Sunday 1 November 2020

Colonialism and the Countryside (उपनिवेशवाद और देहात) Bombay Deccan revolt-1875)-NCERT class 12 chapter 10 part 6

Colonialism and the Countryside (उपनिवेशवाद और देहात)

Bombay Deccan revolt-1875)

औपनिवेशिक बंगाल के किसानों और जमींदारों और राजमहल के पहाड़ियों और संथालों के जीवन का दृष्ट्पात करने के बाद आइये पश्चिम भारत के बंबई और ढक्कन के देहाती क्षेत्रों दृष्टि डालते है |

बंगाल और बम्बई ढक्कन के देहाती क्षेत्रों में किसान विद्रोह का आकलन करें तो समस्त विद्रोहों के विषय में कुछ विशिष्ट अभिलेखीय साक्ष्य मिलते है जिनसे यह ज्ञात होता है कि अधिकारी न सिर्फ विद्रोह दबाने का प्रयत्न करते है बल्कि उसकी जांच के लिए आयोग की नियुक्ति करके मूल्यांकन द्वारा कुछ सुधार तथा परिवर्तन लागू करते है|

19वीं सदी के दौरान , भारत के विभिन्न प्रान्तों के किसानों ने साहूकारों और अनाज के व्यापारियों के विरूद्व अनेक विद्रोह किए| ऐसा ही एक ढक्कन में 1875 में विद्रोह हुआ|

ढक्कन विद्रोह (Deccan Revolt)

यह आन्दोलन पूना (आधुनिक पुणे) जिले के एक बड़े गाँव सूपा में शूरो हुआ| सूपा एक विपन्न केंद्र था जहां अनेक व्यापारी और साहूकार रहते थे| 12 मई 1875 को, आसपास के ग्रामीण इलाकों के रैयत इकट्ठे हो गए , उन्होंने साहूकारों से उनके बही-खातों और ऋणबंधों की मांग करते हुए उन पर हमला बोल दिया| उन्होंने उनके बही-खाते जला दिए, अनाज की दुकानें लूट लीं और कुछ मामलों में तो साहूकारों के घरों को भी आग लगा दी|

पूना से यह विद्रोह अहमदनगर में फ़ैल गया| फिर अगले दो महीनों में यहाँ और भी आग फ़ैल गई और 6500 वर्ग किलोमीटर का इलाका इनकी चपेट में आ गया | तीस से अधिक गाँव कुप्रभावित हुए | सब जगह विद्रोह का स्वरूप एकसमान ही था |


1. साहूकारों पर हमला किया गया

2. बही-खाते जला दिए गए

3. ऋणबन्ध नष्ट कर दिए गए

4. गोदामों में रखे अनाज लूट लिए गए

विद्रोह का दमन :


1. विद्रोही किसानों के गाँवों में पुलिस थाणे स्थापित किये गए

2. विद्रोह को काबू करने के लिए सेनाएं बुला ली गयी

3. 95 लोगों को गिरफ्तार किया गया और बहुतों को दण्डित किया गया

ढक्कन दंगा आयोग की कलम से

16 मई 1875 को, पूना के जिला मजिस्ट्रेट ने पुलिस आयुक्त को लिखा :

शनिवार दिनांक 15 मई को सूपा आने पर मुझे इस उपद्रव का पता चला | एक साहूकार का घर पूरी तरह से जला दिया गया ; लगभग एक दर्जन मकानों को तोड़ दिया गया औअर उनमें घुसकर वहां के सारे सामान को आग लगा दी गई| खाते पात्र, बांड, अनाज, देहाती कपड़ा , सड़कों पर लाकर जला दिया गया, जहां राख के ढेर अब भी देखे जा सकते है |

मुख्य कांस्टेबल ने 50 लोगों को गिरफ्तार किया | लगभग 2000 रू का चोरी का माल छुड़ा लिया गया| अनुमानत: 25000 रो से अधिक की हानि हुई | साहूकारों का दावा है कि एक लाख रू से ज्यादा का नुकसान हुआ |



ढक्कन विद्रोह : समाचारपत्र में छपी रिपोर्ट

"रैयत और साहूकार " शीर्षक नामक निम्नलिखित रिपोर्ट 6 जून 1876 के "नेटिव ओपीनियन " नामक समाचार पत्र में छपी और उसे मुम्बई के नेटिव न्यूजपेपर्स की रिपोर्ट में यथावत उद्वुत किया गया (हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत है ):

