विचारक , विश्वास और इमारतें
सांस्कृतिक विकास
(लगभग 600 ई.पू. से ईसा सम्वत 600 तक )
परिचय :
इस पाठ के अंतर्गत महात्मा बुद्व और भगवान महावीर के बारे में अध्ययन करेंगे | साथ ही भौतिक साक्ष्य के रूप में साँची का स्तूप के बारे में जानकारी हासिल करेंगे |
* स्तूप क्या होता है ?
स्तूप का संस्कृत अर्थ टीला , ढेर या थुहा होता है | महात्मा बुद्व के परिनिर्वाण के बाद उनकी अस्थियों को आठ भागों में बांटा गया तथा उन पर समाधियों का निर्माण किया गया | इन्हीं को स्तूप कहा जाता है | स्तूप का सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है | इसमें अग्नि की उठती हुई ज्वालाओं को स्तूप कहा गया है |
स्तूप क्यों बनाए जाते थे ?
यह उद्वरण महापरिनिब्बान सुत्त से लिया गया है जो सुत्त पिटक का हिस्सा है |
परिनिर्वाण से पूर्व आनंद ने पूछा : भगवान हम तथागत ( बुद्व का दूसरा नाम ) के अवशेषों का क्या करेंगे ?
बुद्व ने कहा ," तथागत के अवशेषों को विशेष आदर देकर खुद को मत रोको | धर्मोत्साही बनों , अपनी भलाई के लिए प्रयास करों |"
लेकिन विशेष आग्रह करने पर बुद्व बोले:
" उन्हें तथागत के लिए चार महापथों के चौक पर थूप ( स्तूप का पालि रूप ) बनाना चाहिए | जो भी वहां धूप या माला चढ़ाएगा ....... या वहां सर नवाएगा , या वहां पर ह्रदय में शान्ति लाएगा , उन सबके लिए वह चिर काल तक सुख और आनंद का कारण बनेगा |"
स्तूप का सम्बन्ध मृतक के दाह संस्कार से था | दाह संस्कार के बाद बचे अस्थियों को किसी पात्र में रखकर मिट्टी से ढक देने की प्रथा से ही स्तूप का विकास हुआ |
आरम्भ में बुद्व के अवशेषों पर स्तूप बने | बाद में उनके शिष्यों के अवशेषों पर भी स्तूप बनाए गए |
बौद्व ग्रन्थ " अशोकावदान" से जानकारी मिलती है की सम्राट अशोक ने 84000 स्तूपों का निर्माण कराया था |
चीनी यात्री ह्वेनसांग ने स्वयं तक्षशिला , श्रीनगर , थानेश्वर , मथुरा , कनौज , प्रयाग , कोशाम्बी , वाराणसी , वैशाली ,गया आदि जगहों पर स्तूपों को देखा था पर आज ये सब नष्ट हो चुके है |
स्तूपों की संरचना :
स्तूप का स्वरूप अर्द्व -गोलाकार मिलता है | उसमें मेधी (चबूतरा ) के ऊपर उलटे कटोरे की आकृति का थूहा बनाया जाता है , जिसे अंड कहा जाता है | अंड के ऊपर एक हर्मिका होती थी | यह छज्जे जैसा ढांचा देवताओं के घर का प्रतीक था | हर्मिका से एक मस्तूल निकलता था जिसे यष्टि कहते थे जिस पर एक छत्री लगी होती थी |
सांस्कृतिक विकास
(लगभग 600 ई.पू. से ईसा सम्वत 600 तक )
परिचय :
इस पाठ के अंतर्गत महात्मा बुद्व और भगवान महावीर के बारे में अध्ययन करेंगे | साथ ही भौतिक साक्ष्य के रूप में साँची का स्तूप के बारे में जानकारी हासिल करेंगे |
* स्तूप क्या होता है ?
स्तूप का संस्कृत अर्थ टीला , ढेर या थुहा होता है | महात्मा बुद्व के परिनिर्वाण के बाद उनकी अस्थियों को आठ भागों में बांटा गया तथा उन पर समाधियों का निर्माण किया गया | इन्हीं को स्तूप कहा जाता है | स्तूप का सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है | इसमें अग्नि की उठती हुई ज्वालाओं को स्तूप कहा गया है |
स्तूप क्यों बनाए जाते थे ?
यह उद्वरण महापरिनिब्बान सुत्त से लिया गया है जो सुत्त पिटक का हिस्सा है |
परिनिर्वाण से पूर्व आनंद ने पूछा : भगवान हम तथागत ( बुद्व का दूसरा नाम ) के अवशेषों का क्या करेंगे ?
बुद्व ने कहा ," तथागत के अवशेषों को विशेष आदर देकर खुद को मत रोको | धर्मोत्साही बनों , अपनी भलाई के लिए प्रयास करों |"
लेकिन विशेष आग्रह करने पर बुद्व बोले:
" उन्हें तथागत के लिए चार महापथों के चौक पर थूप ( स्तूप का पालि रूप ) बनाना चाहिए | जो भी वहां धूप या माला चढ़ाएगा ....... या वहां सर नवाएगा , या वहां पर ह्रदय में शान्ति लाएगा , उन सबके लिए वह चिर काल तक सुख और आनंद का कारण बनेगा |"
स्तूप का सम्बन्ध मृतक के दाह संस्कार से था | दाह संस्कार के बाद बचे अस्थियों को किसी पात्र में रखकर मिट्टी से ढक देने की प्रथा से ही स्तूप का विकास हुआ |
आरम्भ में बुद्व के अवशेषों पर स्तूप बने | बाद में उनके शिष्यों के अवशेषों पर भी स्तूप बनाए गए |
बौद्व ग्रन्थ " अशोकावदान" से जानकारी मिलती है की सम्राट अशोक ने 84000 स्तूपों का निर्माण कराया था |
चीनी यात्री ह्वेनसांग ने स्वयं तक्षशिला , श्रीनगर , थानेश्वर , मथुरा , कनौज , प्रयाग , कोशाम्बी , वाराणसी , वैशाली ,गया आदि जगहों पर स्तूपों को देखा था पर आज ये सब नष्ट हो चुके है |
स्तूपों की संरचना :
स्तूप का स्वरूप अर्द्व -गोलाकार मिलता है | उसमें मेधी (चबूतरा ) के ऊपर उलटे कटोरे की आकृति का थूहा बनाया जाता है , जिसे अंड कहा जाता है | अंड के ऊपर एक हर्मिका होती थी | यह छज्जे जैसा ढांचा देवताओं के घर का प्रतीक था | हर्मिका से एक मस्तूल निकलता था जिसे यष्टि कहते थे जिस पर एक छत्री लगी होती थी |
टीले के चारों और एक दीवार द्वारा घेर दिया जाता है जिसे वेदिका (railing) कहते है | स्तूप तथा वेदिका के बीच परिक्रमा लगाने के लिए बना स्थान प्रदक्षिणा पथ कहलाता है | समयकाल में वेदिका के चारो ओर चारों दिशाओं में प्रवेश द्वार बनाये गए | प्रवेश द्वार पर मेहराबदार तोरण बनाये गए |
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M. PRASAD
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