Wednesday, 24 June 2020

यात्रियों के नजरिए: वर्ग 12 पाठ 5 भाग 2

यात्रियों  के नजरिए 
समाज के बारे में उनकी समझ 
(लगभग दसवीं से सत्रहवीं सदी तक )
इब्नबतूता
        इब्नबतूता एक अफ्रीकी यात्री था | उसने भारत की यात्रा-वृतांत "रेहला" अरबी भाषा में लिखा था | वह एक उच्च शिक्षित एवं विद्वान था | उसने अपनी यात्रा 22 वर्ष की अवस्था में आरंभ किया था |

जन्म एवं परिचय :
         इब्नबतूता का जन्म 24 जनवरी 1304 ई. को अफ्रीकी महादेश के मोरक्को के तेंजियर  नगर में एक खानाबदोश जाति में हुआ था | उसने 73 वर्ष के जीवन काल में लगभग सभी मुस्लिम देश की यात्रा की थी | वह पुस्तकों के स्थान पर यात्राओं से अर्जित अनुभव को ज्ञान का अधिक महत्वपूर्ण स्रोत मानता था |
         1332-33 में भारत के लिए प्रस्थान करने से पहले वह मक्का की तीर्थ यात्राएं और सीरिया, ईराक, फारस, यमन, ओमान तथा अफ्रीका के कई तटीय व्यापारिक बंदरगाहों  की यात्राएं कर चुका था | 

        मध्य एशिया के रास्ते होकर इब्नबतूता सन 1333 में स्थलमार्ग से सिंध पहुँचा | वह मुल्तान और उच्छ के रास्ते होकर दिल्ली की और प्रस्थान किया | दिल्ली का सुलतान मुहम्मद बिन तुगलक उसकी विद्वता से प्रभावित हुआ और उसे दिल्ली का काजी नियुक्त किया | वह इस पद पर कई वर्षों तक रहा ,पर फिर उसने विश्वास खो दिया और उसे कारागार में डाल दिया | बाद में सुलतान और उसके बीच की गलतफहमी दूर होने के बाद उसे राजकीय सेवा में पुनर्स्थापित किया गया और 1342 ई. में मंगोल शासक के पास सुल्तान के दूत के रूप में चीन जाने का आदेश दिया |
        इब्नबतूता मध्य भारत के रास्ते मालाबार तट की बढ़ा | वह मालद्वीप गया जहां 18महीनों तक काजी के पद पर रहा | वह जहाज से सुमात्रा गया और सुमात्रा से एक अन्य जहाज से चीनी बंदरगाह जायतुन ( क्वानझू) गया | 1347 में उसने वापस अपने घर जाने का निश्चय किया | 
        इब्नबतूता ने नवीन संस्कृतियों,लोगों, आस्थाओं, मान्यताओं, आदि के विषय में अपने अभिमत को सावधानी तथा कुशलतापूर्वक दर्ज किया | 
        इब्नबतूता के अनुसार उसे मुल्तान से दिल्ली की यात्रा में 40 और सिंध से दिल्ली की यात्रा में 50 दिन का समय लगा था | दौलताबाद से दिल्ली की दूरी 40, जबकि  ग्वालियर से दिल्ली की दूरी 10 दिन में तय की जा सकती थी |
        यात्रा करना अधिक असुरक्षित भी था ; इब्नबतूता कई बार डाकुओं के समूहों द्वारा किए गए आक्रमण झेले थे |
मुल्तान से दिल्ली की यात्रा के दौरान उसके कारवां पर आक्रमण हुआ, और उसके कई साथी यात्रियों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा : जो जीवित बचे, जिनमें इब्नबतूता भी शामिल था, बुरी तरह से घायल हो गए थे |
        इब्नबतूता 1354 में घर वापस पहुँचा , अपनी यात्रा आरम्भ करने के लगभग तीस वर्ष बाद | जब वापस आया तो  स्थानीय शासक ने निर्देश दिए की उसकी कहानियों को दर्ज किया जाए |  इब्न जुजाई  जिसे इब्नबतूता के श्रुतलेखों को लिखने के लिए नियुक्त किया गया था |  उसके यात्रा वृतांत "रेहला" में दर्ज किया गया |
 1400 से 1800 के बीच भारत आए यात्रियों ने फ़ारसी में कई यात्रा वृतांत लिखे | इन लेखकों ने अल-बिरुनी  और इब्नबतूता के पदचिन्हों का अनुसरण किया |
        इनमें से सबसे प्रसिद्व लेखकों में अब्दुर रज्जाक समरकंदी  जिसने 1440 के दशक में दक्षिण भारत की यात्रा की थी , महमूद वली बल्खी, जिसने 1620 के दशक में व्यापक रूप से यात्राएं की थी तथा शेख अली हाजिन जो 1740 के दशक में उत्तर  भारत आया था, शामिल है | 