" वे रैयत सर्वप्रथम अपने गाँवों की सीमाओं पर यह देखने के लिए जासूसी करते है कि क्या कोई सरकारी अधिकारी आ रहा है और अपराधियों को समय रहते उनके आने की सूचना दे देते है | फिर वे एक झुण्ड बनाकर अपने ऋण दाताओं के घर जाते है और उनसे उनके ऋण पत्र और अन्य दस्तावेज मांगते है और इनकार करने पर ऋण दाताओं पर हमला करके छीन लेते है | यदि ऐसी किसी घटना के समय कोई सरकारी अधिकारी उन गाँवों की और आता हुआ दिखाई दे जाता है तो गुत्चार अपराधियों को इसकी खबर पहूँचा देते है और अपराधी समय रहते ही तितर -बितर हो जाते है "



👉आखिर ढक्कन विद्रोह क्यों हुआ ?

👉 ऋण पत्र और दस्तावेज क्यों जलाए गए थे ?

👉विद्रोह से ढक्कन के देहात के बारे में और वहां औपनिवेशिक शासन में हुए कृषि या भूमि संबंधी परिवर्तनों के बारे में क्या पता चलता है ?

अंग्रेजों ने बंगाल में स्थायी बंदोबस्त राजस्व प्रणाली लागू किया था | इस व्यवस्था का परिणाम देख चुके थे | इसलिए ब्रिटिश शासन ने बम्बई - ढक्कन में एक नयी प्रणाली लागू की गई जिससे रैयतवाडी बन्दोबस्त कहा जाता है |

(रैयतवाडी बंदोबस्त )इस प्रणाली के अंतर्गत राजस्व की राशि सीधे रैयत के साथ तय की जाती थी | भिन्न-भिन्न प्रकार की भूमि से होने वाली औसत आय का अनुमान लगा लिया जाता था | रैयत की हैसियत और सरकार के हिस्से के रूप में उसका एक अनुपात निर्धारित किया जाता था | हर 30 साल के बाद जमीनों का फिर से सर्वेक्षण किया जाता था और राजस्व की दर से तदनुसार बढ़ा दी जाती थी |

राजस्व की मांग और किसान का कर्ज

👉 बम्बई और ढक्कन में रैयतवाडी बंदोबस्त 1820 के दशक में किया गया |

👉 ब्रिटिश शासन ने राजस्व की मांग इतनी अधिक थी कि लोग गाँव छोड़कर अन्यत्र चले गए |

👉 वर्षा नहीं होने, फसल खराब होने पर भी राजस्व अधिकारी किसानों से राजस्व वसूलते थे|

👉 जब कोई किसान राजस्व अदा नहीं कर पाता था तो उसकी फसल जब्त कर ली जाती थी और समूचे गाँव पर जुर्माना ठोक दिया जाता था|

👉 1830 के दशक में किसानों की स्थिति और बदतर हो गयी | 1832-34 के वर्षों में अकाल ने किसानों की स्थिति बद-से -बदतर हो गयी|

👉ढक्कन का एक तिहाई पशुधन और आधी मानव जनसंख्या भी काल का ग्रास बन गई | राजस्व की बकाया राशि आसमान को छूने लगी|

किसानों के हालात

👉 ऐसे समय में किसान लोग कैसे जीवित रहे ?

👉 राजस्व कैसे अदा किया जाय

👉 अपनी जरुरत की चीजों को कैसे जुटाया जाय

👉 अपने पशुधन कैसे खरीदे

👉 बच्चों की शादियाँ कैसे करें


उपर्युक्त आवश्कताओं को पूरा करने के लिए महाजनों से ऋण लेने के अलावा और कोई चारा नही था| लेकिन रैयत एक बार ऋण ले लिया तो लौटना मुश्किल था| किसान कर्ज के बोझ तले दब जा रहे थे|


1845 के बाद कृषि उत्पादों में कीमतों में धीरे-धीरे वृद्वि होने लगी| खेती का विस्तार होने लगा| गोचर भूमि को कृषि भूमि में बदल रहे थे| लेकिन हल-बैल,बीज के लिए पैसे की जरुरत थी | एक बार फिर उन्हें महाजनों के पास जाना पड़ा|


