Themes in Indian History for Class XII
Colonialism and the Countryside
उपनिवेशवाद और देहात (Colonialism and countryside) -सरकारी अभिलेखों का अध्ययन (Study of Official Reports)
परिचय
1. उपनिवेशवाद का अर्थ
2. देहातों में उपनिवेशवाद और उसके प्रभाव
3. औपनिवेशिक राजस्व नीति एवं उसके परिणाम
4. देहात में विद्रोह : बंबई -ढक्कन विद्रोह
प्राचीन काल से ही भारत एक ग्राम प्रधान देश रहा है | इसके बावजूद भारतीय समाज एक उन्नत संस्कृति को प्रतिबिम्बित करता है | ग्रामीण समाज द्वारा उत्पादित अनाज, मसाले और हस्तशिल्प दुनिया के अन्य देशों में निर्यात किया जाता था जिसका प्रमाण वेदेशी यात्रियों के यात्रा-वृतांत से पता चलता है |
अंग्रेजों से पूर्व जितने भी विदेशी आक्रान्ता भारत आये वे यहीं रच-बस गए| उन्होंने भारत को ही अपनी भूमि मानी और जो भी कमाया यहीं खर्च किया | इससे भारतीय ग्रामीण समाज में समृद्वता बनी रही |
1600 ई. में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना हुई | इसका उद्वेश्य व्यापार करना था |आरम्भ में यह कपंनी एक मात्र व्यापारिक कम्पनी थी तथा भारतीय माल का आयात करती थी और यूरोप में बेचती थी | परन्तु देश की राजनीतिक परिस्थितियों को देखते हुए 1757 के प्लासी युद्व और 1764 की बक्सर की युद्व की विजय ने व्यापारिक कंपनी को शासन करनेवाली कम्पनी में परिवर्तित कर दिया | यहीं से ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत को औपनिवेशिक देश के रूप में बदल दिया | इसने देश की राजनीतिक , आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था पर अधिकार कर लिया|
उपनिवेशवाद का अर्थ : किसी समृद्व एवं शक्तिशाली राष्ट्र द्वारा अपने विभिन्न हितों को साधने के लिए किसी निर्बल किन्तु प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण राष्ट्र के विभिन्न संसाधनों का शक्ति के बल पर उपभोग करना|
उपनिवेशवाद में उपनिवेश की जनता शक्तिशाली विदेशी राष्ट्र द्वारा शासित होती है| वस्तुतु: किसी शक्तिशाली राष्ट्र द्वारा निहित स्वार्थवश किसी निर्बल राष्ट्र के शोषण को हम उपनिवेशवाद कहते है |
भारत में उपनिवेशों की स्थापना के कारण :Causes of Establishment of Colony in India)
1. कच्चे माल की प्राप्ति : यूरोपीय देशों मे औद्योगिकीकरण कारण कच्चे माल की आवश्यकता को पूरा करने के लिए प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण भारत में उपनिवेश की स्थापना की |
2. निर्मित माल की खपत : यूरोपीय देशों में उत्पादित माल की खपत के लिए एक बड़े बाजार की जरुरत थे जिसकी लिए उपनिवेशों की स्थापना की गयी |
3. ईसाई धर्म का प्रचार : उपनिवेशों की स्थापना के साथ-साथ ईसाई धर्म की प्रचार करना तथा गैर-ईसाई लोगों को ईसाई बनाना अपना लक्ष्य समझते थे |
4. अमीर देश बनने की लालसा : विभिन्न देशों से आये यात्रियों ने भारत की समृद्वता और वैभव का गुणगान किया , जिससे प्रेरित होकर यूरोपीय भारत में धन और वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए आये |
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भारतीय ग्रामीण समाज पर उपनिवेशवाद का प्रभाव : (Impact of Colonialism of Indian Rural Society)
1. कुटीर उद्योगों का विनाश : यूरोपीय देशों ने भारतीयों की समृद्वता का आधार कुटीर उद्योग को समाप्त क्र दिया | जिन समानों का भारत निर्यात करता था , उन समानों का भारत आयात करने करने लगा |
2. अंग्रेजों द्वारा स्थापित भूमि प्रबंध की त्रुटियाँ : अंग्रेजों ने पूरे भारत के भिन्न भिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग प्रकार के भूमि प्रबंधन किया | परन्तु ये व्यवस्था कारगर सिद्व नहीं हुआ और किसान ऋणग्रस्त होते गए |
3. राजस्व संग्रह करने के कठोर तरीके : अंग्रेजों ने किसानों से लगान वसूली में कीसी भी प्रकार का ढील नहीं देती थी | फसल की बर्बादी या अकाल पड़ने पर लगान वसूला जाता था | परिणामस्वरूप किसान अपने खेत साहूकारों के पास गिरवी रखता था | बाद में साहूकारों का कर्ज नहीं चुका पाने के कारण भूमि से हाथ धोना पड़ता |
1. बंगाल और वहां के जमींदार :
भारत में औपनिवेशिक शासन सर्वप्रथम बंगाल में स्थापित किया गया था | सबसे पहले बंगाल प्रान्त में ही ग्रामीण समाज को पुनर्व्यवस्थित करने और भूमि सम्बन्धी अधिकारों की नयी व्यवस्था तथा एक नयी राजस्व प्रणाली स्थापित करने के प्रयत्न किये गए थे |
जमींदार (Zamindar):
"जमींदार " वास्तव में राजस्व एकत्रित करने वाला अधिकारी होता था जिसके अधीन वृहत इलाका या क्षेत्र अथवा पूरा जिला होता था| ये अपनी सेनाएं रखते थे, इन्हें "राजा " भी कहा जाता था|
खेती किसानों द्वारा की जाती थी| ये किसान राजस्व की निर्धारित दर के अनुसार कर जमींदार को देते थे| कुछ शोषक जमींदार भू-राजस्व की निर्धारित दर के अतिरिक्त कर लेते थे जिसे " अबवाव " कहते थे| लेकिन अंग्रेजों ने 1790 के दशक में पुरानी व्यवस्था को समाप्त कर दिया और भू-राजस्व की नयी प्रणाली अपनाई |
