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Sunday 18 April 2021

य्रात्रियों के नजरिये :समाज के बारे में उनकी समझ (लगभग 10वीं से 17 वीं शताब्दी तक

 य्रात्रियों के नजरिये :समाज के बारे में उनकी समझ (लगभग 10वीं से 17 वीं शताब्दी तक 

यात्रियों  के नजरिए 

समाज के बारे में उनकी समझ 
(लगभग दसवीं से सत्रहवीं सदी तक )

 परिचय : 
    इस्माइल मेरठी का शेर  है -
 "सैर कर दुनिया की गाफिल, जिंदगानी फिर कहां |
   जिन्दगी गर कुछ रही तो नौजवानी फिर कहाँ  || "
            इस अध्याय में विदेशी यात्रियों के नजरिए से तत्कालीन भारतीय समाज एवं संस्कृति की जानकारी प्राप्त करेंगें | मध्य एशिया,अफ्रीका, रूस,चीन और यूरोप से समय - समय पर विदेशी यात्री अपने विभिन्न उद्वेश्य से आते रहे है |  
          यात्रा वृतांत भारतीय कला, संस्कृति, धार्मिक, परम्पराओं, सामाजिक आचार-विचारों, भौगोलिक व आर्थिक परिस्थितियों एवं राजनीतिक व्यवस्था को समझाने के लिए महत्वपूर्ण दस्तावेज है |
        इस कड़ी में तीन प्रमुख विदेशी यात्री - अलबरूनी, इब्नबतूता और फ्रांसिस बर्नियर की यात्रा वृतांताओं को भारतीय परिप्रेक्ष्य में अध्ययन करेंगे |  इसके अतिरिक्त कुछ अन्य विदेशी यात्रियों की संक्षिप्त  जानकारी प्राप्त करेंगें |

        

                                                      अल-बरूनी   


                       `                                      इब्नबतूता

अल-बिरूनी तथा किताब-उल-हिन्द 

* अल-बिरूनी का जन्म आधुनिक उज्बेकिस्तान में स्थित ख्वारिज्म में सन  973 में हुआ था |


* ख्वारिज्म  शिक्षा का प्रमुख केंद्र था , अल-बिरूनी ने अच्छी शिक्षा प्राप्त की थी और कई भाषाओं में महारत हासिल किया था जिनमें सीरियाई, फारसी, हिब्रू, तथा संस्कृत शामिल है |

* सन 1017 ई.में ख्वारिज्म पर आक्रमण के पश्चात सुलतान महमूद यहाँ के कई विद्वानों और कवियों जिसमें अल-बिरूनी भी शामिल था अपने साथ अपनी राजधानी गजनी ले आया |

* 70 वर्ष की आयु में अल-बिरूनी की मृत्यु गजनी में ही हो गयी |


*  सुल्तान महमूद के आक्रमण के समय ही उसके साथ अल-बिरूनी भारत आया था, उसने पंजाब और उत्तर भारत के कई हिस्सों की यात्रा की थी, उसने जो कुछ देखा उसका उसने अपने वृतांतों में लिखा |

* अल-बिरूनी ने ब्राह्मण पुरोहितों तथा विद्वानों के साथ कई वर्ष बिताए और संस्कृत, धर्म तथा दर्शन का ज्ञान प्राप्त किया|

*  अल-बिरूनी ने भारत पर अरबी भाषा में लगभग 20 पुस्तके लिखी लेकिन इनमें  "किताब-उल-हिन्द " अथवा  "तहकीक-ए--हिन्द " महत्वपूर्ण है |

* उसने इस पुस्तक का सृजन 30 अप्रैल 1030ई. से 29 दिसम्बर 1031 ई. के बीच किया |



अल-बिरूनी के उद्वेश्य : 
अल-बिरूनी ने अपने कार्य का वर्णन इस प्रकार किया :  " उन लोगों के लिए सहायक जो  उनसे (हिन्दुओं ) धार्मिक विषयों पर  चर्चा करना चाहते है और ऐसे लोगों के लिए एक सूचना का संग्रह जो उनके साथ सम्बद्व होना चाहते है |"
        कई भाषाओं  में दक्षता हासिल करने के कारण अल-बिरूनी भाषाओं की तुलना तथा ग्रन्थों का अनुवाद करने में सक्षम रहा | उसने कई संस्कृत कृतियों ,जिनमें पतंजलि का व्याकरण पर ग्रन्थ भी शामिल है, का अरबी में अनुवाद किया | अपने ब्राह्मण मित्रों के लिए उसने युक्लिड (एक यूनानी गणितज्ञ) के कार्यों का संस्कृत में अनुवाद किया |



