Thinkers Beliefs and Buildings : NCERT NOTES
विचारक , विश्वास और इमारतें
सांस्कृतिक विकास
(लगभग 600 ई.पू. से ईसा सम्वत 600 तक )
परिचय :
इस पाठ के अंतर्गत महात्मा बुद्व और भगवान महावीर के बारे में अध्ययन करेंगे | साथ ही भौतिक साक्ष्य के रूप में साँची का स्तूप के बारे में जानकारी हासिल करेंगे |
* स्तूप क्या होता है ?
स्तूप का संस्कृत अर्थ टीला , ढेर या थुहा होता है | महात्मा बुद्व के परिनिर्वाण के बाद उनकी अस्थियों को आठ भागों में बांटा गया तथा उन पर समाधियों का निर्माण किया गया | इन्हीं को स्तूप कहा जाता है | स्तूप का सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है | इसमें अग्नि की उठती हुई ज्वालाओं को स्तूप कहा गया है |
स्तूप क्यों बनाए जाते थे ?
यह उद्वरण महापरिनिब्बान सुत्त से लिया गया है जो सुत्त पिटक का हिस्सा है |
परिनिर्वाण से पूर्व आनंद ने पूछा : भगवान हम तथागत ( बुद्व का दूसरा नाम ) के अवशेषों का क्या करेंगे ?
बुद्व ने कहा ," तथागत के अवशेषों को विशेष आदर देकर खुद को मत रोको | धर्मोत्साही बनों , अपनी भलाई के लिए प्रयास करों |"
लेकिन विशेष आग्रह करने पर बुद्व बोले:
" उन्हें तथागत के लिए चार महापथों के चौक पर थूप ( स्तूप का पालि रूप ) बनाना चाहिए | जो भी वहां धूप या माला चढ़ाएगा ....... या वहां सर नवाएगा , या वहां पर ह्रदय में शान्ति लाएगा , उन सबके लिए वह चिर काल तक सुख और आनंद का कारण बनेगा |"
स्तूप का सम्बन्ध मृतक के दाह संस्कार से था | दाह संस्कार के बाद बचे अस्थियों को किसी पात्र में रखकर मिट्टी से ढक देने की प्रथा से ही स्तूप का विकास हुआ |
आरम्भ में बुद्व के अवशेषों पर स्तूप बने | बाद में उनके शिष्यों के अवशेषों पर भी स्तूप बनाए गए |
बौद्व ग्रन्थ " अशोकावदान" से जानकारी मिलती है की सम्राट अशोक ने 84000 स्तूपों का निर्माण कराया था |
चीनी यात्री ह्वेनसांग ने स्वयं तक्षशिला , श्रीनगर , थानेश्वर , मथुरा , कनौज , प्रयाग , कोशाम्बी , वाराणसी , वैशाली ,गया आदि जगहों पर स्तूपों को देखा था पर आज ये सब नष्ट हो चुके है |
स्तूपों की संरचना :
स्तूप का स्वरूप अर्द्व -गोलाकार मिलता है | उसमें मेधी (चबूतरा ) के ऊपर उलटे कटोरे की आकृति का थूहा बनाया जाता है , जिसे अंड कहा जाता है | अंड के ऊपर एक हर्मिका होती थी | यह छज्जे जैसा ढांचा देवताओं के घर का प्रतीक था | हर्मिका से एक मस्तूल निकलता था जिसे यष्टि कहते थे जिस पर एक छत्री लगी होती थी |
सांस्कृतिक विकास
(लगभग 600 ई.पू. से ईसा सम्वत 600 तक )
परिचय :
इस पाठ के अंतर्गत महात्मा बुद्व और भगवान महावीर के बारे में अध्ययन करेंगे | साथ ही भौतिक साक्ष्य के रूप में साँची का स्तूप के बारे में जानकारी हासिल करेंगे |
* स्तूप क्या होता है ?
स्तूप का संस्कृत अर्थ टीला , ढेर या थुहा होता है | महात्मा बुद्व के परिनिर्वाण के बाद उनकी अस्थियों को आठ भागों में बांटा गया तथा उन पर समाधियों का निर्माण किया गया | इन्हीं को स्तूप कहा जाता है | स्तूप का सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है | इसमें अग्नि की उठती हुई ज्वालाओं को स्तूप कहा गया है |
स्तूप क्यों बनाए जाते थे ?
यह उद्वरण महापरिनिब्बान सुत्त से लिया गया है जो सुत्त पिटक का हिस्सा है |
परिनिर्वाण से पूर्व आनंद ने पूछा : भगवान हम तथागत ( बुद्व का दूसरा नाम ) के अवशेषों का क्या करेंगे ?
बुद्व ने कहा ," तथागत के अवशेषों को विशेष आदर देकर खुद को मत रोको | धर्मोत्साही बनों , अपनी भलाई के लिए प्रयास करों |"
लेकिन विशेष आग्रह करने पर बुद्व बोले:
" उन्हें तथागत के लिए चार महापथों के चौक पर थूप ( स्तूप का पालि रूप ) बनाना चाहिए | जो भी वहां धूप या माला चढ़ाएगा ....... या वहां सर नवाएगा , या वहां पर ह्रदय में शान्ति लाएगा , उन सबके लिए वह चिर काल तक सुख और आनंद का कारण बनेगा |"
स्तूप का सम्बन्ध मृतक के दाह संस्कार से था | दाह संस्कार के बाद बचे अस्थियों को किसी पात्र में रखकर मिट्टी से ढक देने की प्रथा से ही स्तूप का विकास हुआ |
आरम्भ में बुद्व के अवशेषों पर स्तूप बने | बाद में उनके शिष्यों के अवशेषों पर भी स्तूप बनाए गए |
बौद्व ग्रन्थ " अशोकावदान" से जानकारी मिलती है की सम्राट अशोक ने 84000 स्तूपों का निर्माण कराया था |
चीनी यात्री ह्वेनसांग ने स्वयं तक्षशिला , श्रीनगर , थानेश्वर , मथुरा , कनौज , प्रयाग , कोशाम्बी , वाराणसी , वैशाली ,गया आदि जगहों पर स्तूपों को देखा था पर आज ये सब नष्ट हो चुके है |
स्तूपों की संरचना :
स्तूप का स्वरूप अर्द्व -गोलाकार मिलता है | उसमें मेधी (चबूतरा ) के ऊपर उलटे कटोरे की आकृति का थूहा बनाया जाता है , जिसे अंड कहा जाता है | अंड के ऊपर एक हर्मिका होती थी | यह छज्जे जैसा ढांचा देवताओं के घर का प्रतीक था | हर्मिका से एक मस्तूल निकलता था जिसे यष्टि कहते थे जिस पर एक छत्री लगी होती थी |
टीले के चारों और एक दीवार द्वारा घेर दिया जाता है जिसे वेदिका (railing) कहते है | स्तूप तथा वेदिका के बीच परिक्रमा लगाने के लिए बना स्थान प्रदक्षिणा पथ कहलाता है | समयकाल में वेदिका के चारो ओर चारों दिशाओं में प्रवेश द्वार बनाये गए | प्रवेश द्वार पर मेहराबदार तोरण बनाये गए |
प्राचीन धर्मों का इतिहास :
वैदिक धर्म
वैदिक धर्म भारत का प्राचीनतम धर्म है और वेद भारतीय धर्म के प्राचीनतम ग्रन्थ है |
मनुस्मृति में कहा गया है - " धर्म जिज्ञासमानानां , प्रमाण परमं श्रुति: |अर्थात जो धर्म का ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं , उनके लिए परम प्रमाण वेद ही है |
