MENU

Tuesday 7 July 2020

भक्ति-सूफ़ी परम्पराएं वर्ग 12 पाठ 6 भाग 3

भक्ति-सूफ़ी परम्पराएं 
भारत में इस्लामी परम्पराएं :
    प्रथम सहस्राब्दी ईस्वी में अरब व्यापारी समुद्र के रास्ते पश्चिमी भारत के बंदरगाह  तक आये | इसी समय मध्य एशिया से लोग देश के उत्तर-पश्चिम प्रान्तों में आकर बस गए | 7 वीं सदी में इस्लाम के उद्भव के बाद ये क्षेत्र  इस्लामिक क्षेत्र बन गया |
   
711 ईस्वी में मुहम्मद बिन कासिम नाम के एक अरबी सेनापति ने सिंध को विजित किया और उसे खलीफा के क्षेत्र में शामिल कर लिया | बाद में (13वीं शताब्दी ईस्वी) तुर्क और अफगानों ने दिल्ली सल्तनत की नीवं रखी|  समय के साथ देश के अन्य भागों में दिल्ली सल्तनत की सीमा का प्रसार हुआ  |  यह स्थिति 16वीं शताब्दी में मुग़ल सल्तनत की स्थापना के साथ  भी बरकरार रही | 18 वीं सदी में जो क्षेत्रीय राज्य उभर कर आये उनमें से कई राज्यों के शासक भी इस्लाम धर्म को मानने वाले थे |
    सैद्वान्तिक रूप से मुसलमान शासकों को उलमा के मार्गदर्शन पर चलना होता था | उलमा से यह अपेक्षा की जाती थी कि वे शासन में शरिया का अमल सुनिश्चित करायेगें | किन्तु भारतीय उपमहाद्वीप की स्थिति जटिल थी क्योंकि बड़ी जनसंख्या इस्लाम धर्म को मानने वाली नहीं थी |
                    ऐसे में जिम्मी (उत्पति अरबी शब्द जिम्मा से ) अर्थात संरक्षित श्रेणी का उदय हुआ | जिम्मी वे लोग थे जो इस्लाम को नहीं मानते थे परन्तु उसके शासक मुसलमान होता था - जैसे - ईसाई , यहूदी , हिन्दू | ये  लोग जजिया कर चुका कर मुसलमान शासकों द्वारा संरक्षण दिए जाने के अधिकारी हो जाते थे | 
    
 शरिया 
    शरिया मुसलमान समुदाय को निर्देशित करने वाला कानून है | यह कुरान शरीफ और हदीस पर आधारित है | हदीस का अर्थ है पैगम्बर साहब से  जुडी परम्पराएं जिनके अंतर्गत उनके स्मृत शब्द और क्रियाकलाप भी आते है |
    जब अरब क्षेत्र से बाहर इस्लाम का प्रसार हुआ जहां के आचार-व्यवहार भिन्न थे तजो क्रियास (सदृश्ता के आधार पर तर्क) और इजमा (समुदाय की सहमति)  को भी क़ानून का स्रोत माना जाने लगा | इस तरह शरिया, कुरआन , हदीस , क्रियास और इजमा से उद्भूत हुआ |


कभी कभी कुछ शासक गैर -मुसलमानों के प्रति उदार दृष्टिकोण रखते थे | 
 जोगी के प्रति श्रद्वा 
यह उद्वरण 1661-62 में औरंगजेब द्वारा एक जोगी को लिखे पत्र का अंश है - 
बुलंद मकाम शिवमूरत गुरु  आनन्द नाथ जियो !
जनाब-ए -मुहतरम ( श्रद्वेय ) अमन और खुशी से आ श्री शिव जियो की पनाह में रहें | 
पोशाक के लिए वस्त्र और पच्चीस रूपये की रकम  भेंट के तौर  पे भेजी जा गई है आप तक पहुंचेगी .......... जनाब-ए-मुहतरम आप हमें लिख सकते है जब भी हमारी मदद की जरुरत  हो |