किताब-उल-हिन्द 

* अल-बिरूनी की पुस्तक "किताब-उल-हिन्द  " अरबी भाषा में लिखी गयी थी |

* इस ग्रन्थ में धर्म और दर्शन, त्योहारों,खगोल विज्ञान, कीमिया, रीति-रिवाजों, तथा प्रथाओं, सामाजिक-जीवन,भार-तौल तथा मापन विधियों, मूर्तिकला, क़ानून, मापतंत्र  विज्ञान आदि विषयों के आधार पर  80 अध्यायों में विभाजित है|

* इसके 47वें अध्याय में वासुदेव एवं महाभारत की कथा का वर्णन किया है |

* इसके 9वें अध्याय में भारत की जाति प्रथा एवं वर्ण व्यवस्था पर प्रकाश डाला है |

* 63वें अध्याय में ब्राह्मणों के जीवन तथा 64वें अध्याय में जातियों के अनुष्ठान एवं रीति -रिवाजों का वर्णन है और 69वें अध्याय में भारतीय स्त्रियों की स्थिति का वर्णन मिलता है |

*  अल-बिरूनी के प्रत्येक अध्याय में एक विशिष्ट शैली का प्रयोग किया गया जिसमें आरम्भ में प्रश्न होता था, फिर संस्कृतवादी परम्पराओं पर आधारित वर्णन और अंत में अन्य संस्कृतियों के साथ तुलना |  इस प्रकार  की रचना का मुख्य कारण अल-बिरूनी का गणित के प्रति झुकाव था |

 हिन्दू 
        " हिन्दू " शब्द लगभग छठी -पांचवीं शताब्दी ईसा पूर्व में प्रयुक्त होने वाले एक प्राचीन फारसी शब्द, जिसका प्रयोग सिन्धु नदी (Indus) के पूर्व के क्षेत्र के लिए होता था, से निकला था | 
        अरबी लोगों ने इस फ़ारसी शब्द को जारी रखा और इस क्षेत्र को "अल-हिन्द " तथा यहाँ के निवासियों को  "हिन्दी " कहा | 
        कालान्तर में तुर्कों ने सिन्धु से पूर्व में रहने वाले लोगों को " हिन्दू"; उनके निवास क्षेत्र को " हिन्दुस्तान " तथा उनकी भाषा को "हिन्दवी" का नाम दिया | 
        इनमें से कोई भी शब्द लोगों की धार्मिक पहचान का द्योतक नहीं था | इस शब्द का धार्मिक सन्दर्भ  में प्रयोग बहुत बाद की बात है |


एक अपरिचित संसार की समझ 

अल-बिरूनी तथा संस्कृतवादी परम्परा 
      इस भाग में अल-बिरूनी की भारत यात्रा के दौरान जो बाधाएं उत्पन्न हुई थी ,उसकी चर्चा करते है |

* पहली बाधा  "भाषा" थी | उसके अनुसार संस्कृत, अरबी और फ़ारसी से इतनी भिन्न थी कि विचारों और सिद्वान्तों को एक भाषा से दूसरी में अनुवादित करना आसान नही था |

* दूसरा अवरोध  धार्मिक अवस्था और प्रथा में भिन्नता थी |  विदेशियों को हिन्दू "मलेच्छ " कहते है एवं उनके साथ किसी भी प्रकार सम्बन्ध रखने को निषिद्व  मानते है |

*  तीसरा अवरोध था अभिमान | हिन्दू विश्वास करते है कि उनके जैसा कोई देश नही है, उनके राजाओं के सामान कोई राजा नही है, उनके जैसा कोई  धर्म नही है ,उनके जैसा कोई शास्त्र नही |

* इसके बाबजूद अल-बिरूनी पूरी तरह ब्राह्मणों द्वारा रचित कृतियों पर आश्रित रहा | उसने भारतीय समाज को समझने के लिए अक्सर वेदों,पुराणों, भगवतगीता ,पतंजलि की कृतियाँ  तथा  मनुस्मृति 
आदि से अंश उद्वृत किए है |

अल-बिरूनी की जाति व्यवस्था का विवरण 

* अल-बिरुनी ने अपनी पुस्तक "किताब-उल-हिन्द " के 9वें अध्याय में भारतीय जाति व्यवस्था पर प्रकाश डाला है तथा अन्य देशों से तुलनात्मक अध्ययन किया है |

* उसने लिखा है कि प्राचीन फ़ारस में चार सामाजिक वर्गों को मान्यता थी : 

1. घुड़सवार और शासक वर्ग 

2. भिक्षु, आनुष्ठानिक पुरोहित तथा चिकित्सक 

3. खगोलशास्त्री था अन्य वैज्ञानिक 

4. कृषक तथा शिल्पकार 

            उसने यह भी दर्शाया है कि इस्लाम में सभी लोगों को समान माना जाता था और उनमें भिन्नताएं केवल धार्मिकता के पालन में थी |

