Friday, 3 July 2020

भक्ति-सूफ़ी परम्पराएं वर्ग 12 पाठ 6 भाग 1

भक्ति-सूफ़ी परम्पराएं


धार्मक विश्वासों में बदलाव और श्रद्वा ग्रन्थ ( लगभग 8वीं से 18वीं सदी तक )

परिचय 
*  मध्यकालीन भारत में भक्ति परम्पराओं  का आरम्भ और विस्तार 
* मध्यकालीन भारत में सूफ़ी परम्पराओं का आरम्भ और विस्तार 

    भारत में धार्मिक इतिहास का आरम्भ वैदिक परम्परा से हो चुका था | उत्तर वैदिक काल में जब कर्मकांडों की जटिलता एवं बहुलता से जनमानस त्रस्त हो गया तो 6वीं सदी ई.पू. जैन धर्म और बौद्व धर्म ने राहत प्रदान की | इन धर्मों ने जाति-पांति, उंच -नीच , भेद-भाव से अपने को दूर कर आम जनता को आकर्षित किया | कालन्तर में बौद्व धर्म में वज्रयान शाखा के उदय से इस धर्म में तंत्र ,मन्त्र एवं अन्य बुराइयां पनपी |  इन परिस्थितयों का लाभ उठाकर दक्षिण  भारत में  शैव और वैष्णव धर्म का विकास हुआ |

पूजा प्रणालियों का समन्वय :
    इतिहासकारों का मानना है कि पूजा प्रणालियों के विकास में दो प्रक्रियाओं का पालन होने लगा था |
* एक प्रक्रिया ब्राह्मनीय विचारधारा के प्रचार की थी | इसका प्रसार पौराणिक ग्रन्थों की रचना, संकलन और परिरक्षण द्वारा हुआ | वे ग्रन्थ सरल संस्कृत छंदों में थे जो वैदिक विद्या से विहीन स्त्रियों और शूद्रों द्वारा भी ग्राह्य थे | 

* दूसरी प्रक्रिया स्त्री,शूद्रों व् अन्य सामाजिक वर्गों की आस्थाओं और आचरणों को ब्राह्मणों द्वारा स्वीकृत किया जाना और उसे एक नया रूप प्रदान करना था |
    समाजशास्त्रियों के अनुसार इस प्रकार की विचारधाराएँ और पद्वतियां " महान" संस्कृत- पौराणिक परिपाटी तथा "लघु" परम्परा के बीच हुए अविरल सम्वाद का परिणाम है |
   
इस प्रक्रिया का उदाहरण पुरी,उड़ीसा में मिलता है जहाँ मुख्य देवता को 12वीं सदी तक आते-आते जगन्नाथ (सम्पूर्ण विश्व का स्वामी ), विष्णु के एक स्वरूप के रूप में प्रस्तुत किया गया |
     इस अंतर का उल्लेख इस लिए किया गया है कि इस स्थानीय देवता को जिसकी प्रतिमा को पहले और आज भी लकड़ी से स्थानीय जनजाति के विशेषज्ञों द्वारा निर्मित किया जाता है ,विष्णु के रूप में प्रस्तुत किया गया है | विष्णु का यह रूप देश के अन्य भागों में मिलने वाले स्वरूपों से भिन्न था |
 "महान " और "लघु" परम्पराएं 
"महान"  और " लघु" शब्द 20 वीं शताब्दी के समाजशास्त्री  राबर्ट रेड्फिल्ड द्वारा  एक कृषक समाज के सांस्कृतिक आचरणों का वर्णन करने के लिए गढा गया |
    इस समाजशास्त्री ने देखा कि किसान उन कर्मकाण्डो और पद्वतियों का अनुकरण करते थे जिनका समाज के प्रभुत्वशाली वर्ग जैसे पुरोहित और राजा द्वारा पालन किया जाता था |इन कर्मकांडो को रेड्फिल्ड ने " महान " कहा है | साथ ही कृषक समुदाय अन्य लोकाचारों का भी पालन करते थे जो इस महान परिपाटी से सर्वथा भिन्न थे |उसने इन्हें "लघु" परम्परा कहा | रेडफिल्ड ने यह भी देखा कि महान और लघु दोनों ही परम्पराओं में समय के साथ हुए पारस्परिक आदान-प्रदान के कारण परिवर्तन हुए |                      


