Friday, 17 July 2020

भक्ति-सूफ़ी परम्पराएं वर्ग 12 पाठ 6 भाग 6

भक्ति-सूफी परम्पराएं 
नवीन भक्ति पंथ 
उत्तरी भारत में संवाद और असहमति 
    अनेक संत कवियों ने नवीन सामाजिक परिस्थियों, विचारों और संस्थाओं के साथ स्पष्ट और सांकेतिक दोनों किस्म के संवाद कायम किए | इस काल के तीन प्रमुख और प्रभावकारी व्यक्तियों पर दृष्टिपात करेंगें |
    
मध्यकालीन भारत में कई धार्मिक विचारकों तथा सुधारकों ने भारत के सामाजिक-धार्मिक जीवन में  सुधार लाने के उद्देश्य से भक्ति का साधन बनाकर एक आन्दोलन चलाया जो " भक्ति आन्दोलन " कहलाया |
    
 सर्वप्रथम भक्ति आन्दोलन का प्राम्भ द्रविड़ देश में हुआ था | भक्ति आन्दोलन के प्राचीनतम प्रचारक दक्षिण भारत के प्रसिद्व वैष्णव् आचार्य रामानुज (1037-1137 ई.) थे, जिन्होंने सगुन ईश्वर की उपासना पर बल दिया | निम्बकाचार्य, माधवाचार्य एवं बल्लभाचार्य भी दक्षिण भारत के कुछ अन्य धर्म प्रचारक थे |
 " भक्ति द्रविड़ उपजी, उत्तर लाये रामानन्द |
परगट कियो कबीर ने , सात  द्वीप  नौ खंड ||"
    वस्तुत:  धार्मिक आन्दोलन का  उदभव 8वीं सदी में शंकराचार्य द्वारा दक्षिण भारत में हो गया था | रामानुजाचार्य के समय उसका अत्यधिक प्रसार हुआ |

रामानन्द
उत्तर भारत में भक्ति आन्दोलन  करने का श्रेय  रामानंद को जाता है | इनका जन्म 1299 ई, के लगभग प्रयाग के कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में हुआ था | श्री राघवानंद को अपना गुरु बनाये जो श्रीसम्प्रदाय के महान  संत थे |  किसी अनुशासन सम्बन्धी प्रश्न पर गुरु से मतभेद होने के कारण रामानंद ने मठ त्याग दिया और उत्तर भारत चले आये | रामानंद ने रामानुज की भाँती भक्ति को मोक्ष का एकमात्र  साधन स्वीकार किया|  
    जाति-पांति तथा बाह्य आडम्बर का विरोध करते हुए उन्होंने सभी जातियों के लोगों को अपना उपदेश दिया | रामानन्द ने अपने मत का प्रचार संस्कृत में न करके क्षेत्रीय भाषाओं में किया | रामानंद के 12 शिष्यों में सभी जातियों के शिष्य थे |
1.  कबीर (जुलाहा )                         7. महानन्द 
2. रैदास (चमार)                              8. सुखानंद
3. धन्ना (जाट किसान )                     9. आशानन्द 
4. सेना (नाई )                                 10.  सुरसुरानंद
5. पीपा (राजपूत )                            11 .  परमानद
6. भवानंद                                       12.  श्रीआनन्द 

रामानन्द ने भक्ति आन्दोलन का उत्तर भारत में प्रसार कर ऐसे शिष्यों  को जन्म दिया जिन्होनें भक्ति आन्दोलन को एक नई दिशा दी | 

* कबीर : 
    
