समाज के बारे में उनकी समझ
(लगभग दसवीं से सत्रहवीं सदी तक )
परिचय :
इस्माइल मेरठी का शेर है -
"सैर कर दुनिया की गाफिल, जिंदगानी फिर कहां |
जिन्दगी गर कुछ रही तो नौजवानी फिर कहाँ || "
इस अध्याय में विदेशी यात्रियों के नजरिए से तत्कालीन भारतीय समाज एवं संस्कृति की जानकारी प्राप्त करेंगें |
मध्य एशिया,अफ्रीका, रूस,चीन और यूरोप से समय - समय पर विदेशी यात्री अपने विभिन्न उद्वेश्य से आते रहे है |
यात्रा वृतांत भारतीय कला, संस्कृति, धार्मिक, परम्पराओं, सामाजिक आचार-विचारों, भौगोलिक व आर्थिक परिस्थितियों एवं राजनीतिक व्यवस्था को समझाने के लिए महत्वपूर्ण दस्तावेज है |
इस कड़ी में तीन प्रमुख विदेशी यात्री - अलबरूनी, इब्नबतूता और फ्रांसिस बर्नियर की यात्रा वृतांताओं को भारतीय परिप्रेक्ष्य में अध्ययन करेंगे | इसके अतिरिक्त कुछ अन्य विदेशी यात्रियों की संक्षिप्त जानकारी प्राप्त करेंगें |
अल-बरूनी इब्नबतूता
अल-बिरूनी तथा किताब-उल-हिन्द
* अल-बिरूनी का जन्म आधुनिक उज्बेकिस्तान में स्थित ख्वारिज्म में सन 973 में हुआ था |
* ख्वारिज्म शिक्षा का प्रमुख केंद्र था , अल-बिरूनी ने अच्छी शिक्षा प्राप्त की थी और कई भाषाओं में महारत हासिल किया था जिनमें सीरियाई, फारसी, हिब्रू, तथा संस्कृत शामिल है |
* सन 1017 ई.में ख्वारिज्म पर आक्रमण के पश्चात सुलतान महमूद यहाँ के कई विद्वानों और कवियों जिसमें अल-बिरूनी भी शामिल था अपने साथ अपनी राजधानी गजनी ले आया |
* 70 वर्ष की आयु में अल-बिरूनी की मृत्यु गजनी में ही हो गयी |
* सुल्तान महमूद के आक्रमण के समय ही उसके साथ अल-बिरूनी भारत आया था, उसने पंजाब और उत्तर भारत के कई हिस्सों की यात्रा की थी, उसने जो कुछ देखा उसका उसने अपने वृतांतों में लिखा |
* अल-बिरूनी ने ब्राह्मण पुरोहितों तथा विद्वानों के साथ कई वर्ष बिताए और संस्कृत, धर्म तथा दर्शन का ज्ञान प्राप्त किया|
* अल-बिरूनी ने भारत पर अरबी भाषा में लगभग 20 पुस्तके लिखी लेकिन इनमें "किताब-उल-हिन्द " अथवा "तहकीक-ए--हिन्द " महत्वपूर्ण है |
* उसने इस पुस्तक का सृजन 30 अप्रैल 1030ई. से 29 दिसम्बर 1031 ई. के बीच किया |
अल-बिरूनी के उद्वेश्य : अल-बिरूनी ने अपने कार्य का वर्णन इस प्रकार किया : " उन लोगों के लिए सहायक जो उनसे (हिन्दुओं ) धार्मिक विषयों पर चर्चा करना चाहते है और ऐसे लोगों के लिए एक सूचना का संग्रह जो उनके साथ सम्बद्व होना चाहते है |" कई भाषाओं में दक्षता हासिल करने के कारण अल-बिरूनी भाषाओं की तुलना तथा ग्रन्थों का अनुवाद करने में सक्षम रहा | उसने कई संस्कृत कृतियों ,जिनमें पतंजलि का व्याकरण पर ग्रन्थ भी शामिल है, का अरबी में अनुवाद किया | अपने ब्राह्मण मित्रों के लिए उसने युक्लिड (एक यूनानी गणितज्ञ) के कार्यों का संस्कृत में अनुवाद किया | |
किताब-उल-हिन्द
* अल-बिरूनी की पुस्तक "किताब-उल-हिन्द " अरबी भाषा में लिखी गयी थी |