* अल-बिरूनी ब्राह्मणवादी व्याख्या को मानने के वावजूद , अपवित्रता की मान्यता हो अस्वीकार किया |उसने लिखा कि हर वह वस्तु जो अपवित्र हो जाती है, अपनी पवित्रता की मूल स्थिति को पुन: प्राप्त करने का प्रयास करती है |

* सूर्य हवा को स्वच्छ करता है और समुद्र में नमक पानी को गंदा होने से बचाता है | ऐसा नही होता तो पृथ्वी पर  जीवन असम्भव होता | उसके अनुसार जाति व्यवस्था में निहित अपवित्रता की अवधारणा प्रकृति के नियमों के विरूद्व थी |

        जाति व्यवस्था के विषय में अल-विरुनी के विवरण संस्कृत ग्रन्थों पर आधारित थी | परन्तु वास्तविक जीवन में यह व्यवस्था इतनी कड़ी नही थी |  जैसे "अन्त्यज " (निम्न जाति ) नामक श्रेणियों से सामान्यता यह अपेक्षा की जाती थी कि वे किसानों और जमींदारों के लिए सस्ता श्रम उपलब्ध करे | हालांकि ये अक्सर सामाजिक प्रताड़ना का शिकार होते थे फिर आर्थिक तन्त्र में शामिल किया जाता था |


 संस्कृत के विषय में अल-बिरूनी की विचार 

        " यदि आप इस कठनाई (संस्कृत भाषा सीखने की ) से पार पाना चाहते है तो यह आसान नही  होगा क्योंकि  अरबी भाषा की तरह ही, शब्दों तथा विभक्तियों, दोनों में ही इस भाषा की पहुँच बहुत विस्तृत है |  इसमें एक ही वस्तु के लिए कई शब्द , मूल तथा व्युत्पन्न दोनों, प्रयुक्त होते है और एक ही शब्द का प्रयोग कई वस्तुओं के लिए होता है, जिन्हें भली प्रकार समझने के लिए विभिन्न विशेषक संकेत्पदों  के माध्यम से एक दूसरे से अलग किया जाना आवश्यक है |"

 वर्ण व्यवस्था

अल-बिरुनी  वर्ण व्यवस्था का इस प्रकार उल्लेख करता है :

                सबसे ऊँची जाति ब्राह्मणों की है जिनके विषय में हिन्दुओं के ग्रन्थ हमें बताते है कि वे ब्रह्मा के सर से उत्पन्न हुए है क्योंकि ब्रह्म,प्रकृति नामक शक्ति का ही दूसरा नाम है , और सिर......... शरीर का सबसे ऊपरी  भाग है, इसलिए ब्राह्मण पूरी प्रजाति के सबसे चुनिन्दा भाग है | इसी कारण से हिन्दू उन्हें मानव जाति में सबसे उत्तम मानते है |
                अगली जाति क्षत्रियों की है जिनका सृजन, ऐसा कहा जाता है ब्रह्मं के कंधों और हाथों से हुआ था उनका दर्जा ब्राह्मणों से अधिक नीचे नही है |
                उनके पश्चात वैश्य आते है जिनका  उद्भव ब्रह्मं की जंघाओं से हुआ था |
                शूद्र , जिनका सृजन उनके चरणों से हुआ था |
अंतिम दो वर्गों के बीच अधिक अंतर नही है | लेकिन इन वर्गों के बीच भिन्नता होने पर भी ये एक साथ एक ही शहरों  और गावों में रहते है,समान घरों और आवासों में मिल-जूल कर |


यात्रियों  के नजरिए 
समाज के बारे में उनकी समझ 
(लगभग दसवीं से सत्रहवीं सदी तक )

इब्नबतूता
        इब्नबतूता एक अफ्रीकी यात्री था | उसने भारत की यात्रा-वृतांत "रेहला" अरबी भाषा में लिखा था | वह एक उच्च शिक्षित एवं विद्वान था | उसने अपनी यात्रा 22 वर्ष की अवस्था में आरंभ किया था |

जन्म एवं परिचय :
         इब्नबतूता का जन्म 24 जनवरी 1304 ई. को अफ्रीकी महादेश के मोरक्को के तेंजियर  नगर में एक खानाबदोश जाति में हुआ था | उसने 73 वर्ष के जीवन काल में लगभग सभी मुस्लिम देश की यात्रा की थी | वह पुस्तकों के स्थान पर यात्राओं से अर्जित अनुभव को ज्ञान का अधिक महत्वपूर्ण स्रोत मानता था |

         1332-33 में भारत के लिए प्रस्थान करने से पहले वह मक्का की तीर्थ यात्राएं और सीरिया, ईराक, फारस, यमन, ओमान तथा अफ्रीका के कई तटीय व्यापारिक बंदरगाहों  की यात्राएं कर चुका था | 


