यात्रियों के नजरिए
* लगभग 1500 ई. में भारत में पुर्तगालियों के आगमन के पश्चात उनमें कई लोगों ने भारतीय सामाजिक रीति-रिवाजों तथा धार्मिक प्रथाओं के विषय में विस्तृत वृतांत लिखे | समाज के बारे में उनकी समझ
(लगभग दसवीं से सत्रहवीं सदी तक )
* जेसुइट राबर्टो नोबिली ने भारतीय ग्रन्थों को यूरोपीय भाषाओं में अनुवादित भी किया |
* सबसे प्रसिद्व यूरोपीय लेखकों में पुर्तगाल निवासी दुआर्ते बरबोसा , जिसने दक्षिण भारत में (कृष्णदेव राय के दरबार में आया था ) व्यापार और समाज का एक विस्तृत विवरण लिखा |
* 1600 ई. के बाद आने वाला प्रसिद्व यात्री फ्रांसीसी जौहरी ज्यौं - बैप्टिस्ट तैवार्नियर था जो कम-से-कम छह बार भारत की यात्रा की थी | वह विशेष रूप से भारत की व्यापारिक स्थितियों से प्रभावित था और उसने भारत की तुलना ईरान और आटोमान साम्राज्य से की |
* इतालवी चिकित्सक मनूकी 1656ई. में भारत आया और यही बस गए |
* फ्रांस का रहनेवाला फ्रांस्वा बर्नियर एक चिकित्सक, राजनीतिक, दार्शनिक तथा एक इतिहासकार था | वह 1656 से 1668 तक भारत में बारह वर्ष तक रहा और मुग़ल से नजदीकी रूप से जुड़ा रहा - पहले सम्राट शाहजहाँ के ज्येष्ठ पुत्र दारा शिकोह के चकित्सक के रूप में , और बाद में मुग़ल दरबार के एक आर्मीनियाई अमीर दानिशमंद खान के साथ एक बुद्विजीवी तथा वैज्ञानिक के रूप में |
फ्रांस्वा बर्नियर का पूर्व और पश्चिम की तुलना
* बर्नियर ने देश के कई भागों की यात्रा की और जो दीक्षा उसके विषय में विवरण लिखे | साथ ही भारत में जो देखता उसकी तुलना यूरोपीय स्थिति से करता था |
* बर्नियर अपनी प्रमुख कृति "ट्रेवल्स इन द मुग़ल एम्पायर" को फ्रांस के शासक लूई XIV को समर्पित किया |
* प्रत्येक दृष्टांत में बर्नियर ने भारत की स्थिति को यूरोप में हुए विकास की तुलना में दयनीय बताया |
* बर्नियर के कार्य फ्रांस में 1670-71 में प्रकाशित हुए थे, और अगले पांच वर्षों के भीतर ही अंगरेजी, डच, जर्मन तथा इतालवी भाषाओं में इसका अनुवाद हो गया |
* 1670-1725 के बीच उसका वृतांत फ्रांसीसी में आठ बार पुनर्मुद्रित हो चुका था और 1684 तक यह तीन बार अंगरेजी में पुनर्मुद्रित हुआ था |
भारत के विषय में विचारों का निर्माण व् प्रसार भारत के विषय में विचारों का सृजन और प्रसार कर यूरोपीय यात्रियों के वृतांतों ने उनकी पुस्तकों के प्रकाशन और प्रसार के मध्यम से यूरोपीय लोगों के लिए भारत की छवि के सृजन में सहायता की | बाद में, 1750 के बाद , जब शेख इतिसमुद्वीन तथा मिर्जा अबू तालिब जैसे भारतीयों ने यूरोप की यात्रा की तो उन्हें यूरोपीय लोगों की भारतीय समाज की छवि का सामना करना पड़ा और उन्होंने तथ्यों की अपनी अलग व्याख्या के माध्यम से इसे प्रभावित करने का प्रयास किया | |