इब्नबतूता तथा अनजाने को जानने की उत्कंठा 
इब्नबतूता ने बड़े पैमाने पर यात्राएं की , पवित्र पूजास्थलों को देखा, विद्वान लोगों तथा शासकों के साथ समय बिताया, कई बार काजी के पद पर रहा  तथा शहरी केन्द्रों की विश्ववादी संस्कृति का उपभोग किया जहां अरबी, फ़ारसी, तुर्की तथा अन्य भाषाएँ बोलने वाले विचारों, सूचनाओं, तथा उपाख्यानों का आदान - प्रदान करते थे |
          इब्नबतूता ने नारियल और पान का वर्णन करता है |
 इब्नबतूता द्वारा दिया गया पान का वर्णन :
पान एक ऐसा वृक्ष है जिसे अंगूर-लता की तरह ही उगाया जाता ; ..... पान कोई फल नहीं होता है और इसे केवल इसकी पत्तियों के लिए ही उगाया जाता है ..... इसे प्रयोग करने की विधि यह है कि इसे खाने से पहले सुपारी ली जाती है ; यह जायफल जैसी ही होती है पर इसे तब तक तोड़ा जाता जब तक इसके छोटे -छोटे टुकड़े नही हो जाते ; और इन्हें मुंह में रख कर चबाया जाता है | इसके बाद पान की पत्तियों के साथ इन्हें चबाया जाता है |
 मानव सिर जैसे गिरीदार फल (नारियल)
नारियल का वर्णन इब्नबतूता इस प्रकार करता है : 
        ये वृक्ष स्वरूप से सबसे अनोखे तथा प्रकृति में सबसे विस्मयकारी वृक्षों में से एक है | ये हू-बहू-खजूर के वृक्ष जैसे दिखते है | इनमें कोई अंतर नही है सिवाय एक अपवाद के- एक से काष्ठफल प्राप्त होता है और दूसरे से खजूर | नारियल के वृक्ष का फल मानव सिर से मेल खाता है | क्योंकि इसमें भी मानो दो आँखे तथा  एक मुख है और अन्दर का भाग हरा  होने पर मष्तिष्क जैसा दिखता है और उससे जुडा रेशा बालों जैसा दिखाई देता है | वे इससे रस्सी बनाते है | लोहे की कीलों के प्रयोग के बजाय इनसे जहाज को सिलते है | वे इससे बर्तनों के लिए रस्सी भी बनाते है | 

इब्नबतूता और भारतीय शहर  
        इब्नबतूता के वृतांत से ऐसा प्रतीत होता है की अधिकाँश शहरों में भीड़-भाड़ वाली सड़कें तथा चमक-दमक वाले और रंगीन बाजार थे जो विविध प्रकार की वस्तुओं से भरे रहते थे |
        इब्नबतूता ने दिल्ली को एक बड़ा शहर, विशाल आबादी तथा भारत में सबसे बड़ा बताता है | दौलताबाद  भी आकार में दिल्ली को चुनौती देता था |
        बाजार मात्र आर्थिक विनिमय के स्थान ही नहीं थे बल्कि सामजिक तथा आर्थिक गतिविधियों का केंद्र भी थे |
अधिकाँश बाजारों में एक मस्जिद तथा एक मंदिर होता था और उनमें से कम से कम कुछ में तो नर्तकों, संगीतकारों तथा गायकों के सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए स्थान भी चिन्हित थे | 
        इब्नबतूता ने पाया कि भारतीय कृषि के इतना अधिक उत्पादनकारी होने का कारण मिट्टी का उपजाऊपन था, जो किसानों के लिए वर्ष में दो फसलें उगाना संभव करता था |
        भारतीय माल की मध्य तथा दक्षिण- पूर्व एशिया, दोनों में बहुत मांग थी जिससे शिल्पकारों एवं व्यापारियों को भारी मुनाफ़ा होता था | भारतीय कपड़ों, विशेषरूप से सूती कपडे, महीन मलमल, रेशम,जरी,तथा साटन की अत्याधिक मांग थी |

संचार की अनूठी प्रणाली :
        इब्नबतूता डाक प्रणाली की कार्यकुशलता देखकर चकित था | डाक प्रणाली इतनी कुशल थी कि जहां सिंध से दिल्ली की यात्रा में 50 दिन लगते थे वहीं गुप्तचरों की खबरें सुलतान तक इस डाक के व्यवस्था से मात्र 5दिनों में पहुँच जाती थी |
        भारत में दो प्रकार की डाक व्यवस्था थी |  पहला , अश्व डाक व्यवस्था जिसे "उलूक" कहा जाता था | हर चार मील की दूरी पर स्थापित राजकीय घोड़ों द्वारा चालित होती  थी | 
         दूसरा , पैदल डाक व्यवस्था के प्रति मील तीन अवस्थान होते थे ; इसे "दावा" कहा जाता था, और यह एक मील का एक-तिहाई होता था | डाकिये के पास एक हाथ में पत्र और  दो हाथ लम्बी छडी  होती थी जिसके ऊपर तांबे की घंटियाँ लगी होती थी | जब एक पैदल डाकिया अपनी क्षमतानुसार दौड़ कर घंटी बजाते हुए  आता, तब तक  तैयार दूसरा  डाकिया पहले डाकिये से पत्र लेकर भागता | पत्र के अपने  गन्तव्य स्थान पहुचने तक यही  प्रक्रिया चलती रहती थी |  यह पैदल डाक व्यवस्था अश्व डाक व्यवस्था से अधिक -तीव्र होती थी
 

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