ऋग्वैदिक धर्म : 1500 ई. पू. से 1000 ई.पू. के बीच ऋग्वेद की रचना हुई | भारत और विश्व का सबसे प्राचीन ग्रन्थ माना जाता है | यह काल ऋग्वैदिक काल कहलाता है | इस काल में देवताओं की प्रधानता थी | ये तीन श्रेणियों में विभाजित थे |
पृथ्वीवासी देवता : पृथ्वी , अग्नि , सोम , वृहस्पति |
अंतरिक्षवासी देवता - इंद्र , वायु , मरुत , रूद्र , पूषण |
आकाशवासी देवता - वरुण , सूर्य |
* ऋग्वेद में इंद्र का 250 बार एवं अग्नि का 200 बार उल्लेख है | इंद्र प्रमुख देवता है |
* इंद्र वर्षा का , मरुत तूफान का एवं वरुण को शक्ति का देवता और समुद्र का देवता माना जाता है |
* ऋग्वेद में कुल 1028 सूक्त एवं 10,500 मन्त्र है |
* यह 10 मंडलों में विभक्त है |
* गायत्री मन्त्र ऋग्वेद से लिया गया है |
ऊँ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो न: प्रचोदयात्।
उत्तरवैदिक धर्म : 1000 ई. पू. से 600 ई.पू. के बीच यजुर्वेद ,सामवेद , अथर्ववेद आदि वैदिक साहित्य की रचना हुई | यह काल उत्तरवैदिक काल कहलाता है | इस काल में त्रिदेव ब्रह्मा , विष्णु , महेश की आराधना की गयी है |
यर्जुवेद : यज्ञ एवं हवन सम्बन्धी मन्त्रों का संग्रह |
सामवेद : गाये जाने वाला मन्त्रों का संग्रह |
अथर्ववेद: तन्त्र-मन्त्र , जादू-टोना एवं आयुर्वेदिक् औषधियों का विवरण
ब्राह्मण ग्रन्थ : ब्राह्मण ग्रन्थों में वेद मन्त्रों के अर्थ एवं सार की टीकाएँ मिलती है | प्रत्येक वेद के उपवेद एवं ब्राह्मण ग्रन्थ निम्न है |
क्रम सं. वेद उपवेद ब्राह्मण ग्रन्थ
1. ऋग्वेद आयुर्वेद ऐतरेय, कौषीतकि
2. यजुर्वेद धनुर्वेद शतपथ, वाजनेय , तैतरीय
3. सामवेद गंधर्ववेद तांडय , पंचविश ,जैमनीय
4. अथर्ववेद शिल्पवेद गोपथ ब्रह्मण
* आरण्यक : इस ग्रन्थ में आध्यात्मिक रहस्यों का विवेचना किया गया है | इसकी रचना वन में की गयी थी |
* उपनिषद् : वेदों के अंतिम भाग उपनिषद है | जिस रहस्य विधा का ज्ञान गुरु के समीप बैठकर प्राप्त किया जाता है उसे उपनिषद कहते थे | उपनिषद 108 है | जैसे - मुण्डकोपनिषद |
* वेदाग : वेदांग छः है | शिक्षा , कल्प , व्याकरण , निरुक्त , छंद , और ज्योतिष |
* पुराण : पुराण 18 है |
* पुराणों की रचियता - लोमहर्ष एवं उनके पुत्र उग्रश्रवा माने जाते है |
* सबसे प्राचीन और प्रमाणिक पुराण - मत्स्यपुराण |
* विष्णुपुराण मौर्य वंश से, वायुपुराण गुप्त वंश से और मत्स्यपूराण आंध्र सातवाहन वंश से सम्बन्धित है |
षड्दर्शन: छह दार्शनिक परम्पराएं निम्न है ।
1. कपिल का सांख्य दर्शन
2. पतंजलि का योग दर्शन
3. गौतम का न्याय दर्शन
4. कणाद का वैशेषिक दर्शन
5. जैमिनी की पूर्व मीमांसा दर्शन
6. व्यास की उत्तर मीमांसा दर्शन
आश्रम व्यवस्था :
ब्राह्मण ग्रँथों में चार आश्रम का वर्णन मिलता है ।
1. ब्रह्मचर्य आश्रम : 25 वर्ष तक की आयु तक । शिक्षा ग्रहण करना , अनुशासन में रहना ।
2. गृहस्थ आश्रम: 25 वर्ष से 50 वर्ष की आयु तक । विवाह करना , सन्तान उत्पन्न करना, धन कमाना ।
3. वानप्रस्थ आश्रम : 50 से 75 वर्ष की आयु तक वन में आध्यात्मिक शिक्षा ग्रहण करना ।
4. सन्यास आश्रम : 75 से 100 वर्ष की आयु तक वन में तप करना ।
यज्ञ परम्परा :
यज्ञ का उद्वेश्य पुत्र प्राप्ति , धन प्राप्ति, यश प्राप्ति , स्वास्थ्य एवं दीर्घायु के लिए ।
1. वाजपेय यज्ञ : शक्ति प्राप्त करने के लिए , यह साल में 17 दिन यज्ञ होता था ।
2. राजसूय यज्ञ : राज्याभिषेक के समय , 2 वर्ष तक यज्ञ होता था ।
3. अश्वमेघ यज्ञ: चक्रवर्ती सम्राट बनने के लिए , तीन दिन तक चिकने वाला यज्ञ , इसमें राजा के घोड़े को खुला छोड़ दिया जाता था ।जितने क्षेत्र में वह विचरण करता , वह क्षेत्र राजा के अधीन हो जाता था ।
अन्य महत्वपूर्ण दर्शन
चार्वाक दर्शन : " जब तक जियो, सुख से जियो और कर्ज लेकर घी पियों "। वैदिक कर्मकांड से त्रस्त जनता आगामी जन्म के फेर में पड़कर वर्तमान जन्म में चिंतित रहने लगी तो चार्वाक मुनि ने भौतिकवादी दर्शन दिया ।
उनका कहना था कि न आत्मा है , न पुनर्जन्म है और न ही कोई परलोक । परलोक की चिंता छोड़ वर्तमान का भोग करो।
अजितकेश कम्बलिन : यह गौतम बद्व के समकालीन थे और लोकायत परम्परा के मानने वाले थे ।जिन्हें भौतिकवादी भी कहते है ।
दर्शन - " हे राजन ! दान , यज्ञ या चढ़ावा जैसी कोई चीज नही होती .... इस दुनिया या दूसरी दुनिया जैसी कोई चीज नही होती ।
मनुष्य चार तत्वों से बना होता है । जब वह मरता है तब मिट्टी वाला अंश पृथ्वी में , जल वाला हिस्सा जल में , गर्मी वाला अंश आग में , सांस का अंश वायु में वापस मिल जाता है और उसकी इंद्रियां अंतरिक्ष का हिस्सा बन जाती है......
दान देने की बात मूर्खों का सिद्धांत है, खोखला झूठ है ...मूर्ख हो या विद्वान दोनों ही कट कर नष्ट हो जाते हैं । मृत्यु के बाद कोई नहीं बचता ।"
मक्खलि गोसाल : गौतम बद्व के समकालीन एवं आजीवक परम्परा के मानने वाले थे । ये भाग्यवादी थे । त्रिपिटक में इनका दर्शन मिलता है ।
" हालांकि बुद्धिमान लोग यह विश्वास करते हैं कि इस सद्गुण से ......... इस तपस्या से मैं कर्म प्राप्ति करूंगा............मूर्ख उन्हीं कार्यों को करके धीरे-धीरे कर्म मुक्ति की उम्मीद करेगा । दोनों में से कोई कुछ नहीं कर सकता । सुख और दुख मानो पूर्व निर्धारित मात्रा में माप कर दिए गए हैं । इसे संसार में बदला नहीं जा सकता । इसे बढ़ाया या घटाया नहीं जा सकता । जैसे धागे का गोला फेंक देने से लुढ़कते लुढ़कते अपनी पूरी लंबाई तक खुलता जाता है उसी तरह मुर्ख और विद्वान दोनों ही पूर्व निर्धारित रास्ते से होते हुए दुखों का निदान करेंगे ।"
बौद्व ग्रन्थ किस प्रकार तैयार और संरक्षित किए जाते थे ?
