धार्मक विश्वासों में बदलाव और श्रद्वा ग्रन्थ ( लगभग 8वीं से 18वीं सदी तक )
अलवार और नयनार संतो का जाति के प्रति दृष्टिकोण
अलवार (वैष्णव)और नयनार (शैव) दोनों ही मत के संतों ने अस्पृश्यता एवं जाति-पांति का विरोध किया | संतो ने जाति प्रथा व ब्राह्मणों की प्रभुता के विरोध में आवाज उठाई | भक्ति संत विविध समुदायों से थे जैसे ब्राह्मण,शिल्पकार, किसान और कुछ तो उन जातियों से आए थे जिन्हें "अस्पृश्य " माना जाता था|
अलवार और नयनार संतो की रचनाओं को वेद जितना महत्वपूर्ण बताया गया | अलवार संतो के एक मुख्य काव्य संकलन "नलयिरादिव्यप्रबन्धम" का वर्णन तमिल वेद के रूप में किया जाता था | इस ग्रन्थ की तुलना चारों वेदों से किया गया जो ब्राह्मणों द्वारा पोषित थे |
चतुर्वेदी (चारो वेदों के ज्ञाता ब्राह्मण और " अस्पृश्य " यह उद्वरण तोंदराडिप्पोडी नामक एक ब्राह्मण अलवार के काव्य से लिया गया है : चतुर्वेदी जो अजनबी है और तुम्हारी सेवा के प्रति निष्ठा नहीं रखते, उनसे भी ज्यादा आप (हे विष्णु ) उन दासों को पसंद करते है, जो आपके चरणों से प्रेम रखते है, चाहे वे वर्ण-व्यवस्था के परे हो | |
शास्त्र या भक्ति यह छंद अप्पार नामक नयनार संत की रचना है : हे धूर्तजन, जो तुम शास्त्र को उद्वृत करते हो तुम्हारा गोत्र और कुल भला किस काम का ? तुम केवल मारपेरू के स्वामी (शिव जो तमिलनाडु के तंजावुर जिले के मारपेरू में बसते है |) को अपना एकमात्र आश्रयदाता मानकर नतमस्तक हो | |
इस परम्परा की सबसे महत्वपूर्ण विशिष्टा इसमें स्त्रियों की उपस्थिति थी | जैसे अंडाल नामक अलवार स्त्री के के भक्ति गीत व्यापक स्तर पर गाए जाते थे और आज भी गाए जाते है | अंडाल स्वयं को विष्णु की प्रेयसी मानकर अपनी प्रेमभावना को छंदों में व्यक्त करती थीं |
एक और स्त्री शिवभक्त करइक्काल अम्मइयार ने अपने उद्वेश्य की प्राप्ति हेतु घोर तपस्या का मार्ग अपनाया | नयनार परम्परा में उसकी रचनाओं को सुरक्षित किया गया | हालांकि इन स्त्रियों ने अपने सामाजिक कर्तव्यों का परित्याग किया | इन स्त्रियों की जीवन पद्वति और इनकी रचनाओं ने पितृसत्तात्मक आदर्शों को चुनौती दी |
भक्ति साहित्य का संकलन 10वीं शताब्दी तक आते-आते बारह अलवारों की रचनाओं का एक संकलन कर लिया गया जो "नलयिरादिव्यप्रबन्धम"("चार हजार पावन रचनाएं ") के नाम से जाना जाता है | 10वीं शताब्दी में ही अप्पार संबंदर और सुन्दरार की कवितायेँ तवरम नामक संकलन में राखी गयी जिसमें कविताओं का संगीत के आधार पर वर्गीकरण हुआ | |
संतों का राज्य के साथ संबंध
प्रथम सहस्राब्दी ईस्वी के उतरार्ध में राज्य का उद्भव और विकास हुआ जिसमें पल्लव और पांड्य राज्य शामिल थे | जैन धर्म और बौद्व धर्म की उपस्थिति कई सदियों से थी और उन्हें व्यापारी व् शिल्पी वर्ग का प्रश्रय हासिल था | इन धर्मों को राजकीय संरक्षण और अनुदान यदा-कदा ही हासिल होता था |
