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Thursday 9 July 2020

भक्ति-सूफ़ी परम्पराएं वर्ग 12 पाठ 6 भाग 4

भक्ति-सूफ़ी परम्पराएं  
भारतीय उपमहाद्वीप में चिश्ती सिलसिला 
12वीं शताब्दी के अंत में भारत आने वाले सूफ़ी समुदायों में चिश्ती सबसे अधिक प्रभावशाली रहे | इसके दो कारण थे -  
* चिश्ती सिलसिला अपने आपको  स्थानीय परिवेश में अच्छी तरह ढाल लिया |
* इसने भारतीय भक्ति परम्परा की कई  विशिष्टताओं को भी अपनाया |

चिश्ती खानकाह में जीवन 
    
खानकाह सामाजिक जीवन का केंद्र बिंदु था | खानकाह के बारे में विस्तृत अध्ययन निजामुद्दीन औलिया की खानकाह से करेंगे | निजामुद्दीन औलिया का खानकाह दिल्ली शहर की बाहरी सीमा पर यमुना नदी के किनारे गियास्पुर में था | 
यहाँ कई छोटे-छोटे कमरे और एक बड़ा हाल (जमातखाना ) था जहां सहवासी और अतिथि रहते, और उपासना करते थे | 
    सहवासियों में शेख का अपना परिवार, सेवक और अनुयायी थे |  शेख एक छोटे कमरे में छत पर रहते थे जहां वः मेहमानों से सुबह-शाम मिला करते थे | आँगन एक गलियारे से घिरा होता था और खानकाह को चारों ओर से दीवार घेरे रहती थी | 
    एक बार मंगोल आक्रमण के समय पड़ोसी क्षेत्र के लोगों ने खानकाह में शरण ली |
    यहाँ एक समुदायिक रसोई (लंगर ) फुतूह (बिना माँगी खैर ) पर चलती थी | सुबह से देर रात तक सब तबके के लोग -सिपाही, गुलाम, गायक, व्यापारी, कवि, राहगीर, धनी और निर्धन , हिन्दू जोगी और कलंदर यहाँ अनुयायी बनने, इबादत करने, ताबीज लेने अथवा विभिन्न मसलों पर मध्यस्थता के लिए आते थे |  कुछ विशिष्ट मिलने वालों में अमीर हसन सिजजी  और अमीर खुसरो जैसे कवि  तथा इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी जैसे लोग शामिल थे | इन लोगों के अनुसार शेख के सामने झुकना, मिलने वालों को पानी पिलाना, दीक्षितों के सर का मुंडन  तथा यौगिक व्यायाम आदि व्यवहार इस तथ्य के द्योतक हैं कि स्थानीय परम्पराओं को आत्मसात करने का प्रयत्न किया गया | 
    शेख निजामुद्दीन ने कई आध्यात्मिक वारिसों का चुनाव किया और उन्हें उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में खानकाह स्थापित करने के लिए नियुक्त किया | इस वजह से चिश्तियों के उपदेश, व्यवहार और संस्थाएं तथा शेख का यश चारों और फैल  गया | उनकी तथा उनके आध्यात्मिक पूर्वजों की दरगाह पर अनेक तीर्थयात्री आने लगे |

चिश्ती उपासना: जियारत और कव्वाली 
   
सूफी संतों की दरगाह पर की गई जियारत सारे इस्लामी संसार में प्रचलित है | पिछले सात सौ सालों से अलग-अलग सम्प्रदायों, वर्गों और समुदायों के लोग पांच महान चिश्ती संतों की दरगाह पर अपनी आस्था प्रकट करते रहे है | इनमें सबसे अधिक पूजनीय  दरगाह ख्वाजा मुइनुद्दीन 
 चिश्ती की है जिन्हें "गरीब नवाज" कहा जाता है |
    यह दरगाह शेख की सदाचारिता और धर्मनिष्ठा तथा उनके आध्यात्मिक वारिसों की महानता और राजसी मेहमानों द्वारा दिए गए प्रश्रय के कारण लोकप्रिय थी | 
   