* महात्मा बुद्व लोगो के साथ चर्चा और बातचीत करते हुए मौखिक शिक्षा देते थे | इनके उपदेश महिलाएं और पुरुष साथ में बच्चे भी सुनते थे |
* महात्मा बुद्व के किसी भी सम्भाषण को उनके जीवन काल में नही लिखा गया |
* महात्मा बुद्व के मृत्यु के बाद ( पांचवी -चौथी सदी ईसा पूर्व ) उनके शिष्यों ने चार बौद्व संगीतियों का आयोजन किया गया | वहां पर ही उनकी शिक्षाओं का संकलन किया गया | इन संग्रहों को " त्रिपिटक" (तीन टोकरियाँ ) कहा जाता था |
* त्रिपिटक तीन भाग में विभाजित है | विनय पिटक , सुत्त पिटक और अधिधम्म पिटक
* विनय पिटक - संघ या बौद्व मठों में रहनेवाले लोगों के लिए नियमों का संग्रह था
* सुत्त पिटक - बुद्व के उपदेशों एवं शिक्षाओं का संग्रह |
* अधिधम्म पिटक - बौद्व धर्म के दार्शनिक विचारों का संग्रह |
* हर पिटक के अंदर कई ग्रन्थ होते थे और बाद के युगों में बौद्व विद्वानों ने इन ग्रन्थों पर टीकाएँ लिखी |
* भारत से बाहर श्रीलंका में बौद्व धर्म के विस्तार होने पर दीपवंश ( द्वीप का इतिहास ) और महावंश (महान इतिहास ) जैसे क्षेत्र - विशेष के बौद्व इतिहास को लिखा गया |
* आरंभिक बौद्व ग्रन्थ पालि भाषा में लिखी गयी थी , बाद में संस्कृत में ग्रन्थ लिखे गए |
* भारत के बौद्व शिक्षक के साथ चीनी तीर्थ यात्री फाह्यान और श्वैनत्सांग ने भी बौद्व ग्रन्थों का अपनी भाषाओं में अनुवाद किया |
* कई सदियों तक पांडुलिपियाँ एशिया के भिन्न -भिन्न इलाकों में स्थित बौद्व विहारों में संरक्षित थी |
भगवान महावीर
* जैन परम्परा के अनुसार महावीर से पहले 23 शिक्षक हो चुके थे , उन्हें तीर्थंकर कहा जाता है : यानी कि वे महापुरुष जो लोगों के जीवन की नदी के पार पहुंचाते है | भगवान महावीर जैन परम्परा के 24 वें तीर्थंकर थे |
* जैन दर्शन की महत्वपूर्ण अवधारणा यह है कि विश्व प्राणवान है | पत्थर , चट्टान और जल में भी जीवन होता है |
* जीवों के प्रति अहिंसा जैन दर्शन का केंद्र बिंदु है |
* जैन मान्यता के अनुसार जन्म और पुनर्जन्म का चक्र कर्म के द्वारा निर्धारित होता है | कर्म के चक्र से मुक्ति के लिए त्याग और तपस्या की जरुरत होती है |
* जैन भिक्षु पांच व्रत करते थे :
-हत्या न करना |
- चोरी न करना |
- झूठ न बोलना |
- ब्रह्मचर्य का पालन करना |
- धन संग्रह न करना |
कथा :
यह कथा उत्तराध्ययन सूत्र नामक एक ग्रन्थ से लिया गया है | इसमें कमलावती नामक महारानी अपने पति को सन्यास लेने के लिए समझा रही है |
अगर सम्पूर्ण विश्व और वहां के सभी खजाने तुम्हारे हो जाएं तब भी तुम्हें संतोष नही होगा , न ही यह सारा कुछ तुम्हें बचा पाएगा | हे राजन ! जब तुम्हारी मृत्यु होगी और जब सारा धन पीछे छूट जाएगा तब सिर्फ धर्म ही , और कुछ भी नही , तुम्हारी रक्षा करेगा | जैसे एक चिड़िया पिंजरे से नफरत करती है वैसे ही मैं इस संसार से नफरत करती हूँ | मैं बाल -बच्चे को जन्म न देकर निष्काम भाव से , बिना लाभ की कामना से और बिना द्वेष के एक साध्वी की तरह जीवन बिताउंगी |
जिन लोगों ने सुख का उपभोग करके उसे त्याग दिया है , वायु की तरह भ्रमण करते है , जहां मन करें स्वतंत्र उडते हुए पक्षियों की तरह जाते है ...............
इस विशाल राज्य का परित्याग करो .......................इन्द्रिय सुखों से नाता तोड़ो, निष्काम अपरिग्रही बनों , तत्पश्चात तेजमय हो घोर तपस्या करो .....................
जैन धर्म का विस्तार :
* जैन धर्म का विस्तार सम्पूर्ण भारत में हुआ | जैन विद्वानों ने प्राकृत , संस्कृत, तमिल जैसी अनेक भाषाओं में काफी साहित्य का सृजन किया |
* जैन धर्म से जुडी पांडुलिपियाँ मन्दिरों से जुड़े पुस्तकालयों में संरक्षित है |
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बुद्व और ज्ञान की खोज
भारत का समाज वैदिक धर्मावलम्बी वाला समाज रहा है | 6ठी शताब्दी ईसा पूर्व वैदिक धर्म एक जटिल , कर्मकांड प्रधान तथा आडम्बर पूर्ण व्यवस्था के रूप में बन गया था | आम जनजीवन यज्ञ एवं कर्मकांड की जटिलता से मुक्ति पाना चाहता था | ऐसे में महात्मा बुद्व का जन्म हुआ जिन्होंने अपनी शिक्षाओं एवं सिद्वान्तों से कर्मकांड एवं कुप्रथाओं से जकड़ी आम लोगों को एक सहज , सरल एवं बोधगम्य धर्म रूपी प्रकाश से प्रकाशित किया |
महात्मा बुद्व की सम्पूर्ण जीवनी के लिए Click करे |
बुद्व की सम्पूर्ण जीवनी भाग 1
बुद्व की सपूर्ण जीवनी भाग 2
* बौद्व ग्रन्थों के अनुसार सिद्वार्थ (बुद्व के बचपन का नाम ) शाक्य कबीले के सरदार के पुत्र थे | आरम्भिक जीवन महल के अन्दर सब सुखो के बीच बिता |
* एक दिन रथकार के साथ शहर घुमने निकले | रास्ते में एक वृद्व व्यक्ति को , एक बीमार को , और एक लाश को देखकर उन्हें गहरा सदमा पहुँचा | उसी क्षण एक प्रसन्नचित सन्यासी को देखा |
* सिद्वार्थ ने निश्चय किया कि वे भी सन्यास का रास्ता अपनाएंगे तथा कुछ समय बाद सत्य की खोज में महल त्याग दिया |
* वैशाख पूर्णिमा को पीपल वृक्ष के नीचे बोधगया में ज्ञान प्राप्त हुआ और बुद्व कहलाये |
बुद्व की शिक्षाएं :
* बुद्व की शिक्षाएं सुत्त पिटक में लिखी गयी है |
* बुद्व की शिक्षाएं एवं उपदेश जनमानस की भाषा पाली भाषा में दी गयी जिसे आसानी से समझा सा सकता था |
* बौद्व दर्शन के अनुसार विश्व अनित्य है और लगातार बदल रहा है , यह आत्माविहीन है क्योंकि यहाँ कुछ भी स्थायी या शाश्वत नही है | इस क्षण भंगुर दुनिया में दुःख मनुष्य के जीवन का अन्त्रन्हित तत्व है | घोर तपस्या और विषयासक्ति के बीच मध्यम मार्ग अपनाकर मनुष्य दुनिया के दुखों से मुक्ति पा सकता है | बौद्व धर्म के प्रारम्भिक परम्पराओं में भगवान का होना या न होना अप्रासंगिक था |
* बुद्व के अनुसार समाज का निर्माण इंसानों ने किया था न की भगवान ने |इसलिए राजाओं एवं गृह्पतियों को दयावान और आचारवान होने की सलाह दी |
* बुद्व ने जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति , आत्म ज्ञान और निर्वाण के लिए व्यक्ति - केन्द्रित हस्तक्षेप और सम्यक कर्म की कल्पना की | निर्वाण का मतलब था अहं और इच्छा का खत्म हो जाना |