लोक प्रचलन में इस्लाम :
    भारत में इस्लाम के आगमन से अनेक परिवर्तन हुए|  विभिन्न सामाजिक समुदायों -किसान,शिल्पी , योद्वा, व्यापारी जिन्होंने इस्लाम धर्म कबूल किया उन्होंने इसकी पांच बातें मानी -
* अल्लाह एकमात्र ईश्वर है ;
* पैगम्बर मुहम्मद उनके दूत (शाहद ) है ;
* दिन में पांच बार नमाज पढी जानी चाहिए ;
* खैरात(जकात )  बांटनी चाहिए ;
* रमजान के महीने में रोजा रखना चाहिए और हज के लिए मक्का जाना चाहिए |
    इन धर्मातरित लोगों ने  अरबी संस्कृति के स्थान पर स्थानीय व्यवहारों को अपनाया |  कुरान के विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए  जीनन (ज्ञान ) नाम से भक्ति गीत, जो राग में निबद्व थे, पंजाबी, मुल्तानी, सिंधी,कच्छी, हिन्दी और गुजराती में दैनिक प्रार्थना के दौरान गाए जाते थे |  मस्जिदों के निर्माण में भी अरबी और भारतीय शैली का मिश्रण देखने को मिलता है | मस्जिदों के कुछ स्थापत्य सम्बन्धी तत्व सार्वर्भौमिक थे - जैसे इमारत का मक्का की तरफ अनुस्थापन जो मेहराब( प्रार्थना का आला ) और मिनबर (व्यासपीठ ) की स्थापना से लक्षित होता था |
 मातृगृहता : 
     मातृगृहता वह परिपाटी है जहां स्त्रियाँ विवाह के बाद अपने मायके में ही अपनी सन्तान के साथ रहती है और उनके पति उनके साथ आकर रह सकते है | 

समुदायों के नाम :
    कुछ इतिहासकारों का मानना है कि इस्लाम धर्म मानने वाले लोगों के लिए शायद ही मुसलमान शब्द का प्रयोग हुआ हो |  8वीं से 14वीं शताब्दी के मध्य  संस्कृत ग्रन्थों और अभिलेखों के अध्ययन से यह पता चलता है की इस लोगों का वर्गीकरण उनके जन्म स्थान के आधार पर किया जाता था | तुर्की के मुसलमानों को "तुरुष्क " , तजाकिस्तान के आए लोगों को "ताजिक" और फारस के लोगों को "पारसीक" के नाम से सम्बोधित किया जाता था |
    भारत में इन प्रवासी समुदायों के लिए सामान्य प्रयुक्त शब्द " मलेच्छ" था | अर्थात ये लोग वर्ण नियमों का पालन नहीं करते थे और ऐसी भाषा का प्रयोग करते जो संस्कृत से नहीं उपजी थी |

सूफीमत का विकास :
    इस्लाम की आरंभिक शताब्दियों में धार्मिक और राजनीतिक संस्था के रूप में खिलाफत की बढ़ती विषयशक्ति के विरूद्व कुछ आध्यात्मिक लोगों का रहस्यवाद और वैराग्य की ओर झुकाव बढ़ा, जिन्हें सूफ़ी कहा जाता था |
    इन लोगों ने रूढ़ीवादी परिभाषाओं तथा धर्माचार्यों द्वारा की गयी कुरानऔर सुन्ना (पैगम्बर के व्यवहार ) की बौद्विक व्याख्या की आलोचना की | इसके विपरीत सुफिओं ने मुक्ति की प्राप्ति के लिए ईश्वर की भक्ति पर बल दिया और कुरान की व्याख्या अपने निजी अनुभवों के आधार पर की |

सूफीवाद  और तसव्वुफ
    सूफीवाद  19वीं  मुद्रित एक अंगरेजी शब्द है  | इस सूफीवाद के इस्लामी ग्रन्थों में जिस शब्द का  इस्तेमाल होता था वह है  तसव्वुफ | कुछ विद्वानों  अनुसार यह  शब्द "सूफ " से निकलता  है जिसका अर्थ "ऊन " है | अन्य विद्वान इस शब्द की उत्पति "सफा" से मानते  जिसका अर्थ है  " साफ " | यह  भी संभव है कि यह शब्द "सफा" से निकला हो जो पैगम्बर की मस्जिद के बाहर चबूतरा   निकट अनुयायियों की मंडली धर्म के  बारे में जानने के लिए इकटठी होती थी |