कबीर का जन्म 1425ई. में एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ था | कहा जाता है की लोक-लजा के डर से उसने कबीर को वाराणसी में लहरतारा के पास एक तालाब के समीप छोड़ दिया था | तत्पश्चात उनका लालन-पालन एक जुलाहा दम्पति नीरू और नीमा के द्ववारा किया गया | उन्होंने इस बालक का नाम कबीर रखा | कबीर का अर्थ होता है -महान | उन्होंने हिन्दू- मुस्लिम के बाह्य कर्मकांड और आडम्बर का विरोध किया और एकता पर बल दिया | 
    कबीर निराकार ईश्वर पर विश्वास करते थे | अत: उन्होंने वेद और कुरान दोनों की प्रमाणिकता की चुनौती दी | जन्म के स्थान पर कर्म की प्रधानता दी | मूर्ती पूजा, मंदिर, मस्जिद, तीर्थ, व्रत आदि की आलोचना की
इस सम्बन्ध में कहते है - 
" पाहन पूजे हरि मिले , तो मैं पूंजूँ पहाड़ |
ताते तो चाकी भली, पीस खाय संसार ||"
                        तथा 
"कंकर पत्थर जोरि कै, मस्जिद लई चुनाय |
ता चढ़ी मुल्ला बांग दे , बहरा हुआ खुदाय ||"
 कबीर ने जाति -पांति का भी विरोध किया | उनका कहना था -
" जाति-पांति पूछे नहीं कोई |
हरि को भजे सो हरि का होई ||"
कबीर धन संचय का भी विरोध किया| वह स्पष्ट करते है -
" सांई इतना दीजिए, जाके कुटुंब समाय|
मैं भी भूखा न रहूँ, साधू भी न भूखा जाय ||"

    कबीर (लगभग 14-15वीं शताब्दी) इस पृष्ठभूमि  के प्रमुख संत थे |
इतिहासकारों ने उनके जीवन और काल का अध्ययन उनके काव्य और बाद में लिखी गयी जीवनियों के आधार पर किया है | 
    कबीर की बानी तीन विशिष्ट किन्तु परस्पर व्याप्त परिपाटियों में संकलित है |  कबीर बीजक कबीर पंथियों द्वारा वाराणसी तथा उत्तर प्रदेश के अन्य स्थानों पर संरक्षित है | कबीर ग्रन्थावली का संबंध राजस्थान के दादू पंथियों से है | इसके अतिरिक्त कबीर के कई पद आदि ग्रन्थ साहिब में संकलित है |
    कबीर की रचनाएँ अनेक भाषाओं और बोलियों में मिलती है | इनमें से कुछ निर्गुण कवियों की ख़ास बोली संत भाषा में है | कुछ रचनाएं जिन्हें उलटबांसी  (उलट कही उक्तियाँ ) के नाम से जाना जाता है , इन रचनाओं का उद्देश्य परम सत्य के स्वरूप को समझने की मुश्किल को दर्शाता है |
    कबीर की बानी की एक और विशिष्टता यह है की उन्होंने परम सत्य को  "शब्द"और "शून्य " का प्रयोग किया है | यह अभिव्यन्जनाएँ योगी परम्परा से ली गयी है |
    कबीर की समृद्व परम्परा इस तथ्य का द्योतक है कि कबीर पहले और आज भी उन लोगों के लिए प्रेरणा के स्रोत है जो सत्य की खोज में रूढ़िवादी, धार्मिक, सामाजिक संस्थाओं, विचारों और व्यवहारों को प्रश्नवाचक दृष्टी से देखते है |

बाबा गुरु नानक और पवित्र शब्द :
  