मुहम्मद बिन तुगलक (1324-51) पहला सुलतान था जो इस दरगाह पर आया था | शेख की मजार पर सबसे पहली इमारत मालवा के सुल्तान गियासुद्दीन खलजी ने 15वीं सदी के उतरार्ध में बनवाई | चूँकि यह दरगाह दिल्ली और गुजरात को जोड़नेवाले व्यापारिक मार्ग पर थी अत: अनेक यात्री यहाँ आते थे |
    16वीं शताब्दी तक आते -आते अजमेर की यह दरगाह बहुत ही लोकप्रिय हो गयी | मुग़ल बादशाह अकबर 14 बार आया | कभी तो साल में दो-तीन बार, कभी  नयी जीत के लिए आशीर्वाद लेने अथवा संकल्प की पूर्ती पर या फिर पुत्रों के जन्म पर |
अकबर यह परम्परा 1580 तक बनाए रखी| प्रत्येक यात्रा पर बादशाह दान-भेंट किया करते थे, जिनके ब्योरे शाही दस्तावेजों में दर्ज है | उदाहरण के लिए , 1568 में उन्होंने तीर्थयात्रियों के इए खाना पकाने हेतु एक विशाल देग दरगाह को भेंट की | उसने दरगाह के अहाते में एक मस्जिद भी बनवाई|
    नाच और संगीत भी जियारत (भक्ति ) का हिस्सा थे , खासतौर से कव्वालों द्वारा प्रस्तुत रहस्यवादी गुणगान जिसमें परमानद की भावना को उभारा जा सके| सूफ़ी संत जिक्र(ईश्वर का नाम-जाप ) या फिर समा (श्रवण करना ) यानी आध्यात्मिक संगीत की महफिल के द्वारा ईश्वर की उपासना में विश्वास रखते थे | चिश्ती उपासना पद्वति में सभा का महत्व इस तथ्य की पुष्टि करता है कि चिश्ती स्थानीय भक्ति परम्परा से जुड़े | 

चिश्ती सिलसिला के मुख्य उपदेशक 
1. शेख मुईनुद्दीन चिश्ती- 1235(मृत्यु) - अजमेर (दरगाह )
2. ख्वाजा कुतुबद्दीन बख्तियार काकी- 1235 (मृत्यु) - दिल्ली 
3. शेख फरीदुद्दीन गंज-ए-शंकर - 1265 (मृत्यु)- अजोधन (पाकिस्तान)
4. शेख निजामुद्दीन औलिया- 1325 (मृत्यु ) दिल्ली 
5. शेख नसीरुद्दीन चिराग-ए-देहली - 1356 (मृत्यु)- दिल्ली  

" 1039ईस्वी  में  अबुल हसन अल हुजविरी जो अफगानिस्तान के शहर गजनी के निकट हुजविर के रहनेवाले थे , उन्हें तुर्की सेना के एक कैदी के रूप में सिन्धु नदी पार करनी पडी| वह लाहौर में बस गए और फ़ारसी में उन्होंने एक किताब लिखी "कश्फ़ -उल - महजूब " (परदे वाले की बेपर्दगी ) जिसमें तसव्वुफ के मायने और इसका पालन करने वाले सूफियों के बारे में बताया गया था | 
    हुजविरी की 1073 में मृत्यु हो गयी और उन्हें लाहौर में दफनाया गया | सुलतान महमूद गजनी के पोते ने उनकी मजार पर दरगाह बनवाई | यह दरगाह उनकी बरसी के अवसर पर उनकी अनुयायियों के लिए तीर्थ स्थल बन गयी | 
    आज भी हुजविरी दाता गंज बख्श के रूप में आदरणीय है और उनकी दरगाह को दाता  दरबार यानी देने वाले की दरगाह कहा जाता है |"

" मुल्क का चिराग "
    |- प्रत्येक सूफी दरगाह के कुछ विशिष्ट लक्षण होते थे | 18वीं शताब्दी में ढक्कन के दरगाह कुली खान शेख नसीरुद्दीन चिराग-ए-देहली  की दरगाह के बारे में मुरक्का-ए-देहली  (दिल्ली की अलबम ) में लिखा कि -------
शेख सिर्फ देहली के ही चिराग नहीं अपितु सारे मुल्क के चिराग है | लोंगो का हुजूम यहाँ आता है खासतौर से इतवार के रोज | दिवाली के महीने में दिल्ली की सारी आबादी दरगाह पर उमड़ आती है और हौज के पास तम्बू गाड़ कर वे कई दिनों तक यहाँ रहते है | पुराने रोंगों को ठीक करने के लिए वे यहाँ नहाते है | हिन्दू और मुसलमान एक ही भावना से आते है | सुबह से शाम तक लोग आते है और पेड़ की छाँव में हंसी-खुशी में समय बिताते है |-