खानकाह और सिलसिला 
    
11वीं शताब्दी तक आते-आते सूफी अपने को एक संगठित समुदाय -
खानकाह(मठ) के इर्द-गिर्द स्थापित करते थे | खानकाह का नियन्त्रण शेख (अरबी), पीर अथवा मुर्शीद (फारसी ) के हाथ में था | शेख/पीर/मुर्शीद का अर्थ बुजुर्ग/गुरु/मार्गदर्शक/ शिक्षक  होता है | वे अनुयायियों (मुरीदों) की भर्ती करते थे और अपने वारिस (खलीफा ) की नियुक्ति करते थे | आध्यात्मिक व्यवहार के नियम निर्धारित करने के अलावा खानकाह में रहने वालों के बीच के सम्बन्ध और शेख व् जनसामान्य के बीच के रिश्तों की सीमा भी नियत करते थे |
    12वीं शताब्दी के आसपास इस्लामी दुनिया में सूफी सिलसिलों का गठन होने लगा| सिलसिला का शाब्दिक अर्थ है जंजीर जो शेख और मुरीद के बीच एक निरंतर रिश्ते की द्योतक है , जिसकी पहली अटूट शक्ति कड़ी पैगम्बर से जूडी है | इस कड़ी के द्वारा आध्यात्मिक शक्ति और आशीर्वाद मुरीदों तक पहुचता था | दीक्षा के विशिष्ट अनुष्ठान विकसित किये गए जिसमें दीक्षित को निष्ठा का वचन देना होता था, और सर मुंडाकर ठेगडी लगे वस्त्र धारण करने पड़ते थे |
    पीर की मृत्यु के बाद उसकी दरगाह( फारसी में इसका अर्थ दरबार ) उसके मुरीदों के लिए भक्ति का स्थल बन जाती थी | इस तरह पीर की दरगाह पर जियारत के लिए जाने की, खासतौर से उनकी बरसी के अवसर पर, परिपाटी चल निकली | इस परिपाटी तो उर्स( विवाह, मायने पीर की आत्मा का ईश्वर से मिलन) कहा जाता था क्योंकि लोगों का माना था कि मृत्यु के बाद पीर ईश्वर से एकीभूत हो जाते है और इस तरह पहले के बजाय उनके अधिक करीब हो जाते है | लोग आध्यात्मिक और ऐहिक कामनाओं की पूर्ती के लिए उनका आशीर्वाद लेने जाते थे | इस तरह शेख का वली (ईश्वर का मित्र) के रूप में आदर करने की परिपाटी शुरू हुई |

 सिलसिलों के नाम 
ज्यादातर सूफी वंश उन्हें स्थापित करने वालों के नाम पर पड़े |  उदाहरण - कादरी सिलसिला शेख अब्दुल कादिर जिलानी के नाम पर पड़ा | कुछ अन्य सिलिसलों का नामकरण उनके जन्मस्थान पर हुआ जैसे चिश्ती नाम मध्य अफगानिस्तान के चिश्ती शहर से लिया गया |
 वली
वली (वहुवचन औलिया ) अर्थात ईश्वर का मित्र वह सूफी जो अल्लाह के नजदीक होने का दावा करता था और उनसे मिली बरकत से करामात करने की शक्ति रखता था |

बे-शरिया 
            कुछ रहस्यवादियों ने सूफी सिद्वान्तों की मौलिक व्याख्या के आधार पर नवीन आंदोलनों की  नीवं रखी | खानकाह का तिरस्कार करके यह रहस्यवादी, फकीर की जिन्दगी बिताते थे | निर्धनता और ब्रह्मचर्य का  पालन किया | इन्हें विभिन्न नामों से जाना जाता था - कलंदर, मदारी, मलंग, हैदरी इत्यादि |  शरिया की अवहेलना करने के कारण उन्हें बे-शरिया कहा जाता था |
बा-शरिया- वे जो इस्लाम के विधानों को मानकर चलते है | 

No comments:

Post a Comment

M. PRASAD
Contact No. 7004813669
VISIT: https://www.historyonline.co.in
मैं इस ब्लॉग का संस्थापक और एक पेशेवर ब्लॉगर हूं। यहाँ पर मैं नियमित रूप से अपने पाठकों के लिए उपयोगी और मददगार जानकारी शेयर करती हूं। Please Subscribe & Share