तमिल भक्ति रचनाओं की एक मुख्य विषयवस्तु बौद्व और जैन धर्म के प्रति उनका विरोध है | विरोध का स्वर संतों की रचनाओं में विशेष रूप से उभर कर आता है | इतिहासकारों का मानना है कि परस्पर विरोधी धार्मिक समुदायों में राजकीय अनुदान को लेकर प्रतिस्पर्धा थी | शक्तिशाली चोल सम्राटो (9-13 वीं शताब्दी) ने ब्राह्मनीय और भक्ति परम्परा को समर्थन दिया तथा विष्णु और शिव के मंदिरों के निर्माण के लिए भूमि-अनुदान दिए |
चोल सम्राटों ने दैवीय समर्थन पाने और अपनी सत्ता के प्रदर्शन के लिए सुन्दर मंदिरों का निर्माण कराया | इन सम्राटों ने तमिल भाषा के शैव भजनों का गायन इन मंदिरों में प्रचलित किया | चोल सम्राटों द्वारा निर्मित मंदिर - चिदम्बरम, तंजावुर और गंगेकोंडचोलपुरम प्रमुख था | नटराज की मूर्ती अविश्वसनीय देन है |
कर्नाटक की वीरशैव परम्परा :
12वीं शताब्दी में कर्नाटक में एक नवीन आन्दोलन का आरम्भ हुआ | वीरशैव परम्परा का नेतृत्व बासवन्ना (1106-68) नामक ब्राह्मण ने किया | बासवन्ना कलाचुरी राजा के दरबार में मंत्री थे | इनके अनुयायी वीरशैव (शिव के वीर ) व् लिंगायत (लिंग धारण करनेवाले ) कहलाए |
आज भी लिंगायत समुदाय शिव की आराधना लिंग के रूप में करते है | इस समुदाय के पुरूष स्कन्ध पर चांदी के एक पिटारे में एक लघु लिंग को धारण करते है | लिंगायतों का विश्वास है कि मृत्योपरांत भक्त शिव में लीन हो जाएंगे तथा इस संसार में पुन: नही लौटेंगे | धर्मशास्त्र में बताए गए श्राद्व संस्कार का वे पालन नही करते और अपने मृतकों को विधिपूर्वक दफनाते है |
लिंगायतों ने जाति की अवधारणा और अस्पृश्यता का विरोध किया | पुनर्जन्म के सिद्वांत का भी विरोध किया | धर्मशास्त्रों में जिन आचारों को अस्वीकार किया गया था जैसे व्यस्क विवाह और विधवा पुनर्विवाह , लिंगायतों ने उन्हें मान्यता प्रदान की |
अनुष्ठान और यथार्थ संसार यह बासवन्ना द्वारा रचित एक वचन है : जब वे एक पत्थर से बने सर्प को देखते है तो उस पर दूध चढाते है यदि असली सांप आ जाए तो कहते है "मारो-मारो" | देवता के उस सेवक को, जो भोजन परसने पर खा सकता है वे कहते है "चले जाओ ! चले जाओ |" किन्तु ईश्वर की प्रतिमा को जो खा नहीं सकती, वे व्यंजन परोसते है | |
उत्तर भारत में भक्ति आन्दोलन
उत्तर भारत में भक्ति आन्दोलन के प्रमुख प्रणेता कबीर,नानक और चैतन्य थे |इसके अलावा भी क्षेत्रीय स्तर कई संतों का प्रादुर्भाव हुआ | जिन्होंने स्थानीय भाषा में ईश्वर की भक्ति की और उपदेश देकर एवं लेखन कर धर्ममय वातावरण बनाई | इन सभी ने जाति-पांति, ऊंच-नीच के भेदभाव का विरोध किया | ईश्वर की आराधना के लिए आम लोगों को समानता और प्रेम पर बल दिया |
No comments:
Post a Comment
M. PRASAD
Contact No. 7004813669
VISIT: https://www.historyonline.co.in
मैं इस ब्लॉग का संस्थापक और एक पेशेवर ब्लॉगर हूं। यहाँ पर मैं नियमित रूप से अपने पाठकों के लिए उपयोगी और मददगार जानकारी शेयर करती हूं। Please Subscribe & Share