"मुग़ल शहजादी जहांआरा  की तीर्थयात्रा -1643 "
यह गद्यांश जहाँआरा द्वारा रचित शेख मुईनुद्दीन चिश्ती की जीवनी मुनिस-अल-अखाह (यानी आत्मा का विश्वस्त) से लिया गया है -
" अल्लाहताला की तारीफ के बाद ....... यह फकीरा जहांआरा..... राजधानी आगरा से अपने पिता बादशाह शाहजहाँ के संग पाक और बेजोड़ अजमेर के लिए निकली ..... मैं इस बात के लिए वायादापरस्त थी कि हर रोज और हर मुकाम पर मैं दो बार की अख्तियारी नमाज अदा करूंगी ..... बहुत दिन ....मैं रात को बाघ के चमड़े पर नहीं सोई और अपने पैर मुकद्दस दरगाह की तरफ नहीं फैलाए, न ही मैंने अपनी पीठ उनकी तरफ की| मैं पेड़ के नीचे दिन गुजारती थी |
     वीरवार को रमजान के मुकद्दस महीने के चौथे रोज मुझे चिराग और इतर में डूबे दरगाह की जियारत की खुशी हासिल हुई .....चूंकि दिन की रोशनी की एक छड़ी बाकी थी मैं दरगाह के भीतर गई और अपने जर्द चहरे को उसकी चौखट की धुल से रगडा| दरवाजे से मुकद्दस दरगाह तक मैं नंगे पाँव वहां की जमीन को चूमती हुई गयी | गुम्बद के भीतर रोशनी से दरगाह में मैंने मजार के चारों ओर सात फेरे लिए| आखिर में अपने हाथों से मुकद्दस दरगाह पर मैंने सबसे उम्दा इतर छिड़का | चूंकि गुलाबी दुपट्टा जो मेरे सिर पर था, मैं उतार चुकी थी इसलिए उसे मैंने मुकद्दस मजार के ऊपर रखा |..

भाषा और सम्पर्क 
    चिश्तियों ने स्थानीय भाषा को अपनाया | बाबा फरीद ने भी क्षेत्रीय भाषा में काव्य रचना की जो गुरु ग्रन्थ साहिब में संकलित है | कुछ और सूफियों ने लम्बी कवितायेँ " मसनवी" लिखी जहां ईश्वर के प्रति प्रेम को मानवीय प्रेम के रूपक के द्वारा अभिव्यक्त किया गया | जैसे मलिक मुहम्मद जायसी की रचना " पद्मावत " |
सूफी कविता की एक भिन्न विधा की रचना बीजापुर कर्नाटक के आसपास हुई | यहाँ इस क्षेत्र में रहनेवाले चिश्ती संतों ने छोटी-छोटी कवितायेँ लिखी | ये रचनाएं सम्भवत: औरतों द्वारा घर का काम करते हुए  गाई जाती थी | कुछ रचनाएं लोरीनामा और शादीनामा के रूप में लिखी गयी |ये सूफी रचनाएं भक्ति परम्परा से प्रभावित थी | 
    लिंगायतों द्वारा लिखे गए "कन्न्ड़ के वचन" और पंढरपुर के संतों द्वारा लिखी मराठी के  "अभंगों" ने भी उन पर प्रभाव डाला |

सूफी और राज्य से संबंध 
सूफी संत सत्ता से दूर रहते थे  | लेकिन सत्तधारी विशिष्ट वर्ग अगर बिना मांगे अनुदान या भेंट देता तो सूफी संत उसे स्वीकार करते थे |  सुल्तानों ने खानकाहों को कर मुक्त (इनाम) भूमि अनुदान में दी और दान संबंधी न्यास स्थापित किये | 
    चिश्ती धन और सामान के रूप में दान स्वीकार करते थे और खाने, कपड़े, रहने की व्यवस्था और समा की महफिलों पर पूरी तरह खर्च कर देते थे | सूफी संतों की नैतिकता से लोगों का उनके प्रति झुकाव था | इन वजहों से शासक भी उनका सर्थन करते थे | 
    शासक ने सूफी संतों से सम्पर्क रखते थे क्योंकि सूफी शरिया की व्याख्या पर निर्भर नही थे | सुलतान जनता था किअधिकाँश प्रजा इस्लाम धर्म मानने वाली नहीं थी | इसलिए शरिया लागू करना उचित नहीं |
    सुल्तानों और सूफियों के बीच तनाव के उदाहरन भी मौजूद है |अपनी सत्ता का दावा करने के लिए दोनों ही कुछ आचारों पर बल देते थे जैसे झुक कर प्रणाम और कदम चूमना | निजामुद्दीन औलिया के  अनुयायी उन्हें सुलतान-उल-मशेख (शेखों में सुलतान) कह कर सम्बोधित करते थे |

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M. PRASAD
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