इस्तमरारी बंदोबस्त या स्थायी बंदोबस्त (Istmarari Bandobast/Permanent settlement):
ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल में 1793 में इस्तमरारी बंदोबस्त लागू किया | इस व्यवस्था के अंतर्गत कंपनी द्वारा निश्चित की गई राशि को प्रत्यके जमींदार द्वारा रैयतों से संग्रह कर जमा करनी पड़ती थी|
गाँव से राजस्व संग्रह करने का कार्य जमींदार द्वारा नियुक्त अधिकारी "अमला " किया करता था|
यदि जमींदार राजस्व की निश्चित राशि चुकाने में असफल होता तो निश्चित की गई तारीख को सूर्यास्त विधि (सूर्य अस्त होने से पूर्व निश्चित राशि का भुगतान करना अनिवार्य होता था) के तहत राजस्व के बदले उनकी सम्पति को नीलाम कर दिया जाता था और ऊँची बोली लगाने वाले खरीददार को बेच दी जाती थी| यह बंदोबस्त "लार्ड कार्नवालिस " ने लागू किया था|
Lord Corniwallis
इस्तमरारी बंदोबस्त लागू करने के उद्वेश्य : (Aim to Introduce the Permanent Settlement)
क) इस बंदोबस्त लागू होने से कम्पनी को निश्चित राजस्व प्राप्त हो सकेगा|
ख) ऐसा माना गया कि इस बंदोबस्त से कृषि में निवेश होगा तथा कम्पनी को ससमय राजस्व प्राप्त होगा जिससे उसे भविष्य की योजनाएं बनाने में लाभ होगा |
ग) कृषकों और जमींदारों का एक ऐसा समूह पैदा होगा जो ब्रिटिश कंपनी का वफादार वर्ग साबित होगा |जिसके पास कृषि में सुधार करने के लिए पूंजी और उद्यम दोनों होंगे |
कम्पनी ने बंगाल के राजाओं और तालुक्क्दारों के सतत इस्तमरारी बंदोबस्त लागू किया गया |अब उन्हें जमींदार के रूप में वर्गीकृत किया गया और उन्हें सदा के लिए एक निर्धारित राजस्व मांग को अदाकरना था | जमींदार एक तरह से भू-स्वामी नहीं था , बल्कि वह राज्य का राजस्व समाहर्ता मात्र था|
जमींदार के नीचे अनेक (कभी-कभी 400 तक ) गाँव होते थे| कम्पनी , एक जमींदार के अंतर्गत आने वाले भ-क्षेत्र की उपज का राजस्व निर्धारित करता था | तत्पश्चात जमींदार से यह आशा की जाती थी कि वह अलग-अलग गावों में निर्धारित राशि के आधार पर अमला द्वारा राजस्व कम्पनी को निर्धारित तिथि पर जमा कर दिया जाता था | यदि जमींदार ऐसा नहीं करेगा वो उसकी संपदा नीलाम की जा सकेगी |
इस्तमरारी बंदोबस्त में जमीदारों की असफलता (Failure of Zamindar in Istmarari Bandobast)- राजस्व राशि के भुगतान में जमींदार क्यों चूक करते थे ?
कम्पनी के अधिकारियों का यह सोचना था कि राजस्व मांग निर्धारित किए जाने से जमींदारों में सुरक्षा का भाव उत्पन्न होगा, और वे अपने निवेश पर प्रतिफल प्राप्ति की आशा से प्रेरित हकर अपनी संपदाओं में सुधार करने के लिए प्रोत्साहित होंगे| किन्तु इस्तमरारी बंदोबस्त के बाद, कुछ प्रारंभिक दशकों में जमींदार अपनी राजस्व मांग को अदा करने में बराबर कोताही करते रहे, जिसके परिणामस्वरूप राजस्व की बकाया रकमें बढ़ती गई |
जमीदारों की इस असफलता के कई कारण थे :
1. राजस्व में निर्धारित की गई राशि बहुत अधिक थी क्योंकि खेती का विस्तार होने से आय में वृद्वि हो जाने पर भी कम्पनी उस वृद्वि में अपने हिस्से का दावा कभी नहीं कर सकती थी|
2. यह ऊँची मांग 1790 के दशक में लागू की गई थी जब कृषि की उपज की कीमतें नीची थी, जिससे रैयत (किसानों) के लिए, जमींदार को उनकी डे राशियाँ चुकाना मुश्किल था|
3. राजस्व असमान था, फसल अच्छी हो या खराब राजस्व का ठीक समय पर भुगतान करना जरुरी था |वस्तुत: सूर्यास्त विधि के अनुसार, यदि निश्चित तारीख को सूर्य अस्त होने तक भुगतान नहीं होता था तो जमींदारी नीलाम किया जा सकता था|
4. इस्तमरारी बंदोबस्त ने प्रारंभ में जमींदार की शक्ति को रैयत से राजस्व इक्कठा करने और अपनी जमींदारी का प्रबंध करने तक ही सीमित कर दिया था|
* "राजा" शब्द का प्रयोग अक्सर शक्तिशाली जमींदारों के लिए किया जाता था |
* "ताल्लुकदार" का शाब्दिक अर्थ है वह व्यक्ति जिसके साथ ताल्लुक यानी सम्बन्ध हो | आगे चलकर ताल्लुक का अर्थ क्षेत्रीय इकाई हो गया |
* "रैयत " शब्द का प्रयोग अंग्रेजों के विवरणों में किसानों के लिए किया जाता था| बंगाल में रैयत जमीन को खुद काश्त नही करते थे , बल्कि "शिकमी -रैयत " को आगे पट्टे पर दिया करते थे |
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जमींदार द्वारा इस्तमरारी बंदोबस्त का विरोध
कंपनी द्वारा राजस्व की ऊँची मांग तथा भूमि की नीलामी से बचने के लिए जमीदारों द्वारा कुछ विशेष रणनीति अपनाई गई जो कंपनी के लिए कुछ हद तक हानिकारक सिद्व हुई | जमींदारों ने फर्जी बिक्री को इस समस्या के निदान हेतु अपनाया जिसे हम वर्द्वमान के राजा के उदाहरण से समझते है|