        मध्य एशिया के रास्ते होकर इब्नबतूता सन 1333 में स्थलमार्ग से सिंध पहुँचा | वह मुल्तान और उच्छ के रास्ते होकर दिल्ली की और प्रस्थान किया | दिल्ली का सुलतान मुहम्मद बिन तुगलक उसकी विद्वता से प्रभावित हुआ और उसे दिल्ली का काजी नियुक्त किया | वह इस पद पर कई वर्षों तक रहा ,पर फिर उसने विश्वास खो दिया और उसे कारागार में डाल दिया | बाद में सुलतान और उसके बीच की गलतफहमी दूर होने के बाद उसे राजकीय सेवा में पुनर्स्थापित किया गया और 1342 ई. में मंगोल शासक के पास सुल्तान के दूत के रूप में चीन जाने का आदेश दिया |
        इब्नबतूता मध्य भारत के रास्ते मालाबार तट की बढ़ा | वह मालद्वीप गया जहां 18महीनों तक काजी के पद पर रहा | वह जहाज से सुमात्रा गया और सुमात्रा से एक अन्य जहाज से चीनी बंदरगाह जायतुन ( क्वानझू) गया | 1347 में उसने वापस अपने घर जाने का निश्चय किया | 

        इब्नबतूता ने नवीन संस्कृतियों,लोगों, आस्थाओं, मान्यताओं, आदि के विषय में अपने अभिमत को सावधानी तथा कुशलतापूर्वक दर्ज किया | 

        इब्नबतूता के अनुसार उसे मुल्तान से दिल्ली की यात्रा में 40 और सिंध से दिल्ली की यात्रा में 50 दिन का समय लगा था | दौलताबाद से दिल्ली की दूरी 40, जबकि  ग्वालियर से दिल्ली की दूरी 10 दिन में तय की जा सकती थी |

        यात्रा करना अधिक असुरक्षित भी था ; इब्नबतूता कई बार डाकुओं के समूहों द्वारा किए गए आक्रमण झेले थे |
मुल्तान से दिल्ली की यात्रा के दौरान उसके कारवां पर आक्रमण हुआ, और उसके कई साथी यात्रियों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा : जो जीवित बचे, जिनमें इब्नबतूता भी शामिल था, बुरी तरह से घायल हो गए थे |

        इब्नबतूता 1354 में घर वापस पहुँचा , अपनी यात्रा आरम्भ करने के लगभग तीस वर्ष बाद | जब वापस आया तो  स्थानीय शासक ने निर्देश दिए की उसकी कहानियों को दर्ज किया जाए |  इब्न जुजाई  जिसे इब्नबतूता के श्रुतलेखों को लिखने के लिए नियुक्त किया गया था |  उसके यात्रा वृतांत "रेहला" में दर्ज किया गया |

 1400 से 1800 के बीच भारत आए यात्रियों ने फ़ारसी में कई यात्रा वृतांत लिखे | इन लेखकों ने अल-बिरुनी  और इब्नबतूता के पदचिन्हों का अनुसरण किया |
        इनमें से सबसे प्रसिद्व लेखकों में अब्दुर रज्जाक समरकंदी  जिसने 1440 के दशक में दक्षिण भारत की यात्रा की थी , महमूद वली बल्खी, जिसने 1620 के दशक में व्यापक रूप से यात्राएं की थी तथा शेख अली हाजिन जो 1740 के दशक में उत्तर  भारत आया था, शामिल है | 


इब्नबतूता तथा अनजाने को जानने की उत्कंठा 

इब्नबतूता ने बड़े पैमाने पर यात्राएं की , पवित्र पूजास्थलों को देखा, विद्वान लोगों तथा शासकों के साथ समय बिताया, कई बार काजी के पद पर रहा  तथा शहरी केन्द्रों की विश्ववादी संस्कृति का उपभोग किया जहां अरबी, फ़ारसी, तुर्की तथा अन्य भाषाएँ बोलने वाले विचारों, सूचनाओं, तथा उपाख्यानों का आदान - प्रदान करते थे |
          इब्नबतूता ने नारियल और पान का वर्णन करता है |




 इब्नबतूता द्वारा दिया गया पान का वर्णन :

पान एक ऐसा वृक्ष है जिसे अंगूर-लता की तरह ही उगाया जाता ; ..... पान कोई फल नहीं होता है और इसे केवल इसकी पत्तियों के लिए ही उगाया जाता है ..... इसे प्रयोग करने की विधि यह है कि इसे खाने से पहले सुपारी ली जाती है ; यह जायफल जैसी ही होती है पर इसे तब तक तोड़ा जाता जब तक इसके छोटे -छोटे टुकड़े नही हो जाते ; और इन्हें मुंह में रख कर चबाया जाता है | इसके बाद पान की पत्तियों के साथ इन्हें चबाया जाता है |
 मानव सिर जैसे गिरीदार फल (नारियल)