ब्रिटेन द्वारा भारत में कपास उत्पादन की आवश्यकता अट्ठारह सौ साठ के दशक से पहले ब्रिटेन में कच्चे माल के तौर पर आयात की जाने वाली समस्त कपास का तीन चौथाई भाग अमेरिका से आता था परंतु ब्रिटेन के सूती वस्त्रों के निर्माता इस बात से चिंतित है कि अमेरिकी कपास पर ज्यादा निर्भरता ठीक नहीं कपास की आपूर्ति के लिए वैकल्पिक स्रोत खोजे जा रहे थे । इस उद्वेश्य की पूर्ति के लिए 1857में कपास आपूर्ति संघ की स्थापना हुई और 1859 में मैनचेस्टर कॉटन कम्पनी बनाई गई। भारत को ऐसा देश के रूप में चिन्हित किया गया जहां से कपास की आपूर्ति हो सकती थी ।

1861 में अमेरिका में गृह युद्व आरभ होने से कपास की आपूर्ति भारत से होने लगी । ऐसे में कपास की कीमतों में उछाल आया। कपास निर्यातकों ने ब्रिटेन की मांग को पूरा करने के लिए साहूकारों को अग्रिम राशि उपलब्ध कराई ताकि वे भी उन किसानों को राशि उधार दे सके जो ज्यादा कपास उपलब्ध करा सके।

जब अमेरिका में संकट की स्थिति बनी रही तो मुंबई ढक्कन में कपास का उत्पादन बढ़ता गया| 1860 से 1864 के दौरान कपास उगाने वाले क्षेत्रों की संख्या दुगनी हो गई| 1862 तक स्थिति यह आई कि ब्रिटेन में जितना भी कपास का आयात होता था उसका 90% भाग अकेले भारत से जाता था।

इसके बावजूद कपास उत्पादक कर्ज के बोझ से और अधिक दब गए| हालांकि कुछ धनी किसानों को लाभ अवश्य हुआ| 1865 ईस्वी के बाद जब अमेरिका में गृह युद्धध समाप्त हो गया तो 
कपास का उत्पादन और निर्यात ब्रिटेन को किया जाने लगा । भारतीय कपास की मांग घटने लगी।  साहूकारों ने रैयतों को ऋण उपलब्ध कराना बन्द कर दिया। इधर ब्रिटिश अधिकारियों ने राजस्व में 50-100 % कई वृद्धि कर दी।
 

    रैयत ऋण दाता को कुटिल और धोखेबाज समझने लगे थे | वे ऋणदाताओं के द्वारा खातों में धोखाधड़ी करने और कानून को धता बताने की शिकायतें करते थे | 1859  में अंग्रेजों ने एक परिसीमन कानून पारित किया जिसमें यह कहा गया कि ऋण दाता और रैयत  के बीच हस्ताक्षरित ऋण पत्र केवल 3 वर्षों के लिए ही मान्य होंगे | इस कानून का उद्देश्य बहुत समय तक ब्याज को संचित होने से रोकना था|  किंतु ऋण दाता ने इसे कानून को घुमा कर अपने पक्ष में कर लिया और रैयत  से हर तीसरे साल एक नया बंध पत्र भरवाने लगा|  जब कोई नया बांड हस्ताक्षरित होता तो न चुकाई गई शेष राशि -- अर्थात मूलधन और उस पर उत्पन्न तथा इकट्ठा हुए संपूर्ण ब्याज को मूलधन के रूप में दर्ज किया जाता और उस पर नए सिरे से ब्याज लगने लगता|  
    ढक्कन  दंगा आयोग को प्राप्त हुई याचिकाओं में रैयत लोगों ने बताया कि यह प्रक्रिया कैसे काम कर रही थी और किस प्रकार ऋण दाता लोग रैयत को ठगने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाते थे|  जब ऋण चुकाया जाते तो वे रैयत को उसकी रसीद देने से इनकार कर देते थे , बंधपत्रों में जाली  भर लेते थे,  किसानों की फसल नीची कीमतों पर ले लेते थे और आखिरकार किसानों की धन -संपत्ति पर ही कब्जा कर लेते थे| 
     तरह तरह के दस्तावेज और बंध पत्र इस नई अत्याचार पूर्ण प्रणाली के प्रतीक बन गए|  पहले ऐसे दस्तावेज बहुत ही कम हुआ करते थे|  किंतु ब्रिटिश अधिकारी अनौपचारिक समझौते के आधार पर पुराने ढंग से किए गए लेनदेन को संदेह की दृष्टि से देखते थे|  उनके विचार से लेनदेन की शर्ते , संविदाओं,  दस्तावेजों और बंधपत्रों में साफ -साफ, स्पष्ट और सुनिश्चित शब्दों में कहीं जानी चाहिए और वह विधि सम्मत होनी चाहिए | जब तक कि कोई दस्तावेज या संविदा कानून की दृष्टि से प्रवर्तनीय नहीं होगा तब तक उसका कोई मूल्य नहीं होगा | 
    किसान यह समझने लगे कि बंधपत्रों और दस्तावेजों की इस नई व्यवस्था के कारण ही उन्हें समस्या हो रही है | उनसे दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करवा लिए जाते और अंगूठे के निशान लगवा लिए जाते थे|  पर उन्हें यह पता नहीं चलता कि वास्तव में वे किस पर हस्ताक्षर कर रहे हैं या अंगूठे के निशान लगा रहे हैं | उन्हें यह खंडों के बारे में कुछ भी पता नहीं होता जो ऋण दाता बंधपत्रों में लिख देते थे|  वे तो हर लिखे हुए शब्द से डरने लगे थे |  मगर वह लाचार थे क्योंकि जीवित रहने के लिए उन्हें ऋण चाहिए  थे और ऋण दाता कानूनी दस्तावेजों के बिना ऋण देने को तैयार नहीं थे|