1793 में इस्तमरारी बंदोबस्त लागू हो गया| ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने राजस्व की राशि निश्चित कर दी थी जो प्रत्येक जमींदार को अदा करनी होती थी| जो जमींदार निश्चित राशि नहीं चूका पाते थे उनसे राजस्व वसूल करने के लिए उनकी संपदाएं नीलाम कर दी जाती थी| चूँकि वर्द्ववान के राजा पर राजस्व की बड़ी भारी रकम बकाया थी, इसलिए उसकी सम्पदाएँ नीलाम की जाने वाली थी|
कम्पनी के नियम के अनुसार स्त्रियों से सम्पति नही ली जाती थी| वर्द्वामान के राजा ने पहले तो अपनी जमींदारी का कुछ हिस्सा अपनी माता को दे दिया| फिर दूसरे कदम के तौर पर उसके एजेंटो ने नीलामी की प्रक्रिया में जोड़-तोड़ किया| जमींदार के एजेंटों ने ऊंची बोली लगाकर जमीनें खरीद ली और बाद में कंपनी के अधिकारियों को राशि देने से इनकार कर दिया| विवश होकर अधिकारियों ने पुनः नीलामी की प्रक्रिया प्रारंभ की और जमींदार के आदमियों ने पुनः उपर्युक्त प्रक्रिया की पुनरावृति की | अंततः जब बोली लगाने वाले थक गए तो उस भूमि को कम कीमत पर वर्धमान के जमींदार को ही बेचनी पड़ी|
इस प्रकार 1793 से 1801 के बीच बंगाल की 4 बड़ी जमींदारियों ने, जिनमें वर्धमान की जमींदारी भी एक थी, अनेक बेनामी खरीदारियां की जिनसे कुल मिलाकर 30 लाख रूपए की प्राप्ति हुई | नीलामियों में की गई कुल बिक्रीओं में से 15% सौदे नकली थे|
यदि कोई बाहरी खरीददार जमींदारों की जमीन खरीद लेता था तो जमींदार के लठीयाल उन्हें मारपीट कर भगा देते थे या फिर पुराने रैयत नए जमीन के मालिकों को खेत में आने नहीं देते थे क्योंकि वे पुराने जमींदार को अपना अन्नदाता समझ कर उनके प्रति वफादार रहते थे | इस प्रकार राजाओं की जमीनें बेची तो गई लेकिन नियंत्रण उन्हीं का बना रहा| परन्तु 1930 के दशक की घोर मंदी की हालत में अंतत: जमींदारों का भट्ठा बैठ गया और जोतदारों ने देहात में अपने पाँव मजबूत कर लिए |
जोतदारों का उदय
18वीं शताब्दी के अंत में जहाँ एक ओर अनेक जमींदार संकट की स्थिति से गुजर रहे थे , वही जोतदार अपनी स्थिति मजबूत कर ली| फ्रांसीसी बुकानन के उत्तरी बंगाल के दिनाजपुर जिले के सर्वेक्षण में हमें धनी किसानों के इस वर्ग का, जिन्हें "जोतदार" कहा जाता था, विशद विवरण देखने को मिलता है |
19वीं सदी के प्रारम्भिक वर्षो में जोतदार ने जमीन के बड़े-बड़े रकबे हासिल कर लिए थे| स्थानीय व्यापार और साहूकार के कारोबार पर भी उनका नियंत्रण था | उनकी जमीन का बड़ा भाग बटाईदारों के माध्यम से जोता जाता था, जो खुद अपने हल लाते थे, खेत में मेहनत करते थे और फसल के बाद उपज का आधा हिस्सा जोतदारों के दे देते थे|
जोतदार गाँव में ही निवास करते थे और जमींदार की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली थे| गरीब ग्रामवासियों के बड़े वर्ग पर सीधे इनका नियंत्रण था| जमींदारों द्वारा गाँव की लगान को बढाने के लिए किये जाने प्रयत्नों का वे घोर विरोध करते थे तथा गाँव की रैयत को अपने पक्ष में एकजुट रखते थे और जमींदार को राजस्व के भुगतान में जान-बुझकर देरी करा देते थे| इस कारण जमींदार तय समय पर निश्चित राजस्व जमा नही कर पाते थे तो नीलामी के समय बेची जाने वाली जमीनों को अधिकतर ये ही "जोतदार " खरीद लेते थे|
उत्तरी बंगाल में जोतदार सबसे अधिक शक्तिशाली थे, हालांकि धनी किसान और गाँव के मुखिया लोग भी बंगाल के अन्य भागों के देहाती इलाकों में प्रभावशाली बनकर उभर रहे थे| कुछ जगह पर उन्हें "हवलदार" कहा जाता था और कुछ अन्य स्थानों पर वे "गांटीदार " या "मंडल" कहलाते थे |
पांचवीं रिपोर्ट :
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Policies of Revenue System- राजस्व की नीतियाँ
ब्रिटिश भारत ने औपनिवेशिक शासन के तहत भू-राजस्व की तीन नीतियाँ अलग-अलग प्रान्तों में स्थापित की थी|
1. इजारेदारी व्यवस्था :सर्वप्रथम वारेन हेस्टिंग्स ने बंगाल में 1772 में "इजारेदारी व्यवस्था " की प्रथा की शुरुआत की| यह एक पंचवर्षीय व्यवस्था थी, जिसमें सबसे ऊँची बोली लगाने वाले की भूमि ठेके पर दी जाती थी|
2. स्थायी बन्दोबस्त : यह बंदोबस्ती 1793 में लार्ड कार्नवालिस ने बंगाल, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश तथा बनारस खंड के 19% भाग , उत्तरी कर्नाटक में लागू किया गया |
3. रैयतवाडी बंदोबस्त : यह व्यवस्था 1820 में तत्कालीन मद्रास के गवर्नर लार्ड मुनरो ने बंबई, असम तथा मद्रास के अन्य प्रान्तों में लागू की गई | इसके अंतर्गत औपनिवेशिक भारत के 51% भूमि थी |
4. महालवाडी बंदोबस्त : लार्ड हेस्टिंग ने यह व्यवस्था उतर प्रदेश, मध्य प्रांत तथा पंजाब में लागू की | इस व्यवस्था के अंतर्गत औपनिवेशिक भूमि का 30% था |
स्थायी बंदोबस्त की विशेषताएं (Features of Permanent Settlement):
1. सरकार ने जमींदारों से सिविल और दीवानी संबंधित मामले वापस ले लिए
2. जमींदारों को लगान वसूली के साथ-साथ भूमि स्वामी के अधिकार भी प्राप्त हुए
3. सरकार को दिए जाने वाले लगान की राशि को निश्चित कर दिया गया जिसे अब बढ़ाया नहीं जा सकता था.
