भगवान शिव से सम्बन्धित धर्म को " शैव " कहा जाता है | उनके मत को मानने वाले को शैव मतावलम्बी कहते है |
ऋग्वेद में शिव को रूद्र कहा जाता था | हडप्पा सभ्यता में भी शिव के साक्ष्य मिले है |
कौटिल्य के अर्थशास्त्र से पता चलता है कि मौर्य काल में भी शिव पूजा प्रचलित थी | गुप्तकाल में भूमरा का शिव मन्दिर और नचना कुठार का पार्वती मंदिर शैव मन्दिर थी |
चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी शिव पूजा का उल्लेख किया है | राजपूत काल (800-1200 ई.) के दौरान शैव धर्म का उन्नति काल था |
कालिदास ,भवभूति , सुबन्धु, एवं बाणभट्ट जैसे विद्वान शैव धर्म के उपासक थे |
दक्षिण भारत में शैव धर्म : दक्षिण भारत में राष्ट्रकूट ,पल्लव , चालुक्य एवं चोल राजवंशों ने शैव धर्म को संरक्षण दिया |
राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण II ने एलोरा का कैलाशनाथ मंदिर बनाया |
चोल शासक राजराज प्रथम ने तंजौर में राजराजेश्वर मंदिर बनाया |
राजेन्द्र चोल ने तंजौर में वृहदेश्वर मंदिर का निर्माण करवाया |
नयनार : शैव मत के अनुयायी नयनार कहलाते है | नयनार संतों की संख्या 63 बताई जाती है | इनमें अप्पार,तिरुज्ञान , सुन्दरमूर्ति एवं मनिकवाचागर का नाम प्रमुख है |
शैव् धर्म के सिद्वांत :
1. शैव संत भजन-कीर्तन, शास्त्रार्थ एवं उपदेश के माध्यम से तमिल समाज में शैव धर्म का प्रचार-प्रसार करते थे और ईश्वर प्राप्ति का एकमात्र साधन मानते थे |
2. नयनार जात-पात ,ऊंच-नीच के भेदभाव के विरोधी थे |
3. भक्ति का उपदेश तेलगू भाषा में देते थे |
वामन पुराण में शैव धर्म की संख्या चार बताई गयी है |
1. पाशुपत 2. कापालिक/कालामुख 3.. लिंगायत 4. नाथ
1. पाशुपत सम्प्रदाय : शैव धर्म का सर्वाधिक प्राचीन सम्प्रदाय माना जाता है और इसके संस्थापक लकुलीश थे |
इस सम्प्रदाय का प्रमुख मन्दिर नेपाल का पशुपति नाथ मंदिर है |
2. कापालिक : इस सम्प्रदाय के इष्टदेव "भैरव" को माना जाता है |इस मत के अनुयायी शरीर पर श्मशान की भस्म लगाते थे, गले में नरमुंड की माला धारण करते थे | भवभूति द्वारा रचित ग्रन्थ "मालती माधव " के अनुसार इनका प्रमुख केंद्र श्रीशैल नामक स्थान बताया गया है |
3. लिंगायत सम्प्रदाय : 12वीं सदी में लिंगायत या वीरशैव आन्दोलन का उदय हुआ | इस सम्प्रदाय का संस्थापक वासव् और उनका भतीजा चन्नावासव था | ये वेद और मूर्तिपूजा के विरोधी है परन्तु शिव का इष्टलिंग धारण करते है | ये कर्म की प्रधानता देते है | इस सम्प्रदाय के मानने वाले मुख्य रूप से कर्नाटक में है |
4. नाथ सम्प्रदाय : 10 वीं सदी के दौरान मत्येन्द्र नाथ ने नाथ सम्प्रदाय की स्थापना की | परन्तु बाद में बाबा गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय को आगे बढ़ाया | उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ इसी सम्प्रदाय से सम्बन्धित है |
