Sunday 25 October 2020

Your Belief is your Victory



Your Belief is Your Victory

आपका विश्वास ही आपकी जीत है ।

जी हां , जीवन के लक्ष्य को सार्थक बनाने में सबसे पहला कदम है आपका उस लक्ष्य को प्राप्त करने में विश्वास। व्यक्ति का अपने काम में विश्वास है तो वह कार्य सफल होना निश्चित है ।

ऊपर के कथन को एक छोटी सी कहानी के माध्यम से बताने की कोशिश कर रहा हूँ।  यह कहानी आपके अन्दर के   विश्वास  को जागृत करेगा ।आपके अंदर सकारात्मक ऊर्जा का सनवहार करेगा । तो आइए कहानी का आरम्भ करते है ।

यह कहानी एक ऐसी लड़की की है जिसे डाक्टर ने हाथ खड़े कर दिए। डाक्टर ने कहा कि यह लड़की अब कभी ठीक नही हो सकती।यह अपने पैरों पर चल नही सकती ।

वह लड़की बिस्तर पर पड़ी है । वह चुपचाप देखती रहती, जिसे जिधर जी चाहता है,जा- आ रहा है , बस वही बिस्तर पर पस्त है। उसे लगता सब चले जाएंगे,  पीछे बस उसे ही रह जाना है , अकेली , लाचार , बिस्तर पर ढेर । कोई गुंजाइश नहीं,  डॉक्टर तक जवाब दे चुके हैं । अब यह बच्ची नहीं चलेगी । एक तो जन्म  समय पूर्व हो गया था।  उस पर वजन भी बमुश्किल से 2 किलोग्राम था।  

जैसे-जैसे दिन बीते , कमजोरी ने एक -एक कर बीमारियों ने जकड़ना शुरू कर दिया । तरह -तरह के बुखार चढ़ते थे ।  निमोनिया हुआ,  चेचक हुआ, और मुसीबतों का जलजला टैब उमड़ा, जब पोलियो वायरस ने हमला बोल दिया। जब तक पोलियो पर काबू किया जाता, तब तक वह बाएं पैर को बेबस कर चुका था।उस लड़की का पैर ऐसे मुड़ गया था कि उसके सीधे होने की सम्भावना डाक्टर भी गवां चुके थे । 

लड़की की मां डाक्टर के चेहरे पढ़ती रहतीं थी, जिन पर निराशा की लकीरें ही नजर आती थी। डाक्टरों से बात करने पर यह पता चल गया कि अब कोई दवा इसे ठीक नही कर सकता ।

ऐसी लाचार लड़की का नाम था - विल्मा रूडोल्फ ।  उसे समझ में नही आता था, की कैसे ठीक हो सकूँगी। क्या मैं जिन्दगी भर इसी लाचार शरीर को लेकर जिन्दा रहूंगी । विल्मा के हृदय में चिंता की लहर हिलोरें मार रही थी । 

एक दिन उसकी मां विल्मा को थामें हुए बहुत प्यार से समझाया, " सब ठीक हो जाएगा, तू चिंता मत कर , तू जरूर उठेगी और चलेगी"।  विल्मा को विश्वास नही हुआ । जब सभी डाक्टरों ने हाथ खड़े कर दिए तो माँ के कहे बात सिर्फ दास मन को बहलाने वाली है । लेकिन माँ  कह रही है, तू उठेगी और चलेगी । मां के बातों में एक विश्वास झलक रहा था। विल्मा को भी सुकून दे रहा था कि मां जब कह रही है तो जरूर मैं चल सकूँगी ।

विल्मा जिस परिस्थितियों से गुजर रही थी वैसे में माता पिता भी अपने बच्चों को छोड़ देते है, पर मां ने जरूरी चाह को लौटाया, विल्मा को वह बात हौसला दे रही थी ।

विल्मा की मां ने हार नही मानी । कई अन्य डाक्टरों से विल्मा का इलाज कराने के लिए उनके क्लिनिकों पर चक्कर लगाती रही।डाक्टरों से बात करते हुए यह विश्वास हुआ कि मालिश से  ही इसका इलाज मुमकिन है ।

डाक्टरों और फिजियोथेरेपी से विल्मा का मालिश कराते कराते खुद भी मालिश करना सीख गई । घर की परिस्थिति भी ऐसी अच्छी नही थी । विल्मा की मां को दूसरों के घरों में काम करने जाना होता था , विल्मा घर में बिस्तर पर लेटी रहती । विल्मा के पिता ने दो शादिया की। घर में 22 बच्चे थे । इनलोगों को पालन पोषण करना भी एक चुनौती थी । 

विल्मा की मां अपने बड़ी बेटियों को भी मालिश करना सीखा दी थी । मैं ने सबको बता दिया कि विल्मा के पैर को जिंदा करना है, पैर की मालिश करना ही एक मात्र इलाज है । इसलिए जब भी  और जिसे भी मौका मिले वह विल्मा के पैर की मालिश करेगा । मां तो लगी रहती उसकी बड़ी बहनें भी मालिश में जुट जाती। 

कुछ दिनों में विल्मा के बाएं  पैर में सुगबुगाहट आरम्भ होने लगी। मां- बहनों की उम्मीद बढ़ गई।  एक दिन ऐसा ही समय आया जब विल्मा बास्केटबॉल खेलने लगी। उस समय विल्मा की उम्र मात्र 11 साल थी । वह न सिर्फ दौड़ती थी, उछलकर बाल को बास्केट में भी डालने लगी। जल्द ही उसके पैर पूर्णतः ठीक हो गया । अब वह दौड़ सकती थी, तेज दौड़ सकती थी, लगातार तेज और तेज । विल्मा रूडोल्फ (1940-1945) जानी-मानी खिलाड़ी और धावक बन गई।

16 साल की उम्र में अपने देश की ओर से मेलबर्न ओलम्पिक खेलों  के लिए चुनी गई।100 गुना चार रिले रेस में कांस्य पदक जीतने वाली टीम की हिस्सा बनी।

उसके चार वर्ष बाद रोम ओलम्पिक में रिकार्ड तोड़ते हुए तीन-तीन स्वर्ण पदक जितने में कामयाब हुई। 

विल्मा पुरानी दिनों को याद करते हुए कहती थी, " मेरे डाक्टरों ने मुझे बताया कि मैं फिर कभी नही चलूंगी"। मेरी माँ ने कहा कि मैं चलूंगी। मैंने अपनी मां पर विश्वास किया"।  यह विश्वास ही विल्मा को दुनिया में एक नई पहचान दिलाया। 

कुदरत का करिश्मा देखिये , मां के निधन के कुछ दिनों बाद विल्मा को गम्भीर बीमारी हुई और उन्होंने भी दुनिया को अलविदा कह दिया। मां और बेटी , शायद एक दूसरे के लिए ही इस पृथ्वी पर जन्म ली थी । 

इस कहानी से नैतिक सिख यही मिलती है कि विश्वास ही एकमात्र ऐसी पहली सीढ़ी है जो आपके लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए ऊर्जा देती है । आपमें लक्ष्य प्राप्त करने के लिए विश्वास है , तो यह सकारात्मक ऊर्जा लक्ष्य प्राप्त करने महत्वपूर्ण योगदान प्रदान करती है । 

अर्थात आपका विश्वास ही आपकी जीत है ।



आभार: हिंदुस्तान


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