अलग अवधारणा प्रस्तुत की | साथ ही समाज में फैले अंतरविरोधो को नियंमित करने के लिए जिन संस्थाओं की आवश्यकता की , उस पर भी अपना दृष्टिकोण सामने रखा |
* सुत्तपिटक नामक ग्रन्थ में एक मिथक वर्णित है जो यह बताता है कि प्रारम्भ में मानव पूर्णतया विकसित नही था | वनस्पति जगत भी अविकसित था | सभी जीव शान्ति के एक निर्बाध लोक में रहते थे और प्रकृति से उतना ही ग्रहण करते जितनी एक समय के भोजन की आवश्यकता होती है |
* किन्तु यह व्यवस्था क्रमश: पतनशील हुई | मनुष्य अधिकाधिक लालची , प्रतिहिंसक और कपटी हो गए | इस स्थिति में उन्होंने विचार किया कि: " क्या हम एक ऐसे मनुष्य का चयन करे जो उचित बात पर क्रोधित हो, जिसकी प्रताड़ना की जानी चाहिए उसको उसको प्रताड़ित करें और जिसे निष्कासित किया जाना हो उसे निष्काषित करे ? बदले में हम उसे चावल का अंश देंगे ........................ लोगों द्वारा चुने जाने के कारण उसे " महासम्मत " की उपाधि प्राप्त होगी "
* इससे यह ज्ञात होता है कि राजा का पद लोगों द्वारा चुने जाने पर निर्भर करता था | " कर" वह मूल्य था जो लोग राजा की सेवा के बदले उसे देते थे |
* यह मिथक इस बात को भी दर्शाता है कि आर्थिक और सामाजिक सम्बन्धों को बनाने में मानवीय कर्म का बड़ा हाथ था |
* इससे कुछ और आशय भी है | उदाहरणत: यदि मनुष्य स्वयं एक प्रणाली को बनाए रखने के लिए जिम्मेदार थे तो भविष्य में उसमें परिवर्तन भी ला सकते थे |
साहित्यिक स्रोतों का उपयोग :
* प्राचीन भारतीय इतिहास लिखने में साहित्यिक स्रोतों का उपयोग इतिहासकार को अत्यंत सावधानी के साथ वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाकर करना होता है |
वह जरुरी बाते जो इतिहासकार किसी ग्रन्थ का विश्लेषण करते है |
* ग्रन्थ किस भाषा में लिखा गया - पालि, प्राकृत , तमिल , संस्कृत , अन्य आम भाषा
* इन ग्रन्थों को अध्ययन करने वाले कौन थे |
* क्या ये ग्रन्थ रूचिकर थे |
* ग्रन्थ लिखने की विषयवस्तु क्या थी |
* ग्रन्थों के लेखक/ रचनाकार कौन थे |
* ग्रन्थ की रचना किस काल में रचित की गयी |
महाभारत और साहित्यिक स्रोतों का उपयोग :
* महाभारत की भाषा और विषय वस्तु सरल है |
- भाषा - संस्कृत
- दूसरे ग्रन्थों की अपेक्षा सरल संस्कृत का उपयोग
- महाभारत ग्रन्थ की विषयवस्तु के दो मुख्य शीर्षकों के अंतर्गत रखते है - आख्यान , उपदेशात्मक
* आख्यान - इसमें कहानियों का संग्रह है
* उपदेशात्मक- इस भाग में सामाजिक आचार-विचार के मानदंडो का चित्रण है |
सवाल : क्या महाभारत में , सचमुच में हुए किसी युद्व का स्मरण किया जा रहा था ?
- कुछ विद्वानों ने इस बात की पुष्टि करते है कि हमें युद्व की पुष्टि किसी और साक्ष्य से नही होती !