* इस ग्रन्थ में धर्म और दर्शन, त्योहारों,खगोल विज्ञान, कीमिया, रीति-रिवाजों, तथा प्रथाओं, सामाजिक-जीवन,भार-तौल तथा मापन विधियों, मूर्तिकला, क़ानून, मापतंत्र विज्ञान आदि विषयों के आधार पर 80 अध्यायों में विभाजित है |
* इसके 47वें अध्याय में वासुदेव एवं महाभारत की कथा का वर्णन किया है |
* इसके 9वें अध्याय में भारत की जाति प्रथा एवं वर्ण व्यवस्था पर प्रकाश डाला है |
* 63वें अध्याय में ब्राह्मणों के जीवन तथा 64वें अध्याय में जातियों के अनुष्ठान एवं रीति -रिवाजों का वर्णन है और 69वें अध्याय में भारतीय स्त्रियों की स्थिति का वर्णन मिलता है |
* अल-बिरूनी के प्रत्येक अध्याय में एक विशिष्ट शैली का प्रयोग किया गया जिसमें आरम्भ में प्रश्न होता था, फिर संस्कृतवादी परम्पराओं पर आधारित वर्णन और अंत में अन्य संस्कृतियों के साथ तुलना | इस प्रकार की रचना का मुख्य कारण अल-बिरूनी का गणित के प्रति झुकाव था |
हिन्दू " हिन्दू " शब्द लगभग छठी -पांचवीं शताब्दी ईसा पूर्व में प्रयुक्त होने वाले एक प्राचीन फारसी शब्द, जिसका प्रयोग सिन्धु नदी (Indus) के पूर्व के क्षेत्र के लिए होता था, से निकला था | अरबी लोगों ने इस फ़ारसी शब्द को जारी रखा और इस क्षेत्र को "अल-हिन्द " तथा यहाँ के निवासियों को "हिन्दी " कहा | कालान्तर में तुर्कों ने सिन्धु से पूर्व में रहने वाले लोगों को " हिन्दू"; उनके निवास क्षेत्र को " हिन्दुस्तान " तथा उनकी भाषा को "हिन्दवी" का नाम दिया | इनमें से कोई भी शब्द लोगों की धार्मिक पहचान का द्योतक नहीं था | इस शब्द का धार्मिक सन्दर्भ में प्रयोग बहुत बाद की बात है | |
अल-बिरूनी तथा संस्कृतवादी परम्परा
इस भाग में अल-बिरूनी की भारत यात्रा के दौरान जो बाधाएं उत्पन्न हुई थी ,उसकी चर्चा करते है |
* पहली बाधा "भाषा" थी | उसके अनुसार संस्कृत, अरबी और फ़ारसी से इतनी भिन्न थी कि विचारों और सिद्वान्तों को एक भाषा से दूसरी में अनुवादित करना आसान नही था |
* दूसरा अवरोध धार्मिक अवस्था और प्रथा में भिन्नता थी | विदेशियों को हिन्दू "मलेच्छ " कहते है एवं उनके साथ किसी भी प्रकार सम्बन्ध रखने को निषिद्व मानते है |
* तीसरा अवरोध था अभिमान | हिन्दू विश्वास करते है कि उनके जैसा कोई देश नही है, उनके राजाओं के सामान कोई राजा नही है, उनके जैसा कोई धर्म नही है ,उनके जैसा कोई शास्त्र नही |
* इसके बाबजूद अल-बिरूनी पूरी तरह ब्राह्मणों द्वारा रचित कृतियों पर आश्रित रहा | उसने भारतीय समाज को समझने के लिए अक्सर वेदों,पुराणों, भगवतगीता ,पतंजलि की कृतियाँ तथा मनुस्मृति
आदि से अंश उद्वृत किए है |
अल-बिरूनी की जाति व्यवस्था का विवरण
* अल-बिरुनी ने अपनी पुस्तक "किताब-उल-हिन्द " के 9वें अध्याय में भारतीय जाति व्यवस्था पर प्रकाश डाला है तथा अन्य देशों से तुलनात्मक अध्ययन किया है |
* उसने लिखा है कि प्राचीन फ़ारस में चार सामाजिक वर्गों को मान्यता थी :