4. जमींदारों द्वारा किसानों से एकत्र किए हुए भूमि कर का 10/11 भाग सरकार को देना पड़ता था । शेष 1/11 भाग अपने पास रख सकते थे ।
5. सरकार द्वारा निश्चित भूमि कर की अदायगी में जमींदारों की असमर्थता होने पर सरकार द्वारा उसकी भूमि का कुछ भाग बेचकर यह राशि वसूल की जाती थी ।
स्थायी बन्दोबस्त के लाभ ( Merits of Permanent Settlement )
1. स्थाई बंदोबस्त होने से सरकार की आय निश्चित हो गयी।
2. बार-बार बंदोबस्त करने की परेशानी से सरकार को छुटकारा मिल गया।
3. स्थाई बंदोबस्त के होने से जमींदारों को लाभ हुआ । वह सरकार के स्वामी भक्त बन गए ।
4. स्थाई बंदोबस्त हो जाने से सरकारी कर्मचारी तथा अधिकारी अधिक समय मिलने के कारण लोक कल्याण के कार्य कर सकते थे ।
5. सरकार को निश्चित राशि मिलने से अन्य योजनाओं को बनाने में सहूलियत हुई ।
स्थायी बंदोबस्त के दोष ( Demerits of Permanent Settlement )
1. भूमि कर की राशि बहुत अधिक निश्चित की गई थी जिसे ना चुका सकने पर जमींदारों की भूमि बेचकर यह राशि वसूल की गई |
2. स्थाई बंदोबस्त किसानों के हित को ध्यान में रखकर नहीं किया गया था|
3. सरकार ने कृषि सुधार हेतु कोई ध्यान नहीं दिया|
4. स्थाई बंदोबस्त ने जमींदारों को आलसी और विलासी बना दिया|
5. बंगाल में जमींदारों और किसानों में आपसी विरोध बढ़ने लगा था|
6. जमींदार खुद शहर में जाकर बस गए और उसके प्रतिनिधियों ने किसानों पर अत्याचार किया|
रैयतवाडी बंदोबस्त (Raiyatwari System)
यह व्यवस्था 1820 में तत्कालीन मद्रास के गवर्नर लार्ड मुनरो ने मद्रास प्रांत में लागू की | इसके अंतर्गत औपनिवेशिक भारत के 51% भूमि थी | इसे बंबई और असम में भी लागू किया गया |
रैयतवाडी बन्दोबस्त की विशेषताएं :
1. इस व्यवस्था के तहत कंपनी तथा रैयतों (किसानों) के बीच सीधा समझौता था|
2. राजस्व के निर्धारण तथा लगान वसूली में किसी जमींदार या बिचौलिए की भूमिका नहीं होती थी |
3. टामस मुनरो ने प्रत्येक पंजीकृत किसानों को भूमि का स्वामी माना गया | 4. रैयत राजस्व सीधे कंपनी को देगा और उसे अपनी भूमि के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता था|
5. यदि किसान लगान न देने की स्थिति में उसे भूमि देनी पड़ती थी ।
6. यह व्यवस्था भी किसानों के लिए ज्यादा कारगर सिद्ध नहीं हुई और कंपनी के अधिकारी रैयतों पर अत्याचार करते रहे|
7. मद्रास यातना आयोग ने 1854 में इन अत्याचारों का विवरण दिया था|
रैयत वाडी बन्दोबस्त का प्रभाव :(Impact of Raiyatwari System in Madras)
यह व्यवस्था कृषकों के लिए हानिकारक सिद्व हुई | कृषक गरीब तथा भूमिहीन हुए तथा ऋणग्रस्तता के शिकार हो गये| किसान कम्पनी के अधिकारियों और साहूकारों के शोषण से तंग आ गये थे | जिसके परिणामस्वरूप कृषकों ने 1875 में ढक्कन विद्रोह कर दिया|
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महालवाडी बंदोबस्त ( Mahalwari System):
- स्थायी बंदोबस्त तथा रैय्यतवाड़ी व्यवस्था के बाद ब्रिटिश भारत में लागू कि जाने वाली यह भू-राजस्व की अगली व्यवस्था थी जो संपूर्ण भारत के 30 % भाग दक्कन के जिलों, मध्य प्रांत पंजाब तथा उत्तर प्रदेश (संयुक्त प्रांत) आगरा, अवध पर लागू थी।
- इस व्यवस्था के अंतर्गत भू-राजस्व का निर्धारण समूचे ग्राम के उत्पादन के आधार पर किया जाता था तथा महाल के समस्त कृषक भू-स्वामियों के भू-राजस्व का निर्धारण संयुक्त रूप से किया जाता था। इसमें गाँव के लोग अपने मुखिया या प्रतिनिधियों के द्वारा एक निर्धारित समय-सीमा के अंदर लगान की अदायगी की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेते थे।
- इस पद्धति के अंतर्गत लगान का निर्धारण अनुमान पर आधारित था और इसकी विसंगतियों का लाभ उठाकर कंपनी के अधिकारी अपनी स्वार्थ सिद्धि में लग गए तथा कंपनी को लगान वसूली पर लगान से अधिक खर्च करना पड़ा। परिणामस्वरूप, यह व्यवस्था बुरी तरह विफल रही।
Policies of Revenue System- राजस्व की नीतियाँ