    8 वीं सदी के दौरान देवी की आराधना पद्वति का विकास हुआ | देवी की उपासना अधिकतर सिन्दूर से पोते गए पत्थर के रूप में ही की जाती थी | इस स्थानीय देवियों को पौराणिक परम्परा के भीतर मुख्य देवताओं की पत्नी के रूप में मान्यता दी गई | लक्ष्मी को विष्णु की पत्नी के रूप में और पार्वती को शिव की पत्नी के रूप में मान्यता दी गयी |
   अधिकांशत:  देवी की आराधना पद्वति को तांत्रिक नाम से जाता है | इस पूजा में स्त्री और पुरूष दोनों शामिल हो सकते थे तथा वर्ग एवं वर्ण के भेद की अवहेलना की जाती थी | 
    ईश्वर की उपासना यदि बिना किसी यज्ञ एवं मंत्रोच्चार से होती थी तो वैदिक परम्परा के लोग नाराज होते थे | तांत्रिक आराधना वाले लोग वैदिक परम्परा को नही मानते |  जैन एवं बौद्व धर्म में भी कभी-कभी तनावपूर्ण स्थिति उत्पन्न हो जाती थी | इन परिस्थितयों  में दक्षिण भारत में शैव एवं वैष्णव धर्म का विकास हुआ |

भक्ति परम्परा :

    भक्ति परम्पराओं में ब्राह्मण, देवताओं और भक्तजन के बीच  महत्वपूर्ण संयोजक बने रहे तथापि स्त्रियों और निम्न वर्गों को भी स्वीकार किया | 
    धर्म के इतिहासकार भक्ति परम्परा को दो वार्गों में विभाजित किया है - 
* सगुन (विशेषण सहित ): शिव, विष्णु तथा उनके अवतार व देवियों की मूर्त रूप में उपासना की गई थी   |
* निर्गुण (विशेषण विहीन ) : निर्गुण भक्ति परम्परा में अमूर्त, निराकार, ईश्वर की उपासना की जाती थी |

दक्षिण भारत में भक्ति परम्परा :
    प्रारम्भिक भक्ति आन्दोलन (लगभग 6ठी शताब्दी ) आलवारों (विष्णु भक्ति में तन्मय ) और नयनारों (शिवभक्त ) के नेतृत्व में हुआ |  वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करते हुए तमिल में अपने ईष्ट (ईश्वर) की स्तुति में भजन गाते थे |
    अपनी यात्राओं के दौरान अलवार और नयनार ने कुछ पावन स्थलों को अपने ईष्ट का निवास्थल घोषित किया |इन्ही स्थलों पर बाद में विशाल मंदिरों का निर्माण हुआ और वे तीर्थ स्थल माने गए | संत-कवियों के भजनों को इन मन्दिरों में अनुष्ठानों के समय गाया जाता था और साथ ही इन संतों की प्रतिमा की भी पूजा की जाती थी |

दक्षिण भारत में वैष्णव मत :
 बौद्व धर्म एवं जैन धर्म के बढ़ाते प्रभाव को रोकने के लिए वैष्णव मत का प्रचार -प्रसार किया गया |
दक्षिण भारत में वैष्णव अनुयायियों को आलवार संत कहा गया | आलवार का अर्थ होता है ज्ञानी व्यक्ति | आलवार संतों की संख्या 12 बताई गयी है |
वैष्णव मत के प्रमुख संत :
नाथमुनी, यमुनाचार्य, रामानुजाचार्य , आदि 
वैष्णव मत के सिद्वांत :
1. विष्णु भक्ति द्वारा मोक्ष प्राप्ति पर बल 
2. ज्ञान , कर्म एवं भक्ति द्वारा मोक्ष पर बल 
3. अवतारवाद पर विश्वास 
नयनार : शैव मत के अनुयायी नयनार कहलाते है | नयनार संतों की संख्या 63 बताई जाती है | इनमें अप्पार,तिरुज्ञान , सुन्दरमूर्ति एवं मनिकवाचागर का नाम प्रमुख है |

शैव् धर्म के सिद्वांत :
1. शैव संत भजन-कीर्तन, शास्त्रार्थ एवं उपदेश के माध्यम से तमिल समाज में शैव धर्म का प्रचार-प्रसार करते थे  और ईश्वर प्राप्ति का एकमात्र साधन मानते थे |
2.  नयनार जात-पात ,ऊंच-नीच के भेदभाव के विरोधी थे |
3.भक्ति का उपदेश तेलगू भाषा में देते थे |

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