* बौद्व परम्परा के अनुसार अपने शिष्यों के लिए बुद्व का अंतिम निर्देश था , " तुम सब अपने लिए खुद ही ज्योति बनों क्योंकि तुम्हें खेद ही अपनी मुक्ति का रास्ता ढूढना है "|
बुद्व के अनुयायी :
* बुद्व के शिष्यों का दल तैयार होने पर संघ की स्थापना की | ये शिष्य भिक्षु कहलाये | वे शिष्य जो बुद्व के शिक्षाओं को मानते थे साथ ही अपने ग्रहस्थ कार्यों का भी मूर्त रूप देते थे उन्हें उपासक या उपासिका कहा गया |
* आरम्भ में सिर्फ पुरूष ही संघ में शामिल हो सकते थे | बाद में बुद्व शिष्य आनन्द ने बुद्व को समझाकर महिलाओं के संघ में आने की अनुमति प्राप्त की |
* बुद्व की उपमाता महाप्रजापति गौतमी संघ में प्रवेश पाने वाली पहली भिक्खुनी थी | कई महिलाएं संघ में आई और बाद में थेरी बनी जिसका मतलब है ऐसी महिला जिन्होंने निर्वाण प्राप्त कर लिया हो |
* बुद्व के अनुयायी कई सामाजिक वर्गों से आए | इनमें राजा , धनवान , गृहपति और सामान्य जन कर्मकार ,दास , शिल्पी सभी शामिल थे |
* संघ में आने वाले सभी व्यक्तियों को बराबर माना जाता था | संघ की संचालन पद्वति गणों और संघों के परम्परा पर आधारित थी | एकमत नही होने पर मदान द्वारा निर्णय लिया जाता था |
बौद्व धर्म का प्रसार :
* बुद्व के जीवनकाल में और उनकी मृत्यु के बाद भी बौद्व धर्म तेजी से फैला | भारत के साथ -साथ श्रीलंका , म्यांमार, थाईलैंड , चीन आदि देशों में प्रसार हुआ |
बुद्व की सम्पूर्ण जीवनी भाग 1
बुद्व की सपूर्ण जीवनी भाग 2
भारत का समाज वैदिक धर्मावलम्बी वाला समाज रहा है | 6ठी शताब्दी ईसा पूर्व वैदिक धर्म एक जटिल , कर्मकांड प्रधान तथा आडम्बर पूर्ण व्यवस्था के रूप में बन गया था | आम जनजीवन यज्ञ एवं कर्मकांड की जटिलता से मुक्ति पाना चाहता था | ऐसे में महात्मा बुद्व का जन्म हुआ जिन्होंने अपनी शिक्षाओं एवं सिद्वान्तों से कर्मकांड एवं कुप्रथाओं से जकड़ी आम लोगों को एक सहज , सरल एवं बोधगम्य धर्म रूपी प्रकाश से प्रकाशित किया |
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बुद्व की सम्पूर्ण जीवनी भाग 1
बुद्व की सपूर्ण जीवनी भाग 2
* बौद्व ग्रन्थों के अनुसार सिद्वार्थ (बुद्व के बचपन का नाम ) शाक्य कबीले के सरदार के पुत्र थे | आरम्भिक जीवन महल के अन्दर सब सुखो के बीच बिता |
* एक दिन रथकार के साथ शहर घुमने निकले | रास्ते में एक वृद्व व्यक्ति को , एक बीमार को , और एक लाश को देखकर उन्हें गहरा सदमा पहुँचा | उसी क्षण एक प्रसन्नचित सन्यासी को देखा |
* सिद्वार्थ ने निश्चय किया कि वे भी सन्यास का रास्ता अपनाएंगे तथा कुछ समय बाद सत्य की खोज में महल त्याग दिया |
* वैशाख पूर्णिमा को पीपल वृक्ष के नीचे बोधगया में ज्ञान प्राप्त हुआ और बुद्व कहलाये |
बुद्व की शिक्षाएं :
* बुद्व की शिक्षाएं सुत्त पिटक में लिखी गयी है |
* बुद्व की शिक्षाएं एवं उपदेश जनमानस की भाषा पाली भाषा में दी गयी जिसे आसानी से समझा सा सकता था |
* बौद्व दर्शन के अनुसार विश्व अनित्य है और लगातार बदल रहा है , यह आत्माविहीन है क्योंकि यहाँ कुछ भी स्थायी या शाश्वत नही है | इस क्षण भंगुर दुनिया में दुःख मनुष्य के जीवन का अन्त्रन्हित तत्व है | घोर तपस्या और विषयासक्ति के बीच मध्यम मार्ग अपनाकर मनुष्य दुनिया के दुखों से मुक्ति पा सकता है | बौद्व धर्म के प्रारम्भिक परम्पराओं में भगवान का होना या न होना अप्रासंगिक था |
* बुद्व के अनुसार समाज का निर्माण इंसानों ने किया था न की भगवान ने |इसलिए राजाओं एवं गृह्पतियों को दयावान और आचारवान होने की सलाह दी |
* बुद्व ने जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति , आत्म ज्ञान और निर्वाण के लिए व्यक्ति - केन्द्रित हस्तक्षेप और सम्यक कर्म की कल्पना की | निर्वाण का मतलब था अहं और इच्छा का खत्म हो जाना |
* बौद्व परम्परा के अनुसार अपने शिष्यों के लिए बुद्व का अंतिम निर्देश था , " तुम सब अपने लिए खुद ही ज्योति बनों क्योंकि तुम्हें खेद ही अपनी मुक्ति का रास्ता ढूढना है "|
बुद्व के अनुयायी :
* बुद्व के शिष्यों का दल तैयार होने पर संघ की स्थापना की | ये शिष्य भिक्षु कहलाये | वे शिष्य जो बुद्व के शिक्षाओं को मानते थे साथ ही अपने ग्रहस्थ कार्यों का भी मूर्त रूप देते थे उन्हें उपासक या उपासिका कहा गया |
* आरम्भ में सिर्फ पुरूष ही संघ में शामिल हो सकते थे | बाद में बुद्व शिष्य आनन्द ने बुद्व को समझाकर महिलाओं के संघ में आने की अनुमति प्राप्त की |
* बुद्व की उपमाता महाप्रजापति गौतमी संघ में प्रवेश पाने वाली पहली भिक्खुनी थी | कई महिलाएं संघ में आई और बाद में थेरी बनी जिसका मतलब है ऐसी महिला जिन्होंने निर्वाण प्राप्त कर लिया हो |
* बुद्व के अनुयायी कई सामाजिक वर्गों से आए | इनमें राजा , धनवान , गृहपति और सामान्य जन कर्मकार ,दास , शिल्पी सभी शामिल थे |
* संघ में आने वाले सभी व्यक्तियों को बराबर माना जाता था | संघ की संचालन पद्वति गणों और संघों के परम्परा पर आधारित थी | एकमत नही होने पर मदान द्वारा निर्णय लिया जाता था |
बौद्व धर्म का प्रसार :
* बुद्व के जीवनकाल में और उनकी मृत्यु के बाद भी बौद्व धर्म तेजी से फैला | भारत के साथ -साथ श्रीलंका , म्यांमार, थाईलैंड , चीन आदि देशों में प्रसार हुआ |
बुद्व की सम्पूर्ण जीवनी भाग 1
बुद्व की सपूर्ण जीवनी भाग 2
थेरीगाथा :
यह अनूठा बौद्व ग्रन्थ सुत्त पिटक का हिस्सा है | इसमें भिक्खुनियों द्वारा रचित छंदों का संकलन किया गया है | इसमें महिलाओं के सामाजिक और आध्यात्मिक अनुभवों के बारे में अंतर्दृष्टि मिलती है | पुन्ना नाम की एक दासी अपने मालिक के घर के लिए प्रतिदिन सुबह नदी का पानी लाने जाती थी | वहां वह हर दिन एक ब्राह्मण को स्नान कर्म करते हुए देखती थी | एक दिन उसने ब्राह्मण से बात की | निम्नलिखित पद्य की रचना पुन्ना ने की थी जिसमें ब्राह्मण से उसकी बातचीत का वर्णन है :
मैं जल ले जाने वाली हूँ |
कितनी भी ठंढ हो
मुझे पानी में उतरना ही है
सजा के डर से
या ऊँचे घरानों की स्त्रियों के कटु वाक्यों के डर से |
हे ब्राह्मण तुम्हें किसका डर है ,
जिससे तुम जल में उतरते हो
(जबकि) तुम्हारे अंग ठंड से काँप रहे है ?