राजमहल की पहाड़ियां और वहां से जुडी जनजातियाँ (RajMahal Hills and related Tribes ):
राजमहल की पहाड़ियां झारखंड के साहिबगंज और दुमका जिलों में अवस्थित है| तत्कालीन समय में ये स्थान अत्यंत विशाल तथा भयावह है | इस इलाकों में बहुत ही कम लोग आते है | घने जंगलों से घिरा इस पहाड़ियों में सिर्फ पहाड़िया (अनुसूचित जनजाति समुदाय ) ही आने-जाने की हिम्मत कर सकते है| यह समुदाय अत्यंत गरीबी तथा दयनीय हालत में रहते थे |
पहाड़िया समुदाय के लोग कौन थे? कहां रहते थे? इस प्रश्न का हल जानने के लिए एक अंग्रेज चिकित्सक फ्रांसीसी बुकानन ने सरकार की और से इस क्षेत्र का दुरा किया तथा यहाँ के लोगों के क्रिया-कलापों को अपने डायरी में लिखा|
जब बुकानन इस क्षेत्र का दौरे पर गया तो उसने यहाँ के लोगों की दयनीय स्थिति देखी| वहां के लोगों से मिला लेकिन उसने पाया कि वे लोग अंग्रेज अधिकारियों के प्रति शंकित दृष्टिकोण रखते थे| बुकानन द्वारा लिखे गए विवरण क्षणिक घटना को ही प्रस्तुतु करते है |
राजमहल की पहाड़ियों के लोग (People of the RajMahal Hills):
राजमहल की पहाड़ियों के आस-पास रहने के कारण इन्हें पहाड़िया कहा जाता था| ये जंगल में अपना जीवन व्यतीत करते थे| इनका रहन-सहन , रीति-रिवाज अन्य समुदाओं से भिन्न था|
झूम की खेती:
राजमहल के पहाड़िया लोग जंगल के छोटे-से-हिस्से में झाड़ियों को काटकर और घास-फूंस को जलाकर जमीन साफ कर लेते थे और राख की पोटाश से उपजाऊ बनी जमीन पर अपने खाने के लिए दालें और ज्वर-बाजरा उगा लेते थे| वे अपने कुदाल से खेती करते थे और फिर उसे कुछ वर्षों के लिए पार्टी छोड़ कर नए इलाके में चले जाते जिससे कि उस जमीन में खोई हुई उर्वरता फिर से उत्पन्न हो जाती थी|
पहाड़िया समुदाय जीवन शैली :
उन जंगलों से पहाड़िया लोग खाने के लिए महुआ के फूल इकट्ठे करते थे, बेचने के लिए रेशम के कोया और राल और काठकोयला बनाने के लिए लकडियाँ इकट्ठी करते थे| पेड़ों के नीचे जो छोटे-छोटे पौधे उग आते थे या परती जमीन पर जो घास-फूंस के हरी चादर सी बिछ जाती थी वह पशुओं के लिए चरागाह बन जाती थी|
पहाड़िया लोग जंगल से घनिष्ठ रूप से जुडी हुई थी| इमली के पेंड के नीचे बनी झोपड़ियों में रहते थे और ऍम के पेंड के छांह में आराम करते थे| पूरे प्रदेश को अपनी निजी भूमि मानते थे| वे बाहरी लोगों के प्रवेश का प्रतिरोध करते थे| उनके मुखिया लोग अपने समूह में एकता बनाए रखते थे|आपसी लड़ाई-झगड़ें निपटा देते थे|
पहाड़िया और बाहरी लोगों का हस्तक्षेप :
पहाडिया लोग बराबर मैदानी इलाकों पर आक्रमण करते थे जहां लोग स्थायी रूप से खेती-बड़ी करते थे| ये आक्रमण खासकर अभाव व् अकाल के वर्षों में ज्यादा होता था| इन लोगों के आक्रमण से बचने के लिए जमींदारों और व्यपारियों को क्रमश: खराज और पथकर देना पड़ता था| परन्तु 18वीं शताब्दी के अंतिम दशकों में अंग्रेजों ने जंगलों की कटाई-सफाई के काम को प्रोत्साहित किया ताकि निर्यात के लिए फसल पैदा की जा सके|
बाहरी लोग वनवासियों को असभ्य, बर्बर, उपद्रवी और क्रूर समझते थे| इसलिए उन्होंने महसूस किया कि जंगलों को सफाया करके, वहां स्थायी कृषि स्थापित करनी होगी और जंगली लोगों को पालतू व सभी बनाना होगा ; शिकार का काम छुड़वाना होगा औअर खेती का धंधा अपनाने के लिए उन्हें राजी करना होगा |
1770 के दशक में ब्रिटिश अधिकारियों ने पहाड़ियों को निर्मूल करने की नीति अपनाई| 1780 के दशक में भागलपुर के कलेक्टर आगस्टस क्लीवलैंड ने पहाडिया मुखियाओं को एक वर्षिक वेतन भत्ता का प्रस्ताव रखा तथा इसके बदले उसे अपने आदमियों को अनुशासन में रखना था| परन्तु कुछ ही मुखिया इसके प्रस्ताव के लिए तैयार हुआ| ऐसे में अंगरेजी सरकार ने बल प्रयोग करना ही उचित समझा| पहाड़िया सैन्य बलों से बचने और बाहरी लोगों से लड़ाई चालू रखने के लिए पहाडी के भीतरी भागों में चले गये|
राजमहल क्षेत्र में संथालों का प्रवेश :