महाभारत : लेखक और तिथियाँ
* सम्भवत: मूल कथा के रचयिता भाट सारथी थे जिन्हें "सूत " कहा जाता था |
* ये सूत क्षत्रिय योद्वाओं के साथ युद्व क्षेत्र में जाते थे व् उनकी विजय एवं उपलब्धियों को काव्य के रूप में प्रस्तुत करते थे | इन रचनाओं का प्रेषण मौखिक रूप से होता था |
* 200ई. पू. से 200 ई. के बीच ब्राह्मण वर्ग ने महाभारत की कथावस्तु का प्रथम चरण का लेखबद्व किया |
यह वह चरण था जब विष्णु देवता की आराधना प्रभावी हो रही थी , तथा श्रीकृष्ण को विष्णु का रूप बताया गया |
* कालान्तर में लगभग 200-400 ई. के बीच मनुस्मृति से मिलते -जुलते वृहत उपदेशात्मक प्रकरण महाभारत में जोड़ें गए |
* प्राम्भ में सम्भवत: 10000 श्लोकों से भी कम रहा होगा , जो बढ़कर एक लाख श्लोकों वाला हो गया |
* साहित्य परम्परा में इस ग्रन्थ के रचयिता ऋषि वेद व्यास माने जाते है |
महाभारत की सदृश्यता की खोज :
* पुरातत्ववेता बी.बी. लाल ने 1951-52 में मेरठ के हस्तिनापुर नामक गाँव में उत्खनन किया जो महाभारत में कुरुओं की राजधानी का उल्लेख मिलता है | नामों की समानता एक संयोग है !
* यहाँ पांच स्तरों के साक्ष्य मिले है जिनमें दूसरा स्तर ( 12-7 वी सदी ई.पू. ) पर मिलने वाले घरों के के बारे में कहते है " जिस सीमित क्षेत्र का उत्खनन हुआ वहां से आवास गृहों की कोई निश्चित परियोजना नही मिली किन्तु मिट्टी की दीवार और मिट्टी की ईंट अवश्य मिली है | सरकंडे की छाप वाले मिट्टी के पलस्तर की खोज इस बात की और इशारा करती है की कुछ घरों की दीवारें सरकंडों की बनी थी जिन पर मिट्टी का पलस्तर चढ़ा दिया जाता था "|
* तीसरे स्तर ( 6-3 सदी ई.पू. ) के लिए बी.बी. लाल कहते है - " तृतीय काल के घर कच्ची और कुछ पक्की ईंटो के बने हुए थे , इनमें शोषक घट और ईंटो के नाले गंदे पानी के निकास के लिए इस्तेमाल किए जाते थे , तथा वलय- कूपों का इस्तेमाल , कुओं और मल की निकासी वाले गर्तों , दोनों ही रूपों में किया जाता था "|
* एक और उदारहरण - द्रौपदी के पांच पति का उल्लेख है | इस प्रकार की प्रथा हिमालय क्षेत्र में प्रचालन में थी और आज भी है |
समाप्त
यह कहानी पाली भाषा के बौद्व ग्रन्थ मज्झिमनिकाय से है जो एक राजा अवन्ती पुत्र और और बुद्व के अनुयायी कच्चन के बीच हुए सम्वाद का हिस्सा है | यद्यपि यह कहानी अक्षरश: सत्य नही थी तथापि यह बौद्वों के वर्ण सम्बन्धी रवैये को दर्शाती है |
अवन्तिपुत्र ने कच्चन से पूछा कि ब्राह्मणों के इस मत के बारे में उनकी क्या राय है , कि वे सर्वश्रेष्ठ है और अन्य जातियां निम्न कोटि की है ; ब्राह्मण का वर्ण शुभ्र है और अन्य जातियां काली है ; केवल ब्राह्मण पवित्र है अन्य नहीं ; ब्राह्मण ब्राह्मा के पुत्र है , ब्रह्मा के मुख से जन्मे है , उनसे ही रचित है तथा ब्रह्मा के वंशज है |
कच्चन ने उत्तर दिया : " क्या यदि शूद्र धनी होता ............... दूसरा शूद्र ............. अथवा क्षत्रिय या फिर ब्राह्मण अथवा वैश्य .................. उससे विनीत स्वर में बात करता ? "
अवन्तिपुत्र ने प्रत्युतर में कहा कि यदि शूद्र के पास धन अथवा अनाज , स्वर्ण या फिर रजत होती वह दूसरे शूद्र को अपने आज्ञाकारी सेवक के रूप में प्राप्त कर सकता था , जो उससे पहले उठे और उसके बाद विश्राम करे ; जो उसकी आज्ञा का पालन करे , विनीत वचन बोले ; अथवा वह क्षत्रिय , ब्राह्मण या फिर वैश्य को भी आज्ञावाही सेवक बना सकता था |