ब्राह्मण बोले :
मैं बुराई को रोकने के लिए अच्छाई कर रहा हूं ;
बूढा हो या बच्चा
जिसने भी कुछ बुरा किया हो
जल में स्नान करके मुक्त हो जाता है |
पुन्ना ने कहा :
यह किसने कहा है
कि पानी में नहाने से बुराई से मुक्ति मिलती है ?.......
वैसा हो तो सारे मेंढक और कछुए स्वर्ग जायंगे
साथ में पानी के सांप और मगरमच्छ भी !
इसके बदले में वे कर्म न करें
जिनका डर
आपको पानी की ओर खींचता है |
हे ब्राह्मण , अब तो रुक जाओ !
अपने शरीर को ठंढ से बचाओं ....................
इस वाद-विवाद से बुद्व के " सम्यक कर्म " की शिक्षा मिलती है |
बौद्व संघ में भिक्षुओं और भिक्खुनियों के लिए नियम
ये नियम विनय पिटक में मिलते है :
जब कोई भिक्खु एक नया कम्बल या गलीचा बनाएगा तो उसे इसका प्रयोग कम से कम छ: वर्षों तक करना पडेगा | यदि छ: वर्ष से कम अवधि में वह बिना भिक्खुओं की अनुमति के एक नया कम्बल या गलीचा बनवाता है तो चाहे उसने अपने पुराने कम्बल /गलीचे को छोड़ दिया हो या नही - नया कम्बल या गलीचा उससे ले लिया जाएगा और इसके लिए उसे अपराध स्वीकारना होगा |
यदि कोई भिक्खु किसी गृहस्थ के घर जाता है और उसे टिकिया या पके अनाज का भोजन दिया जाता है तो यदि उसे इच्छा हो तो वह दो से तीन कटोरा भर ही स्वीकार कर सकता है | यदि वह इसे ज्यादा स्वीकार करता है तो उसे अपना " अपराध " स्वीकार करना होगा | दो या तीन कटोरे पकवान स्वीकार करने के बाद उसे इन्हें अन्य भिक्खुओं के साथ बांटना होगा | यही सम्यक आचरण है |
यदि कोई भिक्खु जो संघ के किसी विहार में ठहरा हुआ है , प्रस्थान के पहले अपने द्वारा बिछाए गए या विछवाए गए बिस्तरे को न ही समेटता है , न ही समेटावाता है , या यदि वह बिना विदाई लिए चला जाता है तो उसे अपराध स्वीकार करना होगा |
यह अनूठा बौद्व ग्रन्थ सुत्त पिटक का हिस्सा है | इसमें भिक्खुनियों द्वारा रचित छंदों का संकलन किया गया है | इसमें महिलाओं के सामाजिक और आध्यात्मिक अनुभवों के बारे में अंतर्दृष्टि मिलती है | पुन्ना नाम की एक दासी अपने मालिक के घर के लिए प्रतिदिन सुबह नदी का पानी लाने जाती थी | वहां वह हर दिन एक ब्राह्मण को स्नान कर्म करते हुए देखती थी | एक दिन उसने ब्राह्मण से बात की | निम्नलिखित पद्य की रचना पुन्ना ने की थी जिसमें ब्राह्मण से उसकी बातचीत का वर्णन है :
मैं जल ले जाने वाली हूँ |
कितनी भी ठंढ हो
मुझे पानी में उतरना ही है
सजा के डर से
या ऊँचे घरानों की स्त्रियों के कटु वाक्यों के डर से |
हे ब्राह्मण तुम्हें किसका डर है ,
जिससे तुम जल में उतरते हो
(जबकि) तुम्हारे अंग ठंड से काँप रहे है ?
ब्राह्मण बोले :
मैं बुराई को रोकने के लिए अच्छाई कर रहा हूं ;
बूढा हो या बच्चा
जिसने भी कुछ बुरा किया हो
जल में स्नान करके मुक्त हो जाता है |
पुन्ना ने कहा :
यह किसने कहा है
कि पानी में नहाने से बुराई से मुक्ति मिलती है ?.......
वैसा हो तो सारे मेंढक और कछुए स्वर्ग जायंगे
साथ में पानी के सांप और मगरमच्छ भी !
इसके बदले में वे कर्म न करें
जिनका डर
आपको पानी की ओर खींचता है |
हे ब्राह्मण , अब तो रुक जाओ !
अपने शरीर को ठंढ से बचाओं ....................