 गुरु नानक का जन्म 1469 ई. में पंजाब के गुजरानवाला जिले के तलवंडी (ननकाना साहिब ) नामक ग्राम में हुआ था |यह गाँव रावी नदी के तट पर स्थित है | उन्होंने फ़ारसी पढ़ी और  लेखाकार के कार्य का प्रशिक्षण प्राप्त किया| उनका विवाह छोटी आयु में ही हो गया था किन्तु वह अपना अधिक समय सूफी और भक्त संतों के बीच गुजारते थे| गुरु नानक दूर-दराज की यात्राएं भी की |
    बाबा गुरु नानक का संदेश उनके भजनों और उपदेशों  में निहित है | कबीर की भाँती गुरुनानक ने भी धार्मिक आडम्बरों, कर्मकांडों, अवतारवाद, मूर्तिपूजा, कठोर तप, यज्ञ , जाति-पांति, उंच-नीच का विरोध किया | हिन्दू  और मुसलमानों के धर्मग्रन्थों को भी उन्होंने नकारा |
    बाबा गुरु नानक के अनुसार परम पूर्ण रब का कोई लिंग या आकर नहीं था| उन्होंने इस रब की उपासना के लिए एक उपाय बताया - निरंतर स्मरण व् नाम का जाप | उन्होंने अपने विचार पंजाबी भाषा में शबद के माध्यम से सामने रखे | बाबा गुरु नानक यह शबद अलग-अलग रागों में गाते थे और सेवक मरदाना रबाब बजाकर उनका साथ देता था |
    बाबा गुरुनानक ने अपने अनुयायियों को एक समुदाय में संगठित किया | सामुदायिक उपासना( संगत) के नियम बनाए | उन्होंने अपने अनुयायी अंगद को अपने बाद गुरुपद पर आसीन किया ; इस परिपाटी का पालन 200 वर्षों तक होता रहा |
    बाबा गुरुनानक ने सिक्ख धर्म की स्थापना की | सिक्खों के पांचवें गुरु अर्जुन देव जी ने बाबा गुरु नानक तथा उनके चार उत्तराधिकारियों, बाबा फरीद, रविदास और कबीर की बानी को आदि ग्रन्थ साहिब में संकलित कराया|  इन को "गुरुबानी" कहा जाता है और ये अनके भाषाओं में रचे गए |     17वीं शताब्दी के उत्तरार्द्व में दसवें गुरु गोविन्द सिंह जी ने नवें गुरु तेग बहादुर की रचनाओं को भी इसमें शामिल किया और इस ग्रन्थ को " गुरु ग्रन्थ साहिब" कहा गया | गुरु गोविन्द सिंह जी ने खालसा पंथ (पवित्रों की सेना) की नीवं डाली और उनके पांच प्रतीकों का वर्णन किया  :
1. बिना कटे केश 
2. कृपाण 
3. कच्छ 
4. कंघा 
5. लोहे का कडा
गुरु गोविन्द सिंह के नेतृत्व में समुदाय एक सामाजिक, धार्मिक और सैन्य बल के रूप में संगठित होकर सामने आया| 

मीराबाई, भक्तिमय राजकुमारी 
    
दक्षिण भारत में अलवार महिला संत अंडाल की तरह उत्तर भारत में मीराबाई भी  भगवान कृष्ण को अपना पति मानती थी | मीराबाई का जन्म 1498 ई. में राजस्थान के मेड़ता के एक गाँव कुसली में हुआ | उनके पिता रतनसिंह राठौर  मेड़ता के शासक थे | मीराबाई का विवाह मेवाड़ शासक राणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज से हुआ| भोजराज की असमय मृत्यु हो गई और मीराबाई विधवा हो गई | 
    मीराबाई अब कृष्ण भक्ति में रम गयी | 1531ई. में  सुसराल वालों ने मीरा को विष देकर मारने की असफल कोशिश की | मीरा मेवाड़ छोड़कर मेड़ता चली गयी  और उसके बाद द्वारका  पहुँच गयी | उन्होंने कृष्ण भक्ति के कई पदों का सृजन किया | 
" मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई |
जा के सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई |"
मीराबाई द्वारा रचित एक गीत के अंश  
" अगर-चन्दन की चिता  बनाऊं, अपनै हाथ जला जा |
जल-बल भयी भसम की ढेरी, अपनैं अंग लगा जा |
मीरा कहै प्रभु गिरधर नागर, जोत में जोत मिला जा||"
 ऐसा माना जाता है की मीराबाई के गुरु रैदास थे| मीराबाई भी जाति-पांति नहीं मानती थी |
 
एक पद में कहती है - 
" राणों जी मेवाड़ों म्हारो कांई करसी |
म्हे तो गोविन्द रा गुण गास्यां |
राणों जी रुससी गाँव रखासी, हरि रूस्यां कुमालास्या|"
    मीराबाई के आसपास अनुयायियों का जमघट नहीं लगा और उन्होंने किसी निजी मंडली की नीवं नहीं डाली किन्तु फिर भी वह शताब्दियों से प्रेरणा का स्रोत रही है | उनके रचित पद आज भी स्त्रियों और  पुरुषों द्वारा गाए जाते है | खासतौर से गुजरात और राजस्थान के गरीब लोगों द्वारा जिन्हें " नीच जाति" का समझा जाता है |


  

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M. PRASAD
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