1. घुड़सवार और शासक वर्ग
2. भिक्षु, आनुष्ठानिक पुरोहित तथा चिकित्सक
3. खगोलशास्त्री था अन्य वैज्ञानिक
4. कृषक तथा शिल्पकार
उसने यह भी दर्शाया है कि इस्लाम में सभी लोगों को समान माना जाता था और उनमें भिन्नताएं केवल धार्मिकता के पालन में थी |
* अल-बिरूनी ब्राह्मणवादी व्याख्या को मानने के वावजूद , अपवित्रता की मान्यता हो अस्वीकार किया |उसने लिखा कि हर वह वस्तु जो अपवित्र हो जाती है, अपनी पवित्रता की मूल स्थिति को पुन: प्राप्त करने का प्रयास करती है |
* सूर्य हवा को स्वच्छ करता है और समुद्र में नमक पानी को गंदा होने से बचाता है | ऐसा नही होता तो पृथ्वी पर जीवन असम्भव होता | उसके अनुसार जाति व्यवस्था में निहित अपवित्रता की अवधारणा प्रकृति के नियमों के विरूद्व थी |
जाति व्यवस्था के विषय में अल-विरुनी के विवरण संस्कृत ग्रन्थों पर आधारित थी | परन्तु वास्तविक जीवन में यह व्यवस्था इतनी कड़ी नही थी | जैसे "अन्त्यज " (निम्न जाति ) नामक श्रेणियों से सामान्यता यह अपेक्षा की जाती थी कि वे किसानों और जमींदारों के लिए सस्ता श्रम उपलब्ध करे | हालांकि ये अक्सर सामाजिक प्रताड़ना का शिकार होते थे फिर आर्थिक तन्त्र में शामिल किया जाता था |
संस्कृत के विषय में अल-बिरूनी की विचार " यदि आप इस कठनाई (संस्कृत भाषा सीखने की ) से पार पाना चाहते है तो यह आसान नही होगा क्योंकि अरबी भाषा की तरह ही, शब्दों तथा विभक्तियों, दोनों में ही इस भाषा की पहुँच बहुत विस्तृत है | इसमें एक ही वस्तु के लिए कई शब्द , मूल तथा व्युत्पन्न दोनों, प्रयुक्त होते है और एक ही शब्द का प्रयोग कई वस्तुओं के लिए होता है, जिन्हें भली प्रकार समझने के लिए विभिन्न विशेषक संकेत्पदों के माध्यम से एक दूसरे से अलग किया जाना आवश्यक है |" |
वर्ण व्यवस्था अल-बिरुनी वर्ण व्यवस्था का इस प्रकार उल्लेख करता है : सबसे ऊँची जाति ब्राह्मणों की है जिनके विषय में हिन्दुओं के ग्रन्थ हमें बताते है कि वे ब्रह्मा के सर से उत्पन्न हुए है क्योंकि ब्रह्म,प्रकृति नामक शक्ति का ही दूसरा नाम है , और सिर......... शरीर का सबसे ऊपरी भाग है, इसलिए ब्राह्मण पूरी प्रजाति के सबसे चुनिन्दा भाग है | इसी कारण से हिन्दू उन्हें मानव जाति में सबसे उत्तम मानते है | अगली जाति क्षत्रियों की है जिनका सृजन, ऐसा कहा जाता है ब्रह्मं के कंधों और हाथों से हुआ था उनका दर्जा ब्राह्मणों से अधिक नीचे नही है | उनके पश्चात वैश्य आते है जिनका उद्भव ब्रह्मं की जंघाओं से हुआ था | शूद्र , जिनका सृजन उनके चरणों से हुआ था | अंतिम दो वर्गों के बीच अधिक अंतर नही है | लेकिन इन वर्गों के बीच भिन्नता होने पर भी ये एक साथ एक ही शहरों और गावों में रहते है,समान घरों और आवासों में मिल-जूल कर | |
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M. PRASAD
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