नारियल का वर्णन इब्नबतूता इस प्रकार करता है : 
        ये वृक्ष स्वरूप से सबसे अनोखे तथा प्रकृति में सबसे विस्मयकारी वृक्षों में से एक है | ये हू-बहू-खजूर के वृक्ष जैसे दिखते है | इनमें कोई अंतर नही है सिवाय एक अपवाद के- एक से काष्ठफल प्राप्त होता है और दूसरे से खजूर | नारियल के वृक्ष का फल मानव सिर से मेल खाता है | क्योंकि इसमें भी मानो दो आँखे तथा  एक मुख है और अन्दर का भाग हरा  होने पर मष्तिष्क जैसा दिखता है और उससे जुडा रेशा बालों जैसा दिखाई देता है | वे इससे रस्सी बनाते है | लोहे की कीलों के प्रयोग के बजाय इनसे जहाज को सिलते है | वे इससे बर्तनों के लिए रस्सी भी बनाते है | 

इब्नबतूता और भारतीय शहर  

        इब्नबतूता के वृतांत से ऐसा प्रतीत होता है की अधिकाँश शहरों में भीड़-भाड़ वाली सड़कें तथा चमक-दमक वाले और रंगीन बाजार थे जो विविध प्रकार की वस्तुओं से भरे रहते थे |

        इब्नबतूता ने दिल्ली को एक बड़ा शहर, विशाल आबादी तथा भारत में सबसे बड़ा बताता है | दौलताबाद  भी आकार में दिल्ली को चुनौती देता था |

        बाजार मात्र आर्थिक विनिमय के स्थान ही नहीं थे बल्कि सामजिक तथा आर्थिक गतिविधियों का केंद्र भी थे |
अधिकाँश बाजारों में एक मस्जिद तथा एक मंदिर होता था और उनमें से कम से कम कुछ में तो नर्तकों, संगीतकारों तथा गायकों के सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए स्थान भी चिन्हित थे | 

        इब्नबतूता ने पाया कि भारतीय कृषि के इतना अधिक उत्पादनकारी होने का कारण मिट्टी का उपजाऊपन था, जो किसानों के लिए वर्ष में दो फसलें उगाना संभव करता था |

        भारतीय माल की मध्य तथा दक्षिण- पूर्व एशिया, दोनों में बहुत मांग थी जिससे शिल्पकारों एवं व्यापारियों को भारी मुनाफ़ा होता था | भारतीय कपड़ों, विशेषरूप से सूती कपडे, महीन मलमल, रेशम,जरी,तथा साटन की अत्याधिक मांग थी |

संचार की अनूठी प्रणाली :

        इब्नबतूता डाक प्रणाली की कार्यकुशलता देखकर चकित था | डाक प्रणाली इतनी कुशल थी कि जहां सिंध से दिल्ली की यात्रा में 50 दिन लगते थे वहीं गुप्तचरों की खबरें सुलतान तक इस डाक के व्यवस्था से मात्र 5दिनों में पहुँच जाती थी |

        भारत में दो प्रकार की डाक व्यवस्था थी |  पहला , अश्व डाक व्यवस्था जिसे "उलूक" कहा जाता था | हर चार मील की दूरी पर स्थापित राजकीय घोड़ों द्वारा चालित होती  थी | 

         दूसरा , पैदल डाक व्यवस्था के प्रति मील तीन अवस्थान होते थे ; इसे "दावा" कहा जाता था, और यह एक मील का एक-तिहाई होता था | डाकिये के पास एक हाथ में पत्र और  दो हाथ लम्बी छडी  होती थी जिसके ऊपर तांबे की घंटियाँ लगी होती थी | जब एक पैदल डाकिया अपनी क्षमतानुसार दौड़ कर घंटी बजाते हुए  आता, तब तक  तैयार दूसरा  डाकिया पहले डाकिये से पत्र लेकर भागता | पत्र के अपने  गन्तव्य स्थान पहुचने तक यही  प्रक्रिया चलती रहती थी |  यह पैदल डाक व्यवस्था अश्व डाक व्यवस्था से अधिक -तीव्र होती थी 
 
यात्रियों  के नजरिए 
समाज के बारे में उनकी समझ 
(लगभग दसवीं से सत्रहवीं सदी तक )

* लगभग  1500 ई. में भारत में पुर्तगालियों के आगमन के पश्चात उनमें कई लोगों ने भारतीय सामाजिक रीति-रिवाजों तथा धार्मिक प्रथाओं के विषय में विस्तृत वृतांत लिखे | 

*  जेसुइट राबर्टो नोबिली ने भारतीय ग्रन्थों को यूरोपीय भाषाओं में अनुवादित भी किया |