1780 के दशक के दौरान संथाल लोग वहां के जंगलों का सफाया करते हुए , लकड़ी को काटते हुए, जमीन जोतते हुए और चावल तथा कपास उगाते हुए उस इलाके में बड़ी संख्या में घुसे चले आ रहे थे| इसलिए पहाड़ियों को राजमहल के पहाड़ियों में और भीतर की ओर पीछे हटना पडा| पहाड़िया कुदाल का और संथाली हल का प्रयोग करते थे| ये दोनों की बीच शत्रुता लम्बे समय तक चलती रही |
संथाल : अगुआ बाशिंदे
1810 ई. के अंत में बुकानन ने राजमहल का दौरा किया| वह गुन्जुरिया पहाड़ ,राजमहल का एक भाग था , गुन्जरिया गाँव पहुँचा| उसने देखा कि आस-पास की जमीन खेती के लिए साफ़ की गई थी | उसने अनुभव किया कि "मानव श्रम के समुचित प्रयोग से " इस इलाके को समृद्व क्षेत्र में बदला जा सकता है| बुकानन ने तम्बाकू और सरसों की फसल देख कर मोहित हो चूका था| पूछने पर उसे पता चला कि संथालों ने कृषि क्षेत्र की सीमाएं काफी बढ़ा ली थी| वे इस इलाके में 1800 के आस-पास आए और पहाडी लोगों को भगाकर तथा जंगलों को साफ़ कर बस गए |
संथालियों का राजमहल क्षेत्रों में आगमन :
संथाली 1780 के दशक के आस-पास बंगाल में आने लगे थे| जमींदार लोग खेती के लिए नई भूमि तैयार करने के लिए और खेती का विस्तार करने के लिए उन्हें भाड़े पर रखते थे और ब्रिटिश अधिकारीयों ने जंगल महालों में बसने का निमंत्रण दिया|
संथालों को जमीने देकर राजमहल की तलहटी में बसने के लिए तैयार कर लिया | 1832 तक, जमीन के एक काफी बड़े इलाके को "दामिन-इ-कोह" के रूप में सीमांकित कर दिया गया| इसे संथालों की भूमि घोषित कर दिया|
संथालों के लिए शर्तें :
1. संथालों को भूमि के कम-से-कम दसवें भाग को साफ़ करके पहले 10 वर्षों के भीतर जोतना था|
2. सीमांकित इलाके के भीतर रहना था
3. हल चलाकर खेती करनी थी
4. स्थायी किसान बनना था|
"दामिन -इ-कोह"के सीमांकन के बाद संथालों की बस्तियां बड़ी तेजी से बढ़ी| संथालों के गाँव की संख्या जो 1838 में 40 थी, 1851 में बढकर 1473 हो गयी| इस अवधि में संथालों की जनसंख्या जो केवल 3000 थी, बढकर 82000 से भी अधिक हो गई|
संथाली खानाबदोश जीवन को छोड़कर एक जगह स्थायी रूप से बस गए और बाजार के लिए कई तरह के वाणिज्यिक फसलों की खेती करने लगे थे और व्यपारियों तथा साहूकारों के साथ लेन- देन करने लगे थे | परन्तु संथालों ने जिस भूमि को साफ़ करके खेती शुरू की थी उस पर सरकार ने भारी कर लगा रखे थे और कर्ज की अदायगी नहीं करने पर जमीन पर कब्जा कर रहे थे|
पहाड़िया समुदाय की स्थिति :
आरम्भ में पहाड़िया समुदाय संथालों का प्रतिरोध किया पर अन्तोगत्वा वे इन पहाड़ियों के भीतर चले जाने के लिए मजबूर कर दिए गए| चट्टानी और बंजर भूमि तथा शुष्क इलाका होने से पहाड़िया समुदाय के जीवन पर बुरा प्रभाव पडा| वे गरीब हो गए| झूम की खेती करना मुश्किल हो गया |उनके लिए शिकार करना भी समस्या हो गया |
संथाल विद्रोह (Santhaal Revolt):
कारण :
1. संथाली औपनिवेशिक शासन तथा राजस्व के बढने से तंग आ चुके थे|
2. संथालियों को जमींदारों और साहूकारों द्वारा शोषण किया जा रहा था|
3. कर्ज के लिए उनसे 50 से 500 प्रतिशत तक सूद लिया जाता था|
4. हाट और बाजार में उनका सामान कम तौला जाता था|
5. धनाढ्य लोग अपने जानवरों को इन लोगों के खेतों में चरने के लिए छोड़ दिया जाता था|
विद्रोह की गतिविधियाँ :
1. यह विद्रोह 1855-1856 में प्रारम्भ हुआ था|
2. इस विद्रोह का नेतृत्व सिद्वू तथा कान्हू ने किया था|
3. संथालों ने जमीन्दारों तथा महाजनों के घरों को लूटा, खाद्यान को छीना|
4. संथालियों ने अस्त्र-शस्त्र, तीर-कमान , भाला, कुल्हाड़ी आदि लेकर एकत्रित हुए और अपनी तीन मांग प्रस्तुत किये|
1. उनका शोषण बंद किया जाए
2. उनकी जमीने वापस की जाएँ |
3. उनको स्वतंत्र जीवन जीने दिया जाए|
विद्रोह का दमन :
अंग्रेजों ने आधुनिक हथियारों के बल पर संथाल विद्रोह का दमन कर दिया गया| कई संथाल योद्वा वीरगति को प्राप्त हुए | इस विद्रोह के पश्चात् संथालों को संतुष्ट करने के लिए अंग्रेज अधिकारियों ने कुछ विशेष क़ानून लागू किये | संथाल परगने का निर्माण किया गया , जिसके लिए 5,500 वर्ग मील का क्षेत्र भागलपुर और बीरभूम जिलों में से लिया गया|