इस वाद-विवाद से बुद्व के " सम्यक कर्म " की शिक्षा मिलती है |
बौद्व संघ में भिक्षुओं और भिक्खुनियों के लिए नियम
ये नियम विनय पिटक में मिलते है :
जब कोई भिक्खु एक नया कम्बल या गलीचा बनाएगा तो उसे इसका प्रयोग कम से कम छ: वर्षों तक करना पडेगा | यदि छ: वर्ष से कम अवधि में वह बिना भिक्खुओं की अनुमति के एक नया कम्बल या गलीचा बनवाता है तो चाहे उसने अपने पुराने कम्बल /गलीचे को छोड़ दिया हो या नही - नया कम्बल या गलीचा उससे ले लिया जाएगा और इसके लिए उसे अपराध स्वीकारना होगा |
यदि कोई भिक्खु किसी गृहस्थ के घर जाता है और उसे टिकिया या पके अनाज का भोजन दिया जाता है तो यदि उसे इच्छा हो तो वह दो से तीन कटोरा भर ही स्वीकार कर सकता है | यदि वह इसे ज्यादा स्वीकार करता है तो उसे अपना " अपराध " स्वीकार करना होगा | दो या तीन कटोरे पकवान स्वीकार करने के बाद उसे इन्हें अन्य भिक्खुओं के साथ बांटना होगा | यही सम्यक आचरण है |
यदि कोई भिक्खु जो संघ के किसी विहार में ठहरा हुआ है , प्रस्थान के पहले अपने द्वारा बिछाए गए या विछवाए गए बिस्तरे को न ही समेटता है , न ही समेटावाता है , या यदि वह बिना विदाई लिए चला जाता है तो उसे अपराध स्वीकार करना होगा |
स्तूपों की खोज :
जैसा कि बौद्व ग्रन्थों से जानकारी मिलती है कि सम्राट अशोक ने 84000 स्तूपों का निर्माण करवाया था | मौर्य वंश के पतन के बाद अन्य वंश के शासकों ने भी स्थापत्य कला के विकास में योगदान किया था | सातवाहन काल में निर्मित आंध्रप्रदेश के गुंटूर जिले में अमरावती के पास स्तूप के अवशेष मिले थे |
1796 में एक स्थानीय राजा को जो मन्दिर बनाना चाहते थे , अचानक अमरावती के स्तूप के अवशेष मिल गए | उन्हें ऐसा लगा जैसे खजाना मिल गया हो |
कुछ वर्षों के उपरान्त एक अंग्रेज अधिकारी कॉलिन मेकेंजी को उस इलाके के दौरे के समय कई मूर्तियाँ पाई और उनका विस्तृत चित्रांकन भी किया , लेकिन रिपोर्ट प्रकाशित नही हो पायी |
1854 में गुंटूर के कमिश्नर अमरावती से कई मूर्तियाँ मद्रास ले गए | वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अमरावती का स्तूप बौद्वों का सबसे विशाल और शानदार स्तूप था |
1850 के दशक के दौरान अमरावती के उत्कीर्ण पत्थर कुछ कलकता में एशियाटिक सोसायटी आफ बंगाल , कुछ मद्रास में इंडिया आफिस और कुछ पत्थर लन्दन पहुंचे |
पुरातत्ववेत्ता एच .एच. कोल ने का मानना था कि " इस देश की प्राचीन कलाकृतियों की लूट होने देना मुझे आत्मघाती और असमर्थनीय नीति लगती है "| वे मानते थे की संग्रहालयों में मोर्तियों की प्लास्टर प्रतिकृतियाँ रखी जानी चाहिए जबकि असली कृतियाँ खोज की जगह पर ही रखी जानी चाहिए |
दुर्भाग्य वश कोल की बातो का नजर अंदाज किया गया और अमरावती की कृतियाँ नष्ट हो गयी | शायद विद्वान इस बात को समझ ही नही पाए थे कि किसी पुरातात्विक अवशेष को संरक्षित करना कितना महत्वपूर्ण है |
अमरावती का स्तूप तो नष्ट हो गए परन्तु साँची का स्तूप नष्ट होने से बच गए |
साँची का स्तूप :
सांची का स्तूप विश्व की प्रमुख सांस्कृतिक धरोहरों में सम्मिलित किया गया है | साँची की पहाडी मध्यप्रदेश के रायसेन जिला मुख्यालय से 25 km की दूरी पर स्थित है | यह स्थल रेल और मुख्य सडक मार्ग से जुडा है | देश -विदेश से भारी संख्या में पर्यटक आते है |
साँची पर आधारित पुस्तकें :
* 1854 ई. में अलेक्जेंडर कनिघम ने " भिलसा टॉप्स " लिखी |
* 1923 ई. में जान मार्शल एवं अल्फ्रेड फूसे ने " The Monuments of Sanchi" |
साँची का स्तूप सुरक्षित कैसे ?
जैसा कि आपने ऊपर पढ़ा , अमरावती का स्तूप कैसे नष्ट हो गया | परन्तु साँची का स्तूप सुरक्षित रह गया | इसका श्रेय एच .एच. कॉल की महत्वपूर्ण सोच एवं भोपाल की बेगमों शाहजहाँ बेगम एवं उनकी उतराधिकारी सुलतान जहां बेगम को जाता है |
साँची और भोपाल की बेगमें :
अंग्रेज एवं फ्रांसीसियों ने साँची के पूर्वी तोरणद्वार को फ्रांस के संग्रहालय में प्रदर्शित करने के लिए भोपाल की बेगम से इजाजत माँगी | परन्तु दोनों को प्लास्टर से बनी हुबहू बनी प्रतिकृतियों को देकर संतुष्ट कराया गया और इस तरह साँची का स्तूप बन गया |
भोपाल की बेगमों ने प्राचीन स्थल के रख रखाव के लिए धन का अनुदान किया जिससे वहां एक संग्रहालय और अतिथिशाला का निर्माण किया गया |
यह स्तूप इसलिए भी बच गया क्योंकि रेल ठेकेदारों की नजर नही पडी | आज यह जगह भारतीय पुरात्त्त्विक सर्वेक्षण के सफल मरम्मत और संरक्षण का जीता जागता उदाहरण है | 1989 ई. में साँची को एक विश्व धरोहर में शामिल किया गया |
सांची स्तूप की खोज :
1818 ई. में जनरल टेलर ने साँची के स्तूपों की खोज की | इसके तीन तोरणद्वार सही रूप में खड़े थे जबकि चौथा वहीं पर गिरा हुआ था और टीला भी अच्छी हालात में था |
1851 ई. में अलेक्जेंडर कनिघम एवं कैप्टन एफ.सी. मैसी ने खुदाई कराई | उसने अवशेषों का अध्ययन किया और अपने निष्कर्ष को अपनी पुस्तक में प्रकाशित किये |
1881 में मेजर कॉल ने साँची में अनेक कार्य सम्पन्न कराये | 1912 में जान मार्शल ने खुदाई कराई | अंतिम बार 1936 ई. में खुदाई हुई |
साँची स्तूप का निर्माण :
महास्तूप का निर्माण सम्राट अशोक के समय (268-233 ई.पू. )ईंटों की सहायता से हुआ था एवं इसके चारों और काष्ठ की वेदिका बनी थी | शुंग वंश के काल (148 ई.पू. से 72 ई. पू. ) में स्तूप को पाषाण पटिकाओं से जड़ा गया एवं वेदिका भी पत्थर से बनायी गयी | सातवाहन काल में चारो दिशाओं में चार तोरणद्वार लगाए गए |
स्तूप का व्यास 126 फुट एवं ऊँचाई 54 फुट है |
साँची स्तूप की कला को समझने के लिए बुद्व के चरित लेखन को समझना जरुरी होता है | स्तूप और तोरण द्वार पर बनी कलाकृतियाँ बुद्व के जीवन की घटनाओं का प्रतीक के रूप में है | साथ ही जातक कथाओं से जुडी कथाओं को मूर्त रूप दिया गया है |
चित्र 4.14 बोधि वृक्ष की पूजा , वृक्ष , आसन और उसके चारों ओर जनसमुदाय का चित्रण
चित्र 4.15 बुद्व के ध्यान की दशा तथा स्तूप
चित्र 4.16 चक्र का प्रतीक के रूप में इस्तेमाल ( बुद्व द्वारा सारनाथ में दिए गए पहले उपदेश का प्रतीक
लोक परम्पराएं एवं शालभंजिका
साँची में उत्कीर्ण बहुत सी मूर्तियाँ बौद्व मत से सीधी जुडी नही थी | इन्ही में एक थी - शालभंजिका की मूर्ति