कर्ज कैसे बढ़ते गए 
ढक्कन दंगा आयोग को दी गई अपनी याचिका में एक रैयत ने यह स्पष्ट किया कि ऋणों की प्रणाली कैसे काम करती थी:
एक साहूकार अपने कर्जदार को एक बंद पत्र के आधार पर ₹100 की रकम 3-2 आने प्रतिशत की मासिक दर पर उधार देता है | कर्ज लेने वाला इस रकम को बांड पास होने की तारीख से 8 दिन के भीतर वापस अदा करने का करार करता है|  रकम वापस अदा करने के लिए निर्धारित समय के तीन साल बाद साहूकार अपने कर्जदार से मूलधन तथा ब्याज दोनों को मिलाकर बनी राशि ( मिश्रधन) के लिए एक अन्य बॉन्ड उसी ब्याज दर से लिखवा लेता है और उसे संपूर्ण कर्जा चुकाने के लिए 125 दिन की मोहलत दे देता है | तीन  साल और 15 दिन बीत जाने पर कर्जदार द्वारा एक तीसरा बांड पास  किया जाता....( यह प्रक्रिया बार-बार दोहराई जाती है)...... 12 वर्ष के अंत में .......₹1000 की राशि पर उसका कुल ब्याज ₹2028,  10 आना 3 पैसा हो जाता है|

ढक्कन दंगा आयोग 
 जब विद्रोह ढक्कन में फैला तो प्रारंभ में मुंबई की सरकार उसे गंभीरता पूर्वक लेने को तैयार नहीं थी|  लेकिन भारत सरकार ने जो कि 1857 की याद से चिंतित थी  मुंबई की सरकार पर दबाव डाला कि वह दंगों के कारणों की छानबीन करने के लिए एक जांच आयोग बैठाए|  आयोग ने एक रिपोर्ट तैयार की जो 1878 में ब्रिटिश पार्लियामेंट में पेश की गई|
     यह रिपोर्ट ढक्कन दंगा रिपोर्ट कहा जाता है | इतिहासकारों को उन दंगों का अध्ययन करने के लिए आधार सामग्री उपलब्ध कराती है | आयोग ने दंगा पीड़ित जिलों में जांच पड़ताल कराई , रैयत वर्गों , साहूकारों और चश्मदीद गवाहों के बयान लिए,  भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में राजस्व की दरों , कीमतों और ब्याज के बारे में आंकड़े इकट्ठे किए और जिला कलेक्टरों द्वारा भेजे गए रिपोर्ट का संकलन किया | 
    आश्चर्य की बात यह है कि इस रिपोर्ट में सरकार के द्वारा लगाया गया लगाया गया राजस्व दर किसानों के गुस्से की वजह नहीं थी बल्कि ऋण दाताओं या साहूकारों के प्रति गुस्सा था ।
 
    इस प्रकार सरकारी रिपोर्ट इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए बहुमूल्य स्रोत सिद्ध होती है | लेकिन उन्हें हमेशा सावधानी पूर्वक पढ़ा जाना चाहिए और समाचार पत्रों, गैर- सरकारी वृत्तांतो,  वैधिक्  अभिलेखों और यथासंभव मौखिक स्रोतों से संकलित साक्ष्य  के साथ उनका मिलान करके उनकी विश्वसनीयता की जांच की जानी चाहिए|

    
The End

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M. PRASAD
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