Colonialism and the Countryside (उपनिवेशवाद और देहात)
(Historical Account of Bukanan )-
परिचय
1. उपनिवेशवाद का अर्थ
2. देहातों में उपनिवेशवाद और उसके प्रभाव
3. औपनिवेशिक राजस्व नीति एवं उसके परिणाम
4. देहात में विद्रोह : बंबई -ढक्कन विद्रोह
Bombay Deccan revolt-1875)
औपनिवेशिक बंगाल के किसानों और जमींदारों और राजमहल के पहाड़ियों और संथालों के जीवन का दृष्ट्पात करने के बाद आइये पश्चिम भारत के बंबई और ढक्कन के देहाती क्षेत्रों दृष्टि डालते है |
बंगाल और बम्बई ढक्कन के देहाती क्षेत्रों में किसान विद्रोह का आकलन करें तो समस्त विद्रोहों के विषय में कुछ विशिष्ट अभिलेखीय साक्ष्य मिलते है जिनसे यह ज्ञात होता है कि अधिकारी न सिर्फ विद्रोह दबाने का प्रयत्न करते है बल्कि उसकी जांच के लिए आयोग की नियुक्ति करके मूल्यांकन द्वारा कुछ सुधार तथा परिवर्तन लागू करते है|
19वीं सदी के दौरान , भारत के विभिन्न प्रान्तों के किसानों ने साहूकारों और अनाज के व्यापारियों के विरूद्व अनेक विद्रोह किए| ऐसा ही एक ढक्कन में 1875 में विद्रोह हुआ|
ढक्कन विद्रोह (Deccan Revolt)
यह आन्दोलन पूना (आधुनिक पुणे) जिले के एक बड़े गाँव सूपा में शूरो हुआ| सूपा एक विपन्न केंद्र था जहां अनेक व्यापारी और साहूकार रहते थे| 12 मई 1875 को, आसपास के ग्रामीण इलाकों के रैयत इकट्ठे हो गए , उन्होंने साहूकारों से उनके बही-खातों और ऋणबंधों की मांग करते हुए उन पर हमला बोल दिया| उन्होंने उनके बही-खाते जला दिए, अनाज की दुकानें लूट लीं और कुछ मामलों में तो साहूकारों के घरों को भी आग लगा दी|
पूना से यह विद्रोह अहमदनगर में फ़ैल गया| फिर अगले दो महीनों में यहाँ और भी आग फ़ैल गई और 6500 वर्ग किलोमीटर का इलाका इनकी चपेट में आ गया | तीस से अधिक गाँव कुप्रभावित हुए | सब जगह विद्रोह का स्वरूप एकसमान ही था |
1. साहूकारों पर हमला किया गया
2. बही-खाते जला दिए गए
3. ऋणबन्ध नष्ट कर दिए गए
4. गोदामों में रखे अनाज लूट लिए गए
विद्रोह का दमन :
1. विद्रोही किसानों के गाँवों में पुलिस थाणे स्थापित किये गए
2. विद्रोह को काबू करने के लिए सेनाएं बुला ली गयी
3. 95 लोगों को गिरफ्तार किया गया और बहुतों को दण्डित किया गया
ढक्कन दंगा आयोग की कलम से
16 मई 1875 को, पूना के जिला मजिस्ट्रेट ने पुलिस आयुक्त को लिखा :
शनिवार दिनांक 15 मई को सूपा आने पर मुझे इस उपद्रव का पता चला | एक साहूकार का घर पूरी तरह से जला दिया गया ; लगभग एक दर्जन मकानों को तोड़ दिया गया औअर उनमें घुसकर वहां के सारे सामान को आग लगा दी गई| खाते पात्र, बांड, अनाज, देहाती कपड़ा , सड़कों पर लाकर जला दिया गया, जहां राख के ढेर अब भी देखे जा सकते है |
मुख्य कांस्टेबल ने 50 लोगों को गिरफ्तार किया | लगभग 2000 रू का चोरी का माल छुड़ा लिया गया| अनुमानत: 25000 रो से अधिक की हानि हुई | साहूकारों का दावा है कि एक लाख रू से ज्यादा का नुकसान हुआ |
ढक्कन विद्रोह : समाचारपत्र में छपी रिपोर्ट
"रैयत और साहूकार " शीर्षक नामक निम्नलिखित रिपोर्ट 6 जून 1876 के "नेटिव ओपीनियन " नामक समाचार पत्र में छपी और उसे मुम्बई के नेटिव न्यूजपेपर्स की रिपोर्ट में यथावत उद्वुत किया गया (हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत है ):
" वे रैयत सर्वप्रथम अपने गाँवों की सीमाओं पर यह देखने के लिए जासूसी करते है कि क्या कोई सरकारी अधिकारी आ रहा है और अपराधियों को समय रहते उनके आने की सूचना दे देते है | फिर वे एक झुण्ड बनाकर अपने ऋण दाताओं के घर जाते है और उनसे उनके ऋण पत्र और अन्य दस्तावेज मांगते है और इनकार करने पर ऋण दाताओं पर हमला करके छीन लेते है | यदि ऐसी किसी घटना के समय कोई सरकारी अधिकारी उन गाँवों की और आता हुआ दिखाई दे जाता है तो गुत्चार अपराधियों को इसकी खबर पहूँचा देते है और अपराधी समय रहते ही तितर -बितर हो जाते है "
👉आखिर ढक्कन विद्रोह क्यों हुआ ?