* सबसे प्रसिद्व यूरोपीय लेखकों में पुर्तगाल निवासी दुआर्ते बरबोसा , जिसने दक्षिण भारत  में  (कृष्णदेव राय के दरबार में आया था ) व्यापार और समाज का एक विस्तृत विवरण लिखा |

* 1600 ई. के बाद आने वाला  प्रसिद्व यात्री फ्रांसीसी जौहरी ज्यौं - बैप्टिस्ट  तैवार्नियर था जो  कम-से-कम छह बार  भारत की यात्रा की थी | वह विशेष रूप से भारत की व्यापारिक स्थितियों से प्रभावित था और उसने भारत की तुलना ईरान और आटोमान साम्राज्य से की |

*  इतालवी चिकित्सक मनूकी 1656ई. में भारत आया और यही बस गए |

फ्रांस का रहनेवाला फ्रांस्वा बर्नियर एक चिकित्सक, राजनीतिक, दार्शनिक तथा एक इतिहासकार था | वह 1656 से 1668 तक भारत में बारह  वर्ष तक रहा  और मुग़ल  से नजदीकी रूप से जुड़ा रहा - पहले सम्राट शाहजहाँ के ज्येष्ठ पुत्र दारा शिकोह के चकित्सक के रूप में , और बाद में मुग़ल दरबार के एक आर्मीनियाई अमीर दानिशमंद खान के साथ एक बुद्विजीवी  तथा वैज्ञानिक के रूप में |

फ्रांस्वा बर्नियर का पूर्व और पश्चिम की तुलना 

* बर्नियर ने देश के कई भागों की यात्रा की और जो दीक्षा उसके विषय में विवरण लिखे | साथ ही भारत में जो देखता उसकी तुलना यूरोपीय स्थिति से करता था |

बर्नियर अपनी प्रमुख कृति "ट्रेवल्स इन द मुग़ल एम्पायर" को फ्रांस के शासक लूई XIV को समर्पित किया |
* प्रत्येक दृष्टांत में बर्नियर ने भारत की स्थिति को यूरोप में हुए विकास की तुलना में दयनीय बताया |

* बर्नियर के कार्य फ्रांस में 1670-71 में प्रकाशित हुए थे, और अगले पांच वर्षों के भीतर ही अंगरेजी, डच, जर्मन तथा इतालवी भाषाओं में इसका अनुवाद हो गया |

* 1670-1725 के बीच उसका वृतांत फ्रांसीसी में आठ बार पुनर्मुद्रित हो चुका था और 1684 तक यह तीन बार अंगरेजी में पुनर्मुद्रित हुआ था |

भारत के विषय में  विचारों का निर्माण व् प्रसार 

     भारत के विषय में विचारों का सृजन और प्रसार कर यूरोपीय यात्रियों के वृतांतों ने उनकी पुस्तकों के प्रकाशन और प्रसार के मध्यम से यूरोपीय  लोगों के लिए भारत की छवि के सृजन में सहायता की | 
    बाद में, 1750 के बाद , जब शेख इतिसमुद्वीन तथा मिर्जा अबू तालिब जैसे भारतीयों ने यूरोप की यात्रा की तो उन्हें यूरोपीय लोगों की भारतीय समाज की छवि का सामना करना पड़ा और उन्होंने तथ्यों की अपनी अलग व्याख्या के माध्यम से इसे प्रभावित करने का प्रयास किया |


* फ्रांस्वा बर्नियर ने अपने यात्रा वृतांत में  मुगलकालीन भारत की तुलना यूरोप से करता रहा , और यूरोप को  श्रेष्ठ  दिखाया |

* बर्नियर तत्कालीन भूमि स्वामित्व पर प्रश्न उठाता है - उसे यह लगा की मुग़ल साम्राज्य में सम्राट सारी भूमि का स्वामी था जो इसे अपने अमीरों के बीच बांटता था, और इसके अर्थव्यवस्था और समाज के लिए अनर्थकारी परिणाम होते थे | राजकीय स्वामित्व के कारण भूधारक भूमि के प्रति उदासीन रहते थे | इसी कारण कृषि का समान रूप से विनाश, किसानों का असीम उत्पीडन तथा समाज के सभी वर्गों के जीवन स्तर में अनवरत पतन की स्थिति उपन्न हुई , सिवाय शासक वर्ग के |

बर्नियर बहुत  विश्वास से कहता था - " भारत में मध्य की स्थिति के लोग नही है "|

* बर्नियर लिखता है - इसका राजा "भिखारियों और क्रूर लोगों " का राजा था; इसके शहर और नगर विनष्ट  तथा "खराब हवा " से दूषित थे ; और इसके  खेत "झाड़ीदार" तथा "घातक दलदल " से भरे हुए थे और इसका मात्र एक ही कारण था -राजकीय भूस्वामित्व |