* फ्रांस्वा बर्नियर ने अपने यात्रा वृतांत में मुगलकालीन भारत की तुलना यूरोप से करता रहा , और यूरोप को श्रेष्ठ दिखाया |
* बर्नियर तत्कालीन भूमि स्वामित्व पर प्रश्न उठाता है - उसे यह लगा की मुग़ल साम्राज्य में सम्राट सारी भूमि का स्वामी था जो इसे अपने अमीरों के बीच बांटता था, और इसके अर्थव्यवस्था और समाज के लिए अनर्थकारी परिणाम होते थे | राजकीय स्वामित्व के कारण भूधारक भूमि के प्रति उदासीन रहते थे | इसी कारण कृषि का समान रूप से विनाश, किसानों का असीम उत्पीडन तथा समाज के सभी वर्गों के जीवन स्तर में अनवरत पतन की स्थिति उपन्न हुई , सिवाय शासक वर्ग के |
* बर्नियर बहुत विश्वास से कहता था - " भारत में मध्य की स्थिति के लोग नही है "|
* बर्नियर लिखता है - इसका राजा "भिखारियों और क्रूर लोगों " का राजा था; इसके शहर और नगर विनष्ट तथा "खराब हवा " से दूषित थे ; और इसके खेत "झाड़ीदार" तथा "घातक दलदल " से भरे हुए थे और इसका मात्र एक ही कारण था -राजकीय भूस्वामित्व |
आश्चर्य की बात यह है की एक भी सरकारी मुग़ल दस्तावेज यह इंगित नहीं करता की राज्य ही भूमि का एकमात्र स्वामी था | अकबर काल में अबुल फजल भूमि राजस्व को "राजत्व का पारिश्रमिक " बताता है जो राजा द्वारा अपनी प्रजा को सुरक्षा प्रदान करने के बदले की गई मांग प्रतीत होती है न की अपने स्वामित्व वाली भूमि पर लगान |
* बर्नियर के विवरणों ने पश्चमी विचारकों को भी प्रभावित किया | मांतेस्क्यु और कार्ल मार्क्स विशेष रूप से प्रभावित था और ऐसी व्यवस्था को हानिकारक बताया |
* यह भी एक सच्चाई थी की भारत से निर्यातित उत्पादों के बदले सोना चांदी प्राप्त होते थे |
* 17वीं शताब्दी में जनसंख्या का लगभग 15% भाग नगरों में रहता था | यह औसत उस समय यूरोप की नगरीय जनसंख्या के अनुपात से अधिक था |
* परन्तु बर्नियर मुगलकालीन शहरों को " शिविर नगर " कहता था |
* बर्नियर वर्णन करता है की उस समय सभी प्रकार के नगर अस्तित्व में थे ; उत्पादन केंद्र, व्यापारिक नगर, बन्दरगाह नगर,धार्मिक केंद्र, तीर्थ स्थान आदि |
* व्यापारिक अक्सर मजबूत सामुदायिक अथवा बन्धुत्व के सम्बन्धों से जुड़े होते थे और अपनी जाति तथा व्यावसायिक संस्थाओं के माध्यम से संगठित रहते थे |
* पश्चमी भारत में व्यापारिक समूहों को महाजन कहा जाता था और उनके मुखिया को सेठ |
* शहरी केन्द्रों में सभी महाजनों का सामूहिक प्रतिनिधित्व व्यापारिक समुदाय के मुखिया द्वारा होता था जिसे नगर सेठ कहा जाता था |
* अन्य शहरी समूहों में व्यावसायिक वर्ग जैसे चिकित्सक (हकिम अथवा वैद्य ), अध्यापक (पंडित या मुल्ला ), अधिवक्ता ,चित्रकार ,वास्तुविद, संगीतकार, सुलेखक आदि सम्मिलित थे | जहाँ कई राजकीय प्रश्रय पर आश्रित थे, कई अन्य संरक्षकों वाले बाजार में आमलोगों के सेवा द्वारा जीवनयापन करते थे
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