मंदिरों का विकास :
* भारत में मंदिरों का विकास बौद्व स्तूपों और विहारों के निर्माण से आरम्भ माना जाता है |
* आरम्भ में देवी-देवताओं की मूर्तियों को रखने के लिए एक चौकोर कमरा बनाया गया जिन्हें गर्भगृह कहा जाता था | इनमें एक दरवाजा होता था जिससे उपासक पूजा हेतु मन्दिर में प्रविष्ट हो सकता था |
* धीरे-धीरे गर्भगृह के ऊपर एक दांचा बनाया जाने लगा जिसे शिखर कहा जाता था | मन्दिरकी दीवारों पर भीती चित्र उत्कीर्ण किए जाते थे |
* समय के साथ मंदिरों का स्थापत्य का काफी विकास हुआ | मंदिरों के साथ विशाल सभास्थल , ऊंची दीवारों और तोरण का भी निर्माण होने लगा |
* आरम्भ के मंदिर पहाड़ियों को काट कर खोखला करके कृत्रिम गुफाओं के रूप में बनाए गए थे |
* सबसे प्राचीन कृत्रिम गुफाएं ईसा पूर्व तीसरी सदी में सम्राट अशोक के आदेश से बिहार के गया में बराबर की गुफाएं थी जो आजीविक सम्प्रदाय के संतों के लिए बनाई गयी थी |
* बाद में यह परम्परा विकसित होती रही | आठवीं सदी में निर्मित कैलाशनाथ मन्दिर इसी का उदहारण है |
उत्कीर्ण चित्रों को समझने की कोशिश :
* भारतीय इतिहास को समझने की कोशिश अंग्रेजों के आगमन से आरम्भ होती है | 19वीं सदी में विद्वानों को ये मूर्तियाँ विकृत लगती थी |
* तक्षशिला और पेशावर से उत्खनन से प्राप्त बुद्व और बोधिसत की मूर्तियों का यूनानी कला से तुलना की | क्योंकि दूसरी सदी ईसा पुर्व में उस क्षेत्रों पर हिन्द -यूनानी राजाओं का शासन था और ये मूर्तियाँ यूनानी मूर्ती कला से मिलती थी |
* विद्वानों ने भारतीय मूर्ती कला को समझने के लिए धार्मिक ग्रन्थों का सहारा लिया |
* धार्मिक ग्रंथो के कथाओं के आधार पर उत्कीर्ण मूर्तिओं का अर्थ निकालना इतना आसान नही था | इसका एक उदाहरण है - महाबलीपुरम (तमिलनाडु) में कात्तान पर उत्कीर्ण मूर्तियाँ |
कुछ का मानना है कि इसमें गंगा नदी के स्वर्ग से अवतरण का चित्रण है | चट्टान की सतह के मध्य प्राकृतिक दरार शायद नदी को दिखा रही है | यह कथा पुराणों में वर्णित है |
दूसरे विद्वान का मानना है कि दिव्याश्त्र प्राप्त करने के लिए महाभारत में दी गई अर्जुन की तपस्या को दिखाया गया है | वे मूर्तियों के बीच एक साधू को केंद्र में रखे जाने की बात को महत्त्व देते है |
अंतत: यह ध्यान रखना चाहिए कि बहुत से रीति-रिवाज, धार्मिक विश्वास और व्यवहार इमारतों ,मूर्तियों या चित्रकला के द्वारा स्थायी दृश्य माध्यमों के रूप में दर्ज नही किए गए | इनमें दिन-प्रितिदीन और विशिष्ट अवसरों के रीति-रिवाज शामिल है | सम्भव है कि धार्मिक गतिविधियों और दार्शनिक मान्यताओं की उनकी सक्रिय परम्परा रही हो | वस्तुत: इस अध्याय में जिन शानदार उदाहरणों को चुना है वे एक विशाल ज्ञान की मात्र ऊपरी परत है |
समाप्त
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