        आश्चर्य की बात यह है की एक भी सरकारी मुग़ल दस्तावेज यह इंगित नहीं करता की राज्य ही भूमि का एकमात्र स्वामी था |  अकबर काल  में अबुल फजल भूमि राजस्व को "राजत्व का पारिश्रमिक " बताता है जो राजा द्वारा अपनी प्रजा को सुरक्षा प्रदान करने के बदले की गई मांग प्रतीत होती है न की अपने स्वामित्व वाली भूमि पर लगान |

* बर्नियर के विवरणों ने पश्चमी विचारकों को भी प्रभावित किया | मांतेस्क्यु और कार्ल मार्क्स विशेष रूप से प्रभावित था और ऐसी व्यवस्था को हानिकारक बताया |

* यह भी एक सच्चाई थी की भारत से निर्यातित उत्पादों के बदले सोना चांदी प्राप्त होते थे |

17वीं शताब्दी में जनसंख्या का लगभग 15% भाग नगरों में रहता था | यह औसत उस समय यूरोप की नगरीय जनसंख्या के अनुपात से अधिक था |

*  परन्तु बर्नियर मुगलकालीन शहरों को " शिविर नगर " कहता था | 

* बर्नियर वर्णन करता है की उस समय सभी प्रकार के नगर अस्तित्व में थे ; उत्पादन केंद्र, व्यापारिक नगर, बन्दरगाह नगर,धार्मिक केंद्र, तीर्थ स्थान आदि |

* व्यापारिक अक्सर मजबूत सामुदायिक अथवा बन्धुत्व के सम्बन्धों से जुड़े होते थे और अपनी जाति तथा व्यावसायिक संस्थाओं के माध्यम से संगठित रहते थे | 

पश्चमी भारत में व्यापारिक समूहों को महाजन कहा जाता था और उनके मुखिया को सेठ |

* शहरी केन्द्रों में सभी महाजनों का सामूहिक प्रतिनिधित्व व्यापारिक समुदाय के मुखिया द्वारा होता था जिसे नगर सेठ कहा जाता था |

* अन्य शहरी समूहों में व्यावसायिक वर्ग  जैसे चिकित्सक (हकिम अथवा वैद्य ), अध्यापक (पंडित या मुल्ला ), अधिवक्ता ,चित्रकार ,वास्तुविद, संगीतकार, सुलेखक आदि सम्मिलित थे |  जहाँ कई राजकीय प्रश्रय पर आश्रित थे, कई अन्य संरक्षकों वाले बाजार में आमलोगों  के सेवा द्वारा जीवनयापन करते थे  

यात्रियों  के नजरिए 
समाज के बारे में उनकी समझ 
(लगभग दसवीं से सत्रहवीं सदी तक )

मुगलकालीन राजकीय कारखाने 

 बर्नियर राजकीय कारखाने के बारे में लिखता है - 

        कई स्थानों पर बड़े  कक्ष दिखाई देते है ; जिन्हें काराखाना अथवा शिल्पकारों की कार्यशाला कहते है | एक कक्ष में कशीदाकार एक मास्टर निरीक्षण में व्यवस्ता से कार्यरत रहते है | एक अन्य में आप सुनारों को देखते है; तीसरें में चित्रकार; चौथे में प्र्लाक्षा रस का रोगन लगाने वाले; पांचवे में बढई , खरादी, दरजी तथा जूते बनाने वाले; छठे में रेशम,जरी तथा महीन मलमल का काम करने वाले ..
        शिल्पकार अपने कारखानों में हर रोज सुबह आते है जहां वे पूरे दिन कार्यरत रहते है; और शाम को अपने -अपने घर चले जाते है | इसी निश्चेष्ट नियमित ढंग से उनका समय बीतता जाता है ; कोई भी जीवन की उन स्थितियों में सुधार करने का इच्छुक नहीं है जिनमें वह पैदा हुआ था |


महिलाएं : दासियाँ, सती तथा श्रमिक 

इब्नबतूता और दास 
* भारत में प्रचलित दास प्रथा का वर्णन विभिन्न विदेशी यात्रियों ने किया है |

दिल्ली सल्लतनत के आरम्भिक वंश दास वंश के सभी सुलतान पूर्व में दास रह चुके थे |

* बाजारों में दास किसी भी अन्य वस्तु की तरह खुले-आम बेचे जाते थे और नियमित रूप से भेंटस्वरूप दी जाते थी 

इब्नबतूता लिखता है -  जब वह सिंध पहुँचा हो उसने सुलतान मुहम्मद बिन तुगलक के लिए भेंटस्वरूप "घोड़े,ऊंट तथा दास" खरीदे | जब वह मुल्तान पहुँचा तो उसने गवर्नर को "किशमिश " के बादाम के साथ एक दास और घोड़ा " भेंट के रूप में दिए | इब्नबतूता बताता है की मुहम्मद बिन तुगलक नसीरूद्वीन नामक धर्मोपदेशक के प्रवचन से इतना प्रसन्न हुआ की उसे "एक लाख टके तथा दो सौ दास" दे दिए |