👉 ऋण पत्र और दस्तावेज क्यों जलाए गए थे ?
👉विद्रोह से ढक्कन के देहात के बारे में और वहां औपनिवेशिक शासन में हुए कृषि या भूमि संबंधी परिवर्तनों के बारे में क्या पता चलता है ?
अंग्रेजों ने बंगाल में स्थायी बंदोबस्त राजस्व प्रणाली लागू किया था | इस व्यवस्था का परिणाम देख चुके थे | इसलिए ब्रिटिश शासन ने बम्बई - ढक्कन में एक नयी प्रणाली लागू की गई जिससे रैयतवाडी बन्दोबस्त कहा जाता है |
(रैयतवाडी बंदोबस्त )इस प्रणाली के अंतर्गत राजस्व की राशि सीधे रैयत के साथ तय की जाती थी | भिन्न-भिन्न प्रकार की भूमि से होने वाली औसत आय का अनुमान लगा लिया जाता था | रैयत की हैसियत और सरकार के हिस्से के रूप में उसका एक अनुपात निर्धारित किया जाता था | हर 30 साल के बाद जमीनों का फिर से सर्वेक्षण किया जाता था और राजस्व की दर से तदनुसार बढ़ा दी जाती थी |
राजस्व की मांग और किसान का कर्ज
👉 बम्बई और ढक्कन में रैयतवाडी बंदोबस्त 1820 के दशक में किया गया |
👉 ब्रिटिश शासन ने राजस्व की मांग इतनी अधिक थी कि लोग गाँव छोड़कर अन्यत्र चले गए |
👉 वर्षा नहीं होने, फसल खराब होने पर भी राजस्व अधिकारी किसानों से राजस्व वसूलते थे|
👉 जब कोई किसान राजस्व अदा नहीं कर पाता था तो उसकी फसल जब्त कर ली जाती थी और समूचे गाँव पर जुर्माना ठोक दिया जाता था|
👉 1830 के दशक में किसानों की स्थिति और बदतर हो गयी | 1832-34 के वर्षों में अकाल ने किसानों की स्थिति बद-से -बदतर हो गयी|
👉ढक्कन का एक तिहाई पशुधन और आधी मानव जनसंख्या भी काल का ग्रास बन गई | राजस्व की बकाया राशि आसमान को छूने लगी|
किसानों के हालात
👉 ऐसे समय में किसान लोग कैसे जीवित रहे ?
👉 राजस्व कैसे अदा किया जाय
👉 अपनी जरुरत की चीजों को कैसे जुटाया जाय
👉 अपने पशुधन कैसे खरीदे
👉 बच्चों की शादियाँ कैसे करें
उपर्युक्त आवश्कताओं को पूरा करने के लिए महाजनों से ऋण लेने के अलावा और कोई चारा नही था| लेकिन रैयत एक बार ऋण ले लिया तो लौटना मुश्किल था| किसान कर्ज के बोझ तले दब जा रहे थे|
1845 के बाद कृषि उत्पादों में कीमतों में धीरे-धीरे वृद्वि होने लगी| खेती का विस्तार होने लगा| गोचर भूमि को कृषि भूमि में बदल रहे थे| लेकिन हल-बैल,बीज के लिए पैसे की जरुरत थी | एक बार फिर उन्हें महाजनों के पास जाना पड़ा|
ब्रिटेन द्वारा भारत में कपास उत्पादन की आवश्यकता अट्ठारह सौ साठ के दशक से पहले ब्रिटेन में कच्चे माल के तौर पर आयात की जाने वाली समस्त कपास का तीन चौथाई भाग अमेरिका से आता था परंतु ब्रिटेन के सूती वस्त्रों के निर्माता इस बात से चिंतित है कि अमेरिकी कपास पर ज्यादा निर्भरता ठीक नहीं कपास की आपूर्ति के लिए वैकल्पिक स्रोत खोजे जा रहे थे । इस उद्वेश्य की पूर्ति के लिए 1857में कपास आपूर्ति संघ की स्थापना हुई और 1859 में मैनचेस्टर कॉटन कम्पनी बनाई गई। भारत को ऐसा देश के रूप में चिन्हित किया गया जहां से कपास की आपूर्ति हो सकती थी ।
1861 में अमेरिका में गृह युद्व आरभ होने से कपास की आपूर्ति भारत से होने लगी । ऐसे में कपास की कीमतों में उछाल आया। कपास निर्यातकों ने ब्रिटेन की मांग को पूरा करने के लिए साहूकारों को अग्रिम राशि उपलब्ध कराई ताकि वे भी उन किसानों को राशि उधार दे सके जो ज्यादा कपास उपलब्ध करा सके।
जब अमेरिका में संकट की स्थिति बनी रही तो मुंबई ढक्कन में कपास का उत्पादन बढ़ता गया| 1860 से 1864 के दौरान कपास उगाने वाले क्षेत्रों की संख्या दुगनी हो गई| 1862 तक स्थिति यह आई कि ब्रिटेन में जितना भी कपास का आयात होता था उसका 90% भाग अकेले भारत से जाता था।
इसके बावजूद कपास उत्पादक कर्ज के बोझ से और अधिक दब गए| हालांकि कुछ धनी किसानों को लाभ अवश्य हुआ| 1865 ईस्वी के बाद जब अमेरिका में गृह युद्धध समाप्त हो गया तो कपास का उत्पादन और निर्यात ब्रिटेन को किया जाने लगा । भारतीय कपास की मांग घटने लगी। साहूकारों ने रैयतों को ऋण उपलब्ध कराना बन्द कर दिया। इधर ब्रिटिश अधिकारियों ने राजस्व में 50-100 % कई वृद्धि कर दी।
वस्तुनिष्ठ प्रश्न
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M. PRASAD
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