कच्चन ने पूछा ," यदि ऐसा है , तो क्या फिर यह चारों वर्ण एकदम समान नही है ? "
अवन्तिपुत्र ने यह स्वीकार किया कि इस आधार पर चारों वर्णों में कोई भेद नही है |
नोट:
* इस कहानी से यह ज्ञात होता है कि समाज में सामाजिक प्रतिष्ठा जन्मना वर्णव्यवस्था पर आधरित नही है बल्कि यह सम्पति के आधार पर सामाजिक भेदभाव है |
* ऐसा भी नही है की प्रत्येक जगहों पर एक सी स्थिति थी | तमिल भाषा के संगम साहित्य संग्रह से यह जानकारी मिलती है कि धनी एवं निर्धन के बीच विषमताएं थी , जिन लोगों का संसाधनों पर नियन्त्रण था उनसे यह अपेक्षा की जाती थी कि वे मिल-बाँट कर उसका उपयोग करेंगे |
सामाजिक विषमताओं की व्याख्या : एक सामाजिक अनुबंध
* बौद्वों ने समाज में फैली विषमताओं के सन्दर्भ में एक अलग अवधारणा प्रस्तुत की | साथ ही समाज में फैले अंतरविरोधो को नियंमित करने के लिए जिन संस्थाओं की आवश्यकता की , उस पर भी अपना दृष्टिकोण सामने रखा |
* सुत्तपिटक नामक ग्रन्थ में एक मिथक वर्णित है जो यह बताता है कि प्रारम्भ में मानव पूर्णतया विकसित नही था | वनस्पति जगत भी अविकसित था | सभी जीव शान्ति के एक निर्बाध लोक में रहते थे और प्रकृति से उतना ही ग्रहण करते जितनी एक समय के भोजन की आवश्यकता होती है |
* किन्तु यह व्यवस्था क्रमश: पतनशील हुई | मनुष्य अधिकाधिक लालची , प्रतिहिंसक और कपटी हो गए | इस स्थिति में उन्होंने विचार किया कि: " क्या हम एक ऐसे मनुष्य का चयन करे जो उचित बात पर क्रोधित हो, जिसकी प्रताड़ना की जानी चाहिए उसको उसको प्रताड़ित करें और जिसे निष्कासित किया जाना हो उसे निष्काषित करे ? बदले में हम उसे चावल का अंश देंगे ........................ लोगों द्वारा चुने जाने के कारण उसे " महासम्मत " की उपाधि प्राप्त होगी "
* इससे यह ज्ञात होता है कि राजा का पद लोगों द्वारा चुने जाने पर निर्भर करता था | " कर" वह मूल्य था जो लोग राजा की सेवा के बदले उसे देते थे |
* यह मिथक इस बात को भी दर्शाता है कि आर्थिक और सामाजिक सम्बन्धों को बनाने में मानवीय कर्म का बड़ा हाथ था |
* इससे कुछ और आशय भी है | उदाहरणत: यदि मनुष्य स्वयं एक प्रणाली को बनाए रखने के लिए जिम्मेदार थे तो भविष्य में उसमें परिवर्तन भी ला सकते थे |
साहित्यिक स्रोतों का उपयोग :
* प्राचीन भारतीय इतिहास लिखने में साहित्यिक स्रोतों का उपयोग इतिहासकार को अत्यंत सावधानी के साथ वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाकर करना होता है |
वह जरुरी बाते जो इतिहासकार किसी ग्रन्थ का विश्लेषण करते है |
* ग्रन्थ किस भाषा में लिखा गया - पालि, प्राकृत , तमिल , संस्कृत , अन्य आम भाषा
* इन ग्रन्थों को अध्ययन करने वाले कौन थे |
* क्या ये ग्रन्थ रूचिकर थे |
* ग्रन्थ लिखने की विषयवस्तु क्या थी |
* ग्रन्थों के लेखक/ रचनाकार कौन थे |
* ग्रन्थ की रचना किस काल में रचित की गयी |
महाभारत और साहित्यिक स्रोतों का उपयोग :
* महाभारत की भाषा और विषय वस्तु सरल है |
- भाषा - संस्कृत
- दूसरे ग्रन्थों की अपेक्षा सरल संस्कृत का उपयोग
- महाभारत ग्रन्थ की विषयवस्तु के दो मुख्य शीर्षकों के अंतर्गत रखते है - आख्यान , उपदेशात्मक
* आख्यान - इसमें कहानियों का संग्रह है
* उपदेशात्मक- इस भाग में सामाजिक आचार-विचार के मानदंडो का चित्रण है |
सवाल : क्या महाभारत में , सचमुच में हुए किसी युद्व का स्मरण किया जा रहा था ?