तोरणद्वार द्वार के किनारे एक पेड़ पकड कर झूलती हुई स्त्री | साहित्यिक परम्पराओं के अध्ययन से पता चला कि यह संस्कृत भाषा में वर्णित सालभंजिका की मूर्ती है | ऐसा माना जाता था कि इस स्त्री द्वारा छूए जाने से वृक्षों में फुल खिल उठाते थे और फल लगने लगते थे |
शालभंजिका से यह ज्ञात होता है जो लोग दूसरे धर्म , विश्वासों एवं प्रथाओं से आए थे , उनलोगों ने बौद्व धर्म को समृद्व किया |
साँची स्तूप पर उत्कीर्ण जानवरों की मूर्तियाँ मनुष्य के गुणों के प्रतीक के रूप में इस्तेमाल किया जाता था |
उदाहरण : हाथी शक्ति और ज्ञान के प्रतीक
इन प्रतीकों में कमल दल और हाथिओं के बीच एक स्त्री की मूर्ति है , ये हाथी स्त्री के ऊपर जल छिड़क रहे है जैसे वे उनका अभिषेक कर रहे हों | कुछ इतिहासकार बुद्व की माता माया से जोड़ते है तो दूसरे इतिहासकार देवी गजलक्ष्मी मानते है | गजलक्ष्मी सौभाग्य लाने वाली देवी थी जिन्हें प्राय: हाथिओं के साथ जोड़ा जाता है |
साँची स्तूप की मूर्ती कला को समझने के लिए बौद्व ग्रन्थों का अध्ययन जरुरी है | अन्यथा उसके अर्थ और ही निकल जाते है |
कला विषय पर लिखने वाले इतिहासकार जेम्स फर्गुसन ने साँची को वृक्ष और सर्प पूजा का केंद्र माना था | वे बौद्व साहित्य से अनभिज्ञ थे |
बौद्व सम्प्रदाय :
कालान्तर में बौद्व धर्म तीन भागो में विभाजित हो गया - क्रमश: हीनयान , महायान , वज्रयान
1. हीनयान / थेरवाद - हीनयान का अर्थ होता है - लघु चक्र | ये लोग बुद्व की मूल शिक्षाओं एवं सिद्वान्तों का अनुकरण करते थे | अष्टांगिक मार्ग में विश्वास रखते थे | मूर्ति पूजा में विश्वास नही था |
सम्राट अशोक हीनयान धर्म का संरक्षक था |
2. महायान - महायान का अर्थ है - मोक्ष का महाचक्र | मूर्ति पूजा में विश्वास रखते थे | बुद्व को मानव के स्थान पर भगवान के रूप पूजा करने लगे | महायान धर्म का संरक्षक कनिष्क था | प्रथम शताब्दी में आयोजित चतुर्थ बौद्व संगीति में बौद्व धर्म दो भाग में विभाजित हो गया था |
3. वज्रयान- इस सम्प्रदाय का उदय 8वीं सदी के दौरान बिहार एवं बंगाल में हुआ | यह एक कर्मकांडीय सम्प्रदाय थी | जिसमें स्त्रियाँ और मदिरा आवश्यक का प्रयोग होता था | इसकी बुराइयां ही बौद्व धर्म के पतन का कारण बनी |
पौराणिक हिन्दू धर्म का उदय

इस नई परंपराओं में वैष्णव मत और शैव मत के बारे में अध्ययन करेंगे |
वैष्णव मत :
वैष्णव मत का विकास भागवत धर्म से हुआ है | भागवत धर्म के प्रवर्तक श्री कृष्ण को माना है | वैष्णव धर्म के अधिष्ठाता देवता विष्णु है |
पाणिनी रचित " अष्टाध्यायी " ग्रन्थ में भागवत धर्म का उल्लेख मिलता है |
छन्दोग्य उपनिषद में भी श्रीकृष्ण को देवकी पुत्र और अंगीरस का शिष्य बताया गया है |
भागवत धर्म का प्रमुख केंद्र मथुरा था जहां से देश के अन्य भागों में फैला |
वैष्णव धर्म का चरमोत्कर्ष गुप्त कल ( 319-550 ई. ) में हुआ | विष्णु का वाहन " गरुड़ " गुप्त राजाओं का राजचिंह था और वैष्णव धर्म राजधर्म |
गुप्त काल में बने प्रमुख विष्णु मन्दिर
1. तिगवा विष्णु मंदिर ( जबलपुर , मध्यप्रदेश )
2. देवगढ़ का दशावतार मंदिर ( झांसी , मध्य प्रदेश )
3. ऐरण का विष्णु मन्दिर ( महाराष्ट्र )
राजपुत काल के दौरान वैष्णव मत का विकास हुआ | उस काल के विभिन्न लेखों " ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नम: " कहकर भगवान श्री विष्णु के प्रति श्रद्वा प्रकट की गयी |
गुप्त काल में लिखे गए पुराणों में श्री विष्णु के दस अवतारों का वर्णन मिलता है | कालांतर में इनकी मूर्तियाँ निर्मित की गयी |
दस अवतार :
1. मत्स्य अवतार: महा जलप्रलय के समय भगवान विष्णु ने मत्स्य अवतार धारण कर पृथ्वी की वेदों एवं मनु की रक्षा की |
2. कच्छप अवतार : महा जलप्रलय के समय अमृत और बहुमूल्य रत्न समुद्र में विलीन हो गए | ऐसे में श्री विष्णु ने कच्छप अवतार लेकर मंदराचल पर्वत रखकर नाग को डोरी बनाकर देवताओं ने समुद्र मंथन किया | इस मंथन से अमृत , लक्ष्मी एवं 14 अन्य रत्नों की प्राप्ति हुई |
3. वराह अवतार : जब पृथ्वी पर राक्षस राज हिरण्याक्ष का जुल्म बाद गया तो श्री विष्णु ने वराह अवतार के रूप में जन्म लेकर उससे पृथ्वी की रक्षा की |
4. नृसिंह अवतार : भक्त पहलाद को उसके ही पिता राक्षस हिरन्यकश्यप से बचाने के लिए नरसिंह का अवतार लिया |
5. वामन अवतार : ऐसा कहा जाता है की बलि नामक राक्षस ने समस्त ब्राह्मांड पर अधिकार कर लिया था परन्तु वह एक महादानी भी था | देवताओं के अनुनय-विनय पर श्री विष्णु ने बौने का अवतार लिया और बलि के समक्ष तीन पग भूमि माँगी | बलि तैयार हो गया | फिर श्री विष्णु ने अपना विशाल आकार धारण किया और दो पग में पृथ्वी , आकाश को नाप दिया | तीसरा पग बलि के सिरपर रखा जिससे बलि पाताल लोक चला गया |
6. परशुराम अवतार : इन्होने 21 बार पृथ्वी को क्षत्रियों से विहीन कर दिया था |
7. राम अवतार : भगवान श्रीविष्णु ने रावण को वध करने के लिए श्री राम के रूप में अवतार लिए |
8. कृष्ण अवतार : राक्षस कंस को मारने के लिए श्री विष्णु ने श्री कृष्ण का अवतार लिया |
9. बुद्व अवतार : पशु बलि रोकने, लोगों को धर्म का , दया का,सत्य का , अहिंसा का उपदेश देने के लिए श्री विष्णु का बुद्व के रूप में अवतार हुआ |
10. कल्कि अवतार : ऐसा माना जाता है की कल्कि अवतार भविष्य में लिया जाने वाला अवतार है|
कलयुग में अपराध , अधर्म से पृथ्वी को मुक्त करने के लिए श्री विष्णु श्वेत अश्व पर सवार होकर अवतार लेंगे |

दक्षिण भारत में वैष्णव मत :
बौद्व धर्म एवं जैन धर्म के बढ़ाते प्रभाव को रोकने के लिए वैष्णव मत का प्रचार -प्रसार किया गया |
दक्षिण भारत में वैष्णव अनुयायियों को आलवार संत कहा गया | आलवार का अर्थ होता है ज्ञानी व्यक्ति | आलवार संतों की संख्या 12 बताई गयी है |
वैष्णव मत के प्रमुख संत :
नाथमुनी, यमुनाचार्य, रामानुजाचार्य , आदि
वैष्णव मत के सिद्वांत :
1. विष्णु भक्ति द्वारा मोक्ष प्राप्ति पर बल
2. ज्ञान , कर्म एवं भक्ति द्वारा मोक्ष पर बल
3. अवतारवाद पर विश्वास
अवतारवाद की पुष्टि भागवत गीता और रामचरितमानस में भी मिलता है |
गोस्वामी तुलसी दास लिखते है :
बढ़हिं असुर महाभिमानी ||
तब तब प्रभु धर विविध शरीरा |
हरिहं कृपा निधि सज्जन पीढ़ा ||"
भागवत गीता में कहा गया है -
" यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवती भारत |
अभ्युथानम धर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यह्न्म ||
परित्राणाय साधुनां विनाशाय च दुष्कृताम |
धर्म संस्थापनाथार्य सम्भवामि युगे युगे ||"
अर्थात हे भारत | जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्वी होती है तब-तब मैं स्वयं को प्रकट करता हूँ | साधू-संतों के उद्वार व दुष्टों के विनाश के लिए , धर्म की स्थापना करने के लिए मैं प्रत्येक युग में प्रकट होता हूँ |
शैव मत :
भगवान शिव से सम्बन्धित धर्म को " शैव " कहा जाता है | उनके मत को मानने वाले को शैव मतावलम्बी कहते है |
ऋग्वेद में शिव को रूद्र कहा जाता था | हडप्पा सभ्यता में भी शिव के साक्ष्य मिले है |
कौटिल्य के अर्थशास्त्र से पता चलता है कि मौर्य काल में भी शिव पूजा प्रचलित थी | गुप्तकाल में भूमरा का शिव मन्दिर और नचना कुठार का पार्वती मंदिर शैव मन्दिर थी |
चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी शिव पूजा का उल्लेख किया है | राजपूत काल (800-1200 ई.) के दौरान शैव धर्म का उन्नति काल था |
कालिदास ,भवभूति , सुबन्धु, एवं बाणभट्ट जैसे विद्वान शैव धर्म के उपासक थे |
दक्षिण भारत में शैव धर्म : दक्षिण भारत में राष्ट्रकूट ,पल्लव , चालुक्य एवं चोल राजवंशों ने शैव धर्म को संरक्षण दिया |
राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण II ने एलोरा का कैलाशनाथ मंदिर बनाया |
चोल शासक राजराज प्रथम ने तंजौर में राजराजेश्वर मंदिर बनाया |
राजेन्द्र चोल ने तंजौर में वृहदेश्वर मंदिर का निर्माण करवाया |
नयनार : शैव मत के अनुयायी नयनार कहलाते है | नयनार संतों की संख्या 63 बताई जाती है | इनमें अप्पार,तिरुज्ञान , सुन्दरमूर्ति एवं मनिकवाचागर का नाम प्रमुख है |
शैव् धर्म के सिद्वांत :
1. शैव संत भजन-कीर्तन, शास्त्रार्थ एवं उपदेश के माध्यम से तमिल समाज में शैव धर्म का प्रचार-प्रसार करते थे और ईश्वर प्राप्ति का एकमात्र साधन मानते थे |
2. नयनार जात-पात ,ऊंच-नीच के भेदभाव के विरोधी थे |
3. भक्ति का उपदेश तेलगू भाषा में देते थे |
वामन पुराण में शैव धर्म की संख्या चार बताई गयी है |
1. पाशुपत 2. कापालिक/कालामुख 3.. लिंगायत 4. नाथ
1. पाशुपत सम्प्रदाय : शैव धर्म का सर्वाधिक प्राचीन सम्प्रदाय माना जाता है और इसके संस्थापक लकुलीश थे |
इस सम्प्रदाय का प्रमुख मन्दिर नेपाल का पशुपति नाथ मंदिर है |
2. कापालिक : इस सम्प्रदाय के इष्टदेव "भैरव" को माना जाता है |इस मत के अनुयायी शरीर पर श्मशान की भस्म लगाते थे, गले में नरमुंड की माला धारण करते थे | भवभूति द्वारा रचित ग्रन्थ "मालती माधव " के अनुसार इनका प्रमुख केंद्र श्रीशैल नामक स्थान बताया गया है |
3. लिंगायत सम्प्रदाय : 12वीं सदी में लिंगायत या वीरशैव आन्दोलन का उदय हुआ | इस सम्प्रदाय का संस्थापक वासव् और उनका भतीजा चन्नावासव था | ये वेद और मूर्तिपूजा के विरोधी है परन्तु शिव का इष्टलिंग धारण करते है | ये कर्म की प्रधानता देते है | इस सम्प्रदाय के मानने वाले मुख्य रूप से कर्नाटक में है |
4. नाथ सम्प्रदाय : 10 वीं सदी के दौरान मत्येन्द्र नाथ ने नाथ सम्प्रदाय की स्थापना की | परन्तु बाद में बाबा गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय को आगे बढ़ाया | उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ इसी सम्प्रदाय से सम्बन्धित है |
मंदिरों का विकास :
* भारत में मंदिरों का विकास बौद्व स्तूपों और विहारों के निर्माण से आरम्भ माना जाता है |
* आरम्भ में देवी-देवताओं की मूर्तियों को रखने के लिए एक चौकोर कमरा बनाया गया जिन्हें गर्भगृह कहा जाता था | इनमें एक दरवाजा होता था जिससे उपासक पूजा हेतु मन्दिर में प्रविष्ट हो सकता था |
* धीरे-धीरे गर्भगृह के ऊपर एक दांचा बनाया जाने लगा जिसे शिखर कहा जाता था | मन्दिरकी दीवारों पर भीती चित्र उत्कीर्ण किए जाते थे |
* समय के साथ मंदिरों का स्थापत्य का काफी विकास हुआ | मंदिरों के साथ विशाल सभास्थल , ऊंची दीवारों और तोरण का भी निर्माण होने लगा |
* आरम्भ के मंदिर पहाड़ियों को काट कर खोखला करके कृत्रिम गुफाओं के रूप में बनाए गए थे |
* सबसे प्राचीन कृत्रिम गुफाएं ईसा पूर्व तीसरी सदी में सम्राट अशोक के आदेश से बिहार के गया में बराबर की गुफाएं थी जो आजीविक सम्प्रदाय के संतों के लिए बनाई गयी थी |
* बाद में यह परम्परा विकसित होती रही | आठवीं सदी में निर्मित कैलाशनाथ मन्दिर इसी का उदहारण है |
उत्कीर्ण चित्रों को समझने की कोशिश :
* भारतीय इतिहास को समझने की कोशिश अंग्रेजों के आगमन से आरम्भ होती है | 19वीं सदी में विद्वानों को ये मूर्तियाँ विकृत लगती थी |
* तक्षशिला और पेशावर से उत्खनन से प्राप्त बुद्व और बोधिसत की मूर्तियों का यूनानी कला से तुलना की | क्योंकि दूसरी सदी ईसा पुर्व में उस क्षेत्रों पर हिन्द -यूनानी राजाओं का शासन था और ये मूर्तियाँ यूनानी मूर्ती कला से मिलती थी |
* विद्वानों ने भारतीय मूर्ती कला को समझने के लिए धार्मिक ग्रन्थों का सहारा लिया |
* धार्मिक ग्रंथो के कथाओं के आधार पर उत्कीर्ण मूर्तिओं का अर्थ निकालना इतना आसान नही था | इसका एक उदाहरण है - महाबलीपुरम (तमिलनाडु) में कात्तान पर उत्कीर्ण मूर्तियाँ |
कुछ का मानना है कि इसमें गंगा नदी के स्वर्ग से अवतरण का चित्रण है | चट्टान की सतह के मध्य प्राकृतिक दरार शायद नदी को दिखा रही है | यह कथा पुराणों में वर्णित है |
दूसरे विद्वान का मानना है कि दिव्याश्त्र प्राप्त करने के लिए महाभारत में दी गई अर्जुन की तपस्या को दिखाया गया है | वे मूर्तियों के बीच एक साधू को केंद्र में रखे जाने की बात को महत्त्व देते है |
अंतत: यह ध्यान रखना चाहिए कि बहुत से रीति-रिवाज, धार्मिक विश्वास और व्यवहार इमारतों ,मूर्तियों या चित्रकला के द्वारा स्थायी दृश्य माध्यमों के रूप में दर्ज नही किए गए | इनमें दिन-प्रितिदीन और विशिष्ट अवसरों के रीति-रिवाज शामिल है | सम्भव है कि धार्मिक गतिविधियों और दार्शनिक मान्यताओं की उनकी सक्रिय परम्परा रही हो | वस्तुत: इस अध्याय में जिन शानदार उदाहरणों को चुना है वे एक विशाल ज्ञान की मात्र ऊपरी परत है |
समाप्त
Super
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