*  इब्नबतूता बताता है की सुल्तान की सेवा में कार्यरत दासियाँ संगीत और गायन में निपुण थी, और इब्नबतूता सुलतान की बहन की शादे के अवसर पर उनके प्रदर्शन से खूब आनन्दित हुआ |

* सुल्तान अपने अमीरों पर नजर रखने के लिए दासियों को भी नियुक्त करता था |

इब्नबतूता  कहता है : 

        यह सम्राट की आदत है ..... हर बड़े या छोटे अमीर के साथ अपने दाशों में से एक को रखने की, जो उसके अमीरों की मुखबिरी करता है | वह महिला सफाई कर्मचारियों को भी नियुक्त करता  जो बिना बताए  में दाखिल हो जाती है ; और दासियों के पास जो भी जानकारी होती है , वे उन्हें दे देती है |
        अधिकाँश दासियों को हमलों और अभियानों के दौरान बलपूर्वक प्राप्त किया जाता था |


बर्नियर और सती प्रथा 

  बर्नियर के व्रतांत के सबसे मार्मिक विवरणों में से एक 

लाहौर में मैंने एक बहुत ही सुन्दर अल्पवयस्क विधवा जिसकी  आयु मेरे विचार से 12 वर्ष से अधिक नही थी , की बलि होते हुए देखी |  उसे भयानक नर्क की और जाते हुए वह असहाय छोटी बच्ची जीवित से अधिक मृत प्रतीत हो रही थे ; उसके मष्तिष्क की व्यथा का वर्णन नही किया जा सकता ; वह कांपते हुए बुरी तरह से रो रही थी; लेकिन तीन या चार ब्राह्मण, एक बूढ़ी  औरत, जिसने उसे अपनी आस्तीन के नीचे दबाया हुआ था, की सहायता से उस अनिच्छुक पीडिता को जबरन घातक स्थल की ओर  ले गए, उसे लकड़ियों पर बैठाया, उसके हाथ और पैर बाँध दिए ताकि वह भाग न जाए और इस स्थिति में उस मासूम प्राणी को ज़िंदा जला दिया गया | मई अपनी भावनाओं को दबाने में और उनके कोलाहलपूर्ण तथा व्यर्थ के क्रोध को बाहर आने से रोकने में असमर्थ था ..........

* सामान्यत: महिलाएं घर के काम के अलावा कृषि कार्य में भी शामिल होती थी |  व्यापारिक परिवारों से आने वाली महिलाएं व्यपारिक गतिविधियों में भी शामिल होती  थी |

भारत में आने वाले प्रमुख विदेशी यात्री 
 क्रम सं.  विदेशी यात्री        देश  भ्रमण काल                यात्रा वृतांत 
 1. मेगास्थनीजयूनान   305-297ई.पू. इंडिका   
 2. फाह्यान चीन   399-414ई. फाह्यान की यात्राएं  
 3. ह्वेनसांग  चीन  629-644ई.  सीयुकी 
 4. अल-बिरूनी  उज्बेकिस्तान   1024-1030ई.  तहकीक-ए-हिन्द 
 5. मार्क पोलो  इटली  1292-1293 ई. मार्क पोलो की यात्राएं  
 6.इब्नबतूता मोरक्को  1333-1342 ई.  रेहला  
 7. निकोली कोंटीइटली  1420-1472 ई.   -
 8.अब्दुर्रज्जाक   ईरान  1441-1442ई.  मतालसादेन 
 9.अफनासी निकेतन  रूस  1466-1472 ई.   तीन समुद्रों पार की यात्रा 
 10.एडूअर्ड़ो बारबोसा पुर्तगाल  1516-1518 ई.  द बुक आफ डूराते बारबोसा 
 11. डेमिंगोस  पेईजपुर्तगाल   1520-1522ई.  डेमीगोस की कथा 
 12. फर्नाओ नूनीज  पुर्तगाल 1535-1537 ई.  क्रोनिकल आफ फर्नास  
 13.        पीटर मुंदी   इटली  1630-1634 ई.  -
 14. टेवर्नियर  फ्रांस  1641-1687  ई.  टेवर्नियर की यात्रा वृतांत 
 15. निकोली मनुची  इटली  1656-1717 ई.  सटोरियों द मोगोर 
 16. फ्रांस्वा बर्नियर  फ्रांस  1658-1668 ई.  ट्रेवल्स इन द मुग़ल एम्पायर 
 17. लिविदेव  रूस  1785-1797 ई.  हिन्दुस्तानी ग्रामर 


                                     समाप्त


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