- कुछ विद्वानों ने इस बात की पुष्टि करते है कि हमें युद्व की पुष्टि किसी और साक्ष्य से नही होती !
महाभारत : लेखक और तिथियाँ
* सम्भवत: मूल कथा के रचयिता भाट सारथी थे जिन्हें "सूत " कहा जाता था |
* ये सूत क्षत्रिय योद्वाओं के साथ युद्व क्षेत्र में जाते थे व् उनकी विजय एवं उपलब्धियों को काव्य के रूप में प्रस्तुत करते थे | इन रचनाओं का प्रेषण मौखिक रूप से होता था |
* 200ई. पू. से 200 ई. के बीच ब्राह्मण वर्ग ने महाभारत की कथावस्तु का प्रथम चरण का लेखबद्व किया |
यह वह चरण था जब विष्णु देवता की आराधना प्रभावी हो रही थी , तथा श्रीकृष्ण को विष्णु का रूप बताया गया |
* कालान्तर में लगभग 200-400 ई. के बीच मनुस्मृति से मिलते -जुलते वृहत उपदेशात्मक प्रकरण महाभारत में जोड़ें गए |
* प्राम्भ में सम्भवत: 10000 श्लोकों से भी कम रहा होगा , जो बढ़कर एक लाख श्लोकों वाला हो गया |
* साहित्य परम्परा में इस ग्रन्थ के रचयिता ऋषि वेद व्यास माने जाते है |
महाभारत की सदृश्यता की खोज :
* पुरातत्ववेता बी.बी. लाल ने 1951-52 में मेरठ के हस्तिनापुर नामक गाँव में उत्खनन किया जो महाभारत में कुरुओं की राजधानी का उल्लेख मिलता है | नामों की समानता एक संयोग है !
* यहाँ पांच स्तरों के साक्ष्य मिले है जिनमें दूसरा स्तर ( 12-7 वी सदी ई.पू. ) पर मिलने वाले घरों के के बारे में कहते है " जिस सीमित क्षेत्र का उत्खनन हुआ वहां से आवास गृहों की कोई निश्चित परियोजना नही मिली किन्तु मिट्टी की दीवार और मिट्टी की ईंट अवश्य मिली है | सरकंडे की छाप वाले मिट्टी के पलस्तर की खोज इस बात की और इशारा करती है की कुछ घरों की दीवारें सरकंडों की बनी थी जिन पर मिट्टी का पलस्तर चढ़ा दिया जाता था "|
* तीसरे स्तर ( 6-3 सदी ई.पू. ) के लिए बी.बी. लाल कहते है - " तृतीय काल के घर कच्ची और कुछ पक्की ईंटो के बने हुए थे , इनमें शोषक घट और ईंटो के नाले गंदे पानी के निकास के लिए इस्तेमाल किए जाते थे , तथा वलय- कूपों का इस्तेमाल , कुओं और मल की निकासी वाले गर्तों , दोनों ही रूपों में किया जाता था "|
* एक और उदारहरण - द्रौपदी के पांच पति का उल्लेख है | इस प्रकार की प्रथा हिमालय क्षेत्र में प्रचालन में थी और आज भी है |
हस्तिनापुर महाभारत के आदिपर्वन में इस नगर का चित्रण इस प्रकार मिलता है : यह नगर जो समुद्र की भाति भरा हुआ था , जो सैकड़ों प्रासादों से संकुलित था | इसके सिंहद्वार , तोरण आर कंगूरे सघन बादलों की तरह घुमड़ रहे थे | यह इंद्र की नगरी के समान शोभायमान था | * क्या आपको लगता है की लाल की खोज और महाकाव्य में वर्णित हस्तिनापुर में समानता है | |
समाप